Friday, March 29
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टॉप 10 खास बातें काजा के रास्ते की

यह यकीनन भारत के और शायद दुनिया के भी सबसे चुनौतीपूर्ण लेकिन सबसे खूबसूरत रास्तों में से एक है। हिमाचल प्रदेश में राजधानी शिमला से स्पीति घाटी में काजा तक का रास्ता चरम रोमांच का है। हालांकि यह मनाली से लेह यानी लाहौल घाटी के रास्ते से अलग है। यह दीगर बात है कि आम तौर पर रोमांच-प्रेमी इन दोनों रास्तों को एक ही सांस में याद करते हैं। आइए जरा इस रास्ते की दस सबसे खास बातों पर नजर डालें, जिनका आनंद लेना आप इस रास्ते पर जाते हुए भूल नहीं पाएंगे-

काह जिग्स

काजा के रास्ते में शिमला से लगभग 290 किलोमीटर दूर यह खाब व काह गांवों के बीच पहाड़ चढ़ती सड़क का नाम है। सर्पाकार तरीके से चढ़ती इस सड़क में कुल सात पट्टियां हैं। लोग कहते हैं इसे देखकर ही इसपर यकीन किया जा सकता है। स्पीति नदी के किनारे-किनारे एक बेहद संकरी घाटी में पहाड़ में कटी सड़क से घुसने के बाद सड़क अचानक ऊपर चढऩे लगती है। यह रास्ता नाको की तरफ जाता है। एक बार ऊपर पहुंचने के बाद जब पलटकर नीचे देखते हैं तो धड़कनें तेज हो जाती हैं। मजेदार बात यह है कि इतनी दुर्गम जगह पर होने के बावजूद यहां सड़कें अपेक्षाकृत अच्छी हैं। बस कई जगह इतनी संकरी हो जाती हैं कि आमने-सामने से दो बड़े वाहनों का निकलना मुश्किल हो जाता है।

गियू में ममी

कुछ सालों पहले तक इसके बारे में कोई जानता न था। लेकिन लोग कहते हैं कि यह भारत की इकलौती ममी है। देश के कुछ गिरजाघरों में कुछ संतों के शरीरों को लेप लगाकर सुरक्षित रखने की जानकारी तो है लेकिन इस तरह की किसी प्राकृतिक तौर पर सुरक्षित ममी की नहीं। हैरानी की बात यही है कि यह ममी किसकी है और कितनी पुरानी है, इसकी जानकारी किसी को नहीं। ममी को देखकर लगता है कि यह एक महिला बौद्ध भिक्षु की है जो संभवतया समाधिवस्था में ही सिधार गई। दावा यह है कि यह ममी जहां जिस अवस्था में मिली, वैसे ही रखी हुई है। अब उसे निकट ही एक नए मंदिर में रखा जा रहा है। शिमला से लगभग 355 किलोमीटर की दूरी पर सुमदो चेकपोस्ट है। उससे तीन किलोमीटर और आगे बढ़ें तो गियू के लिए रास्ता कटता है। गियू गांव वहां से नौ किलोमीटर भीतर घाटी में है।

ताबो मोनेस्ट्री

काजा से 50 किलोमीटर पहले स्पीति नदी के पश्चिमी किनारे पर समुद्र तल से लगभग दस हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है ताबो। यह स्पीति घाटी का सबसे बड़ा बौद्ध परिसर है। बताया जाता है कि यह मठ 996 ईस्वी में बना था। इसकी खास बनावट इसकी पहचान है। अपने यूरल्स और पुरानी पेंटिंग्स के अवशेषों के चलते इसे हिमालय का अजंता भी कहा जाता है क्योंकि वे अजंता गुफाओं के शिल्प से बहुत मिलते हैं। यह भी माना जाता है कि यह भारत की सबसे पुरानी सक्रिय मोनेस्ट्री है। यहां पहुंचकर लगता है मानो आप यकायक सैकड़ों साल पीछे इतिहास में चले गए हों। गांव के किनारे खड़े पहाड़ पर कई छोटी-बड़ी गुफाएं नजर आ जाती हैं जो बौद्ध भिक्षुओं द्वारा साधना के लिए इस्तेमाल में लाई जाती हैं।

ढंकर के टीले व किले

जब ताबो से काजा की तरफ बढ़ते हैं तो ढंकर की तरफ रास्ता अलग हो जाता है। ढंकर का किला काजा से 32 किलोमीटर पहले है। यह स्पीति की राजधानी हुआ करता था। ढंकर के किले समेत वहां की समूची रिहाइश मिट्टी के टीलों पर है। ये टीले इस इलाके की भौगोलिक संरचना की खास पहचान हैं। इन्हें देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह सदियों से कैसे खड़े हैं। ढंकर समुद्र तल से 3870 मीटर की ऊंचाई पर स्पीति नदी के बाएं किनारे पर शिलिंग के निकट है। ढंकर ऐसी जगह पर स्थित है जहां से स्पीति घाटी में आने वाले रास्तों पर निगरानी रखी जा सकती थी। इसीलिए इसका सामरिक महत्व था। यह 7वीं से 9वीं सदी के बीच बना था। इतिहास व शिल्प, दोनों ही लिहाज से ढंकर काफी अहम स्थान रखता है। ढंकर गांव में ही टीले के एक किनारे पर लाहो-पा-गोंपा भी है।

नाको मोनेस्ट्री

काह से 20 किलोमीटर दूर, काह जिग्स खत्म होने के बाद नाको गांव आता है। यह काजा के मु य रास्ते से बाईं ओर एक किलोमीटर हट कर है। समुद्र तल से 3660 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नाको गांव में ही नाको मोनेस्ट्री है। इस परिसर में चार मंदिर हैं। बाहर से यह मठ बेहद साधारण से दिखते हैं। लेकिन इनकी असली कला इनके भीतर छिपी है। चार में से दो मंदिर काफी अहमियत रखते हैं- मुख्य मंदिर और ऊपरी मंदिर। ये दोनों मंदिर ही सबसे पुराने भी हैं। इनमें मिट्टी की पुरानी मूर्तियां, यूरल और पेंटिंग्स अब भी दिख जाती हैं। इनमें से कुछ पर तो सोने का काम भी है। इसे संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है।

आखिरी छोर छितकुल

इसे किन्नौर का सरताज माना जाता है। हिमाचल की किन्नौर घाटी के सबसे सुदूर व दुर्गम स्थानों में से है छितकुल। बास्पा नदी के किनारे समुद्र तल से 3450 मीटर की ऊंचाई पर स्थित छितकुल पुराने हिंदुस्तान-तिब्बत राजमार्ग पर भारत का आखिरी गांव है। इसके आगे बगैर परमिट नहीं जाया जा सकता। यहां जाने वाले सैलानी अब भी उस जगह को ढूंढते हैं जिसे हिंदुस्तान का आखिरी ढाबा कहा जाता है। यहां की खूबसूरती का आनंद इसी में है कि यहां के आगे आपको आपकी आंखों के समानांतर बर्फीली चोटियां पसरी नजर आती हैं। छितकुल सांगला से 25 किलोमीटर आगे है। शिमला से 205 किलोमीटर दूर काजा जाते समय करछम बांध आता है। यहीं से सांगला व छितकुल के लिए पहाड़ी रास्ता अलग निकलता है।

कल्पा से किन्नर कैलास

यह अफसोस की ही बात कही जा सकती है कि जो हिमाचल की खूबसूरत वादियों में जाने का मन रखते हैं और शिमला या मनाली तक जाकर संतुष्ट हो जाते हैं। कल्पा कई मायनों में कल्पनातीत है। करछम बांध से 12 किलोमीटर आगे पोवारी है। पोवारी काजा के रास्ते में काजा से पहले आखिरी पेट्रोल पंप के लिए जाना जाता है। पोवारी से बिलकुल बगल में खड़े पहाड़ पर छह किलोमीटर की चढ़ाई के बाद रिकांगपिओ आता है जो किन्नौर जिले का मु यालय है। यहां से और दस किलोमीटर की चढ़ाई के बाद कल्पा है। किन्नौर का यह इलाका अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए तो जाना ही जाता है। उससे भी खास कल्पा के ठीक सामने खड़े पर्वत का नजारा है जिसे किन्नर कैलास कहा जाता है।

सांगला का कामरू किला

करछम से छितकुल के रास्ते में 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सांगला। बास्पा नदी के किनारे सांगला घाटी की खूबसूरती को जादुई माना जाता है। एक बार आप यहां गए तो जिंदगी भर भूल नहीं पाएंगे। सांगला से दो से किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर स्थित है कामरू किला। माना जाता है कि बुशहर के राजाओं की उत्पत्ति यहीं से हुई थी। समुद्र तल से 2600 मीटर की ऊंचाई पर खड़े कामरू के किले के हिमाचल प्रदेश के सबसे पुराने किलों में से एक माना जाता है। किले की बनावट भी बड़ी खूबसूरत है और कई दरवाजों के बाद उसमें प्रवेश किया जाता है। मु य द्वार पर बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है तो भीतर तीसरी मंजिल पर कामा या देवी की। किला पूरी तरह लकड़ी का बना है।

सड़कों का कमाल

लाहौल, स्पीति या किन्नौर घाटी के इन तमाम दुर्गम लेकिन बेइंतहा खूबसूरत जगहों को देख पाना और दुनिया को दिखा पाना मुमकिन न होता अगर वहां जाने के लिए सड़कें बनाने का दुष्कर काम न किया गया होता। कई लोगों ने इन सड़कों बनाने में अपनी जानें गवां दी। दरअसल ये सड़कें इंजीनियरिंग का कमाल हैं और इसे कहने में कोई हिचक नहीं कि ये सड़कें भी अपने आपमें उतनी ही देखने लायक हैं जितनी के वे सब जगहें, जहां ये ले जाती हैं- चाहे वो काह जिग्स हों, रामपुर और वांगतू के बीच का रास्ता या डबलिंग पुल या फिर दुनिया के सबसे ऊंचे गांव लांगजा के लिए बना रास्ता। ऐसे रास्ते पूरे भारत में और कहीं नहीं दिखेंगे।

दत्तनगर की मधुमक्खियां

अब वैसे तो काजा तक के रास्ते में और उसके आसपास ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें इस फेहरिस्त में रखा जा सकता है- कई प्राकृतिक और कई ऐतिहासिक। लेकिन एक और अनूठी चीज है जो काजा जाते हुए आपका ध्यान खींचती है और वे हैं दत्तनगर के मधुमक्खीपालक। रामपुर-बुशहर से थोड़ा ही पहले आपको सड़क के किनारे लंबी कतार में रखे अल्युमिनियम के कई बक्से दिख जाएंगे। फरवरी-मार्च में ठंड कम होने और बसंत शुरू हो जाने के बाद जब घाटी में फूल खिलने लगते हैं तो मधुमक्खीपालक यहां शहद बनाने के लिए आ जाते हैं। इसके आगे बढऩे पर इलाका हरियाली विहीन और बंजर होने लगता है। सर्दियों में ये लोग हरियाणा व राजस्थान में सरसों व सूरजमुखी के फूलों के खेतों में मधुमक्खी पालने चले जाते हैं।

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