आम तौर पर जब नौका दौड़ की बात होती है तो सैलानियों के जेहन में सिर्फ केरल का नाम आता है क्योंकि केरल के बैकवाटर्स अपनी सर्प नौका दौड़ों के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। लेकिन भारत में और भी इलाके हैं जहां हर साल पारंपरिक रूप से नौका दौड़ होती है। हम यहां बात कर रहे हैं पूर्वोत्तर राज्यों की। असम, त्रिपुरा, मणिपुर आदि राज्यों में हर साल कई नौका दौड़ों का आयोजन होता है। भले ही अभी सैलानी नक्शे पर इनकी जगह उस तरह से न बन पाई हो लेकिन इनकी खूबसूरती व भव्यता में किसी तरह की कोई कमी नहीं हैं।
त्रिपुरा में हर साल रुद्रसागर झील में एक नौका दौड़ सितंबर-अक्टूबर के महीनों में होती है। रुद्रसागर झील राजधानी अगरतला से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मेलाघर के पास स्थित इसी झील के बीच में ऐतिहासिक नीरमहल स्थित है। भारत में गिने-चुने महलों में से यह भी एक है जो पानी के बीच में स्थित है। इसकी शुरुआत कब व कैसे हुई, इसके बारे में ठीकठाक जानकारी नहीं। कहा जाता है कि इस समय के बांग्लादेश में बहने वाली तीतस नदी के किनारे रहने वाले मछुआरों ने कई पीढ़ी पहले इस इलाके में आकर रहना शुरू कर दिया था। उन्होंने ही इस नौका दौड़ की परंपरा शुरू की। इसमें कई टीमें हिस्सा लेती हैं जिनमें महिलाएं भी होती हैं और पुरुष भी। स्थानीय आयोजनों के कैलेंडर का यह महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसका इंतजार लोगों को खूब रहता है। यहां की नावें भी लंबी होती हैं, जिनमें कई चालक एक साथ बैठ सकते हैं। लेकिन रेस में कई तरह की नावें हिस्सा लेती हैं। वैसे यहां रेस का कम और उत्सव का माहौल ज्यादा होता है। इन दौड़ों को देखने के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भी जुटते हैं और सैलानी भी। त्रिपुरा को देखने का यह एक बढिय़ा मौका हो सकता है क्योंकि उस समय तक बारिशें भी कम हो जाती हैं। दरअसल पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए त्रिपुरा का पर्यटन विकास निगम उस समय तीन दिन का एक नीरमहल फेस्टिवल भी आयोजित करता है। यह नौका दौड़ उसी फेस्टिवल का एक हिस्सा हो जाती है।
संस्कृति का हिस्सा
नौका दौड़े उन जगहों पर स्वाभाविक रूप से ज्यादा होती हैं जहां नदियों की बहुतायत है और जहां नदियों का आम तौर पर आवागमन के लिए इस्तेमाल होता है। इसलिए नावें और नौकाचालन वहां की संस्कृति का हिस्सा बन जाती हैं। लेकिन अब चुनौती नई पीढ़ी की रुचि इसमें बनाए रखने की है।
असम के गोलपाड़ा में हर साल देसी नावों की एक चैंपियनशिप होती है। ब्रह्मपुत्र-जलजली नदी में पखलुड़ा-दारोगरालगा दकईदल बोड रेसिंग कमिटी के बैनर तले होने वाली इस चैंपियनशिप में कई टीमें भाग लेती हैं। इनामी प्रतिस्पर्धा होने के साथ-साथ इसने एक पारंपरिक जश्न का भी स्वरूप ले लिया है। गोलपाड़ा के पंचरत्ना में ही दो दिन की ऑल असम ओपन बोट रेस चैंपियनशिप भी होती है। दरअसल असम में कई मौकों पर इस तरह की नौका दौड़ आयोजित करने का प्रचलन है। जैसे कि हर साल लक्ष्मी पूजा के मौके पर भी नौका दौड़ आयोजित करने का प्रचलन है। कहा जाता है कि नौका दौड़े असम के इतिहास से भी कहीं न कहीं जुड़ी रही हैं। जैसे कि सन 1350 में चुतिया राजा द्वारा अपने पड़ोसी अहोम राजा को सफरई नदी में नौका दौड़ के लिए आमंत्रित किए जाने का प्रसंग इतिहास में मिलता है।
पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों में दुर्गा पूजा के मौके पर भी नौका दौड़ का आयोजन करने की परंपरा है। जैसे असम के बरपेटा जिले के पाठशाला शहर से पांच किलोमीटर दूर पहुमारा नदी के पाट पर हर साल विजयादशमी के दिन हजारों की संख्या में लोग पारंपरिक नावों की दौड़ देखने के लिए जमा होते हैं। दौड़ मेधीकुछी गांव से शुरू होती है। इस दौड़ का इतिहास बहुत पुराना तो नहीं लेकिन स्थानीय लोग बताते हैं कि यह दौड़ पिछले पांच दशकों से भी ज्यादा समय से हो रही है। इस दौड़ में 50 फुट तक लंबी नावें हिस्सा लेती हैं। रंग-बिरंगी नावों के आगे का हिस्सा कहुआ के फूलों से सजाया जाता है। कहुआ के फूलों को यहां पतझड़ का अग्रदूत माना जाता है। आप इस मौके पर यहां हो तो देखेंगे कि नदी के दोनों ओर भी कहुआ के फूल एक अलग ही माहौल बना देते हैं। नाविक पारंपरिक गीत गाते हुए अपनी-अपनी नावें खेते हैं और दोनों किनारों पर जुटे हजारों की तादाद में लोग उनकी आवाज से अपनी आवाज मिलाकर उनका साथ देते हैं। असम के ही नौगांव में भी बलतोली बाजार में हर साल सितंबर के महीने में पारंपरिक नावों की एक दौड़ होती है।
असम के लिए तो नौका दौड़ें लोगों के जनजीवन से इस कदर जुड़ी हैं कि तमाम पारंपरिक त्योहारों के मौकों पर उनका आयोजन होता है। जैसे माघ बिहु पर्व के मौके पर भी नौका दौड़ होती है। हाजो, सुआलकुची व गुवाहाटी में भी कई बोट रेसिंग चैंपियनशिप होती हैं।
सुआलकुची को अपने रेशमी कपड़े के लिए मैनचेस्टर ऑफ ईस्ट भी कहा जाता है। वहां हर साल प्रमुख समाज सुधारक श्रीमंत शंकरदेव की याद में एक नौका दौड़ होती है। शंकरदेव का असम के सांस्कृतिक व धाॢमक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ष 1965 में एक नौका स्पर्धा समिति का गठन यहां किया गया था जिसने नौका दौड़ की पुरानी परंपरा को फिर से जीवित किया। इसका मकसद विभिन्न संप्रदायों व समुदायों में सद्भाव पैदा करना भी था। यह मानना था कि वैसे तो सभी समुदायों के लोग अपने त्योहार अलग-अलग मनाते हैं लेकिन नौका दौड़ के तौर पर एक ऐसा आयोजन हो सकता है जिसमें सभी लोग शिरकत करें। इसलिए इस स्पर्धा में सभी धर्मों के लोग पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लेते हैं। हाजो में बोर्नी-नवदीप संघ हर साल होलोंग नाव-खेल आयोजित करता है। असम में ही कामरूप से समरिया में भी हर साल नौका दौड़ स्पर्धा का आयोजन होता है।
असम में एक पारंपरिक खेल व ड्रैगन बोट एसोसिएशन भी है जो हाजो के पिट-कटी बील में हर साल राष्ट्रीय ड्रैगन बोट रेसिंग चैंपियनशिप का आयोजन करती है। तीन दिन की इस प्रतिस्पर्धा में देश के कई राज्यों से नाविक हिस्सा लेने के लिए आते हैं। असम में नौका दौड़ इस तरह से जनजीवन का हिस्सा है कि स्कूल व कॉलेज स्तर पर नियमित रूप से नौका दौड़ स्पर्धाएं आयोजित की जाती हैं। किस तरह से यहां के लोग नौका दौड़ के अभ्यस्त हैं इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले साल अल्लपुझा में केरल की सबसे प्रतिष्ठित नेहरू ट्रॉफी बोट रेस जीतने वाली स्थानीय टीम में लगभग 30 असमिया व मणिपुरी प्रवासी कर्मचारी भी शामिल थे। यानी उन्होंने अपने कौशल से दूसरी टीमों के स्थानीय मलयाली नाविकों को पछाड़ दिया था।
इतने से आपका मन न भरे तो आप मेघालय में शिलांग से 95 किलोमीटर दूर डावकी जा सकते हैं। वहां उमनगोट नदी पर हर साल मार्च-अप्रैल में एक नौका दौड़ होती है। आपको बता दें कि उमनगोट को दुनिया की सबसे साफ पानी वाली नदी के तौर पर माना जाता है।
हेकरू हिदोंग्बा
मणिपुर में एक पारंपरिक बोट रेस फेस्टिवल होता है। यह सागोलबंद बिजोयगोविंदा के थंगापट में आयोजित किया जाता है। हेकरु हिदोंग्बा नाम का यह त्योहार मीतई कैलेंडर के लंगबन महीने के 11वें दिन मनाया जाता है, जो अमूमन सितंबर महीने में आता है। यह घोर पारंपरिक आयोजन जो तमाम रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। इसमें पारंपरिक मणिपुरी वेशभूषा में दो टीमें अलग-अलग नावों पर सवार होकर एक-दूसरे से मुकाबला करती हैं। कहा जाता है कि इस परंपरा की शुरुआत 984 ईस्वी में महाराजा इरेंग्बा के शाशनकाल में हुई थी।
जीवट की दौड़
नौगांव में कुछ साल पहले स्थानीय लोगों ने पहले एक मृतप्राय नदी को जिंदा करके वहां एक नौका दौड़ का आयोजन करना शुरू किया। पठारी नदी 1934 तक नौ-परिवहन के काम आती थी। लेकिन पहले बाढ़ और 1950 में एक भूकंप के कारण नदी का रास्ता अवरुद्ध हो गया और उसने रास्ता बदल लिया। अब छह साल पहले लोगों ने एक परियोजना को हाथ में लेकर नदी के चार किलोमीटर लंबे पाट को साफ किया और उसे फिर से बहने लायक बनाया। फिर उसके जश्न के तौर पर नौका दौड़ का आयोजन शुरू किया। इस नदी की कुल लंबाई 20 किलोमीटर ही है। यह चापानल्ला वाटरफॉल से निकलकर हरिया में मिल जाती है।
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