दुनिया में कई नए-पुराने पुल अपने वास्तुशिल्प और इंजीनियरिंग कौशल के लिए मशहूर हैं। लेकिन भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के जीवित पुलों को देख कर आप दांतो तले उंगलियां दबाए बगैर नहीं रह पाएंगे। मनोरम प्राकृतिक छटा बिखरने वाले ये अनोखे पुल स्थानीय मूल निवासियों के उत्कृष्ट तकनीकी कौशल के जीते-जागते उदाहरण हैं।
मेघालय में घने जंगल, दुर्गम घाटियां व बीहड़ जंगल हैं। यहां छोटी-छोटी पहाड़ी नदियां हैं जो मानसून के दौरान उफनती रहती हैं। यहां लकड़ी के पुल बहुत जल्द गलने लगेंगे या बह जाएंगे। स्टील और कंक्रीट से बने पुलों की भी सीमाएं हैं। लेकिन आपको यह जानकर अचरज होगा कि जिंदा पेड़ों की जड़ों से बनाए गए पुल कई सदियों तक चल सकते हैं। जंगलों में बहने वाली छोटी नदियां मानसून के महीनों में बड़ी नदियों में तब्दील हो जाती हैं। इन उफनती हुई नदियों को पार करने के लिए स्थानीय खासी और जयंतिया आदिवासियों ने रबड़ के पेड़ की जीवित जड़ों से झूला पुलों का निर्माण किया है जो बेहद मजबूत और टिकाऊ हैं।
पुलों के निर्माण की प्रक्रिया वृक्षारोपण से आरंभ होती है। पुल बनाने वाला व्यक्ति नदी के किनारे या बीहड़ के छोर पर रबड़ (फाइकस इलास्टिका) का पौधा लगाता है। धीरे-धीरे यह पौधा बाहरी जड़ें विकसित करने लगता है। इन जड़ों को बांस या पाम के तनों से बने ढांचे में बुना जाता है। इन्हें नदी के ऊपर दूसरे किनारे की तरफ बढ़ने के लिए निर्देशित किया जाता है। इन हवाई जड़ों के दूसरे किनारे पर पहुंचने के बाद उन्हें रोप दिया जाता है। ये जड़ें छोटी-छोटी जड़ें विकसित करती हैं। इन जड़ों को भी किनारे पर निर्देशित करके रोप दिया जाता है।
पौधे की निरंतर ग्रोथ और जड़ लपेटने की तकनीकों के उपयोग से फाइकस इलास्टिका की जड़ें जटिल संरचनाओं में बदल कर टिकाऊ और सुरक्षित पुलों का निर्माण करती हैं। नई स्फुटित होने वाली जड़ें मौजूदा ढांचे में निरंतर रूप से जुड़ती रहती हैं। पुल निर्माण में फाइकस इलास्टिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जड़ें यांत्रिक बोझ को झेलने के लिए माध्यमिक जड़ें उत्पन्न करती हैं। इनके अलावा एक कुदरती प्रक्रिया से एक पेड़ की शाखाएं, तने और जड़ें एक दूसरे पेड़ की संरचना में उगने लगती हैं। दो जड़ें एक साथ दबने पर साथ-साथ बढ़ती हैं। इन पुलों का रखरखाव व्यक्तियों, परिवारों या पुलों का इस्तेमाल करने वाले ग्रामीण समुदायों द्वारा किया जाता है।
ये पुल करीब पचास लोगों का बोझ उठा सकते हैं। इन जीवित पुलों को पूरा करने में कई दशक लग जाते हैं। निर्माण प्रक्रिया में अक्सर कई पीढ़ियां शामिल होती हैं। कुछ पुल 30 मीटर तक लंबे हैं और इन्हें पूरा आकार ग्रहण करने में 10 से 15 साल लग जाते हैं। पूरी तरह से विकसित जड़ें 500 वर्ष जिंदा रहती हैं। मेघालय के जीवित पुलों में चेरापूंजी का डबल डेकर जीवित पुल और शिलांग का सिंगल डेकर पुल सबसे अनोखे हैं और इन्हें देखने के लिए पर्यटकों का तांता लगा रहता है।
यूनेस्को ने मेघालय के जीवित पुलों को विश्व धरोहर में शुमार किया है। इन पुलों को देखने के लिए जून से अगस्त तक मॉनसून के मौसम को छोड़ कर कभी भी मेघालय भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जा सकता है। इन पुलों को देखने के अलावा आसपास के मनोहारी प्राकृतिक स्थलों और खूबसूरत जंगलों का भी आनंद लिया जा सकता है। मेघालय के अलावा नगालैंड तथा इंडोनेशिया के सुमात्रा और जावा द्वीपों में भी जीवित पुल देखे गए हैं।
जर्मनी की म्यूनिख टेक्निकल यूनिवर्सिटी (टीयूएम) के प्रो.फर्डिनांड लुडविग ने इन अनोखे पुलों का अध्ययन करने के बाद इस असाधारण निर्माण कला को आधुनिक वास्तुशिल्प में सम्मिलित करने का सुझाव दिया है। टीयूएम में लैंडस्केप आर्किटेचर के प्रोफेसर लुडविग का कहना है कि ये पुल सैंकड़ों वर्षो तक टिके रह सकते हैं। उन्होंने जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ फ्राइबर्ग में वनस्पति शास्त्र के प्रोफेसर थॉमस स्पेक के साथ मिल कर इस तरह के 74 पुलों का विश्लेषण किया है। लुडविग ने कहा कि मीडिया और ब्लॉग्स में तो इन जीवित जड़ों से बने पुलों पर काफी चर्चा हो चुकी है लेकिन इनकी वैज्ञानिक छानबीन बहुत कम हुई है।
टीयूएम में वास्तुशिल्प विभाग के प्रोफेसर विलफ्रिड मिडलटन ने कहा कि पारंपरिक खासी निर्माण तकनीकों के बारे में ज्ञान अभी तक लिखित रूप से उपलब्ध नहीं था। रिसर्चरों ने इन पुलों की निर्माण प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने के लिए पुल के निर्माताओं से विस्तृत बातचीत की। उन्होंने इन जटिल संरचनाओं के हजारों फोटो खींचे जिनके आधार पर उन्होंने पुलों के 3-डी मॉडल तैयार किए। रिसर्चरों के दल ने पहली बार इन पुलों की जगहों के नक्शे भी तैयार किए।
जीवित पुल भविष्योन्मुखी निर्माण का अनोखा उदाहरण है। आज हम पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहे हैं जो न सिर्फ हमें प्रभावित कर रही हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर भी असर डालेंगी। खासी लोगों की पारंपरिक तकनीकों के बारे में नए अध्ययन से आधुनिक वास्तुशिल्प के विकास को बढ़ावा मिल सकता है। प्रो. लुडविग स्वयं एक जानेमाने वास्तुशिल्पी हैं। वे अपने नक्शों और संरचनाओं में पेड़-पौधों को समाहित करते हैं। उन्होंने अपनी इस एप्रोच को लेकर 2007 में रिसर्च के एक नए क्षेत्र की स्थापना की जिसे ‘बौबोटेनिक’ कहा जाता है। उनका कहना है कि निर्माण प्रक्रिया में पौधों को सम्मिलित करके लोग जलवायु परिवर्तनों के प्रभावों को ज्यादा बेहतर ढंग से झेल सकते हैं। शहरों की इमारतों में प्रयुक्त होने वाले पत्थर और कंक्रीट उच्च तापमान पर बहुत जल्द गर्म हो जाते हैं। पौधों से शहरों में कूलिंग होती है और जलवायु में सुधार होता है। बौबोटेनिक एप्रोच अपनाने का मतलब यह है कि पौधों के लिए अतिरिक्त जगह उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि पौधे पहले से ही भवनों के अभिन्न अंग बन जाएंगे।
सभी फोटोः सुप्रिया रॉय
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