Sunday, November 24
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चलें पूर्वोत्तर की फूलों की घाटी को

कोविड-19 के दौर में घूमना कितना कठिन हो गया है। लेकिन हमारी कोशिश है कि हम आपको देश-दुनिया की झलक दिखलाते रहें, ताकि आपको घूमने की कमी महसूस न हो। इसी कड़ी में इस बार पूर्वोत्तर की एक अनूठी जगह

हम अपने ही देश के बारे में कितना कम जानते हैं। हमारा देश इतनी विविधताओं और प्रकृति की इतनी खूबसूरती को समेटे हुए है कि उनका विवरण करने लगें तो सिलसिला अंतहीन होगा। ऐसी ही एक अनूठी जगह है पूर्वोत्तर की डिजुको घाटी। इसे पूर्वोत्तर की फूलों की घाटी भी कहा जाता है। यहां पाए जाने वाला डिजुको लिली फूल बेहद दुर्लभ माना जाता है। यह घाटी नगालैंड व मणिपुर की सीमा पर स्थित है। और कितनी विडंबना की बात है कि इतनी खूबसूरत, पुरसुकून देने वाली घाटी के लिए भी अक्सर इन दोनों राज्यों के बीच तनाव हो जाता है। खैर, लेकिन निर्विवाद रूप से इसे भारत के छुपे कुदरती खजानों में से एक माना जा सकता है।

डिजुको को अर्थ होता है ठंडे पानी की जगह। इसे पूर्वोत्तर की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक माना जाता है और बड़ी आसानी से इसे देश की सबसे खूबसूरत घाटियों में भी शुमार किया जा सकता है। माओ भाषा में डिजिकू का अर्थ सपनीला भी होता है, और वाकई यहां की खूबसूरती किसी सपने जैसी है। यहां आने वाले कई लोग कहते हैं कि हमने स्वर्ग तो नहीं देखा लेकिन अगर कोई स्वर्ग जैसी जगह होगी तो वह भी डिजुको घाटी से सुंदर नहीं हो सकती। पन्ने के रंग की हरी-भरी घाटी, घने जंगल, उनके बीच से गुजरती पानी की सर्पाकार धाराएं जो अक्सर सर्दियों में जम जाती हैं और इस नजारे में रंग भरने वाले ढेरों फूल जो  घाटी के मैदानों को पाट देते हैं। यह घाटी समुद्र तल से 2438 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और जाफू चोटी (3048 मीटर) के ठीक पीछे है। यह पूर्वोत्तर के सबसे लोकप्रिय ट्रैक में से भी एक है। दरअसल डिजुको घाटी पहुंचने के लिए आपको पैदल ही सफर करना होता है। यही बेहतर भी है कि आप यहां किसी फर्राटेदार वाहन पर सवार होकर नहीं पहुंच सकते। इस खूबसूरती का नजारा लेने के लिए थोड़ा कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। लेकिन यकीन मानिए जितनी सफर में थकान होगी, वह घाटी में पहुंचते ही दूनी तेजी से काफूर हो जाएगी। दरअसल यह ट्रैक खुद भी उसी सुकून का हिस्सा ही है, जिसका आप भरपूर आनंद ले सकते हैं।

यह विशाल घाटी लोगों के जनजीवन का भी हिस्सा है। इसीलिए, इसको लेकर कई सारी दंतकथाएं भी प्रचलित रहती हैं। इन्हीं में से एक है कि इस घाटी के भीतर बहने वाली धाराओं के पानी में कई तरह के रोगों को ठीक करने की ताकत है। हालांकि इसमें कोई दोराय नहीं कि इन धाराओं का पानी इतना साफ और किसी तरह के प्रदूषण से मुक्त है कि उसको पीकर तन-मन दुरुस्त हो जाता है। यह भी मुमकिन है कि इस घाटी में कई जड़ी-बूटियों के पौधे हों और उनके बीच से बहते पानी में उनके औषिधीय गुणों के थोड़े तत्व मौजूद हों। घने जंगलों के बीच से होते हुए जब आप अचानक इस घाटी से रू-ब-रू होते हैं तो वह मानो एक अलग ही दुनिया नजर आती है, जहां आपके और कुदरत के बीच कोई नहीं होता। होती है तो बस चिड़ियों की चहचहाहट और हवा से हिलते पौधों की सरसराहट। बस आपका मन करता रहेगा कि आप यहां बैठकर ताजी हवा को जितना हो सके अपने भीतर भर लें। आप यहां के हर नजारे को अपनी आंखों में कैद करना चाहेंगे। खास तौर पर बड़े शहरों से आने के बाद तो यह जगह अजूबा सी लगती है। घाटी के ऊपर से तैरते बादलों को निहारते-निहारते आप वक्त की चाल भूल सकते हैं। इस घाटी से दो नदियां गुजरती हैं- डिजुको और जाफू। इन नदियों ने घाटी की सूरत ही कुछ अलग कर दी है। आप चोटी से देखें तो ऐसा लगता है मानो आप करीने से तराशे गए किसी घास के मैदान को देख रहे हैं।

ट्रैकिंग के अभ्यस्त लोगों के लिए तो यह ट्रैक सामान्य ही होगा लेकिन जिन्हें चलने की आदत न हो, उनके लिए कष्टप्रद हो सकता है। फिर, नीचे पार्किंग की जगह से ऊपर चोटी तक चढ़ाई तो है ही, और यह चढ़ाई भी खड़ी है। धीमे चलने वालों को ऊपर तक पहुंचने में चार-पांच घंटे तक का वक्त लग सकता है। कुल ट्रैक लगभग 18 किलोमीटर का है। आप चाहें तो गांव से कोई गाइड भी कर सकते हैं लेकिन न करना चाहें तो कोई डर नहीं क्योंकि रास्ता सीधा है और उसमें भटकने की गुंजाइश कम ही है। हां, अगर कोई गाइड इतना अनुभवी हो कि उस इलाके की भौगोलिक संरचना, इतिहास व संस्कृति के बारे में थोड़ी जानकारी दे सके तो जरूर ले लेना चाहिए। चोटी पर पहुंचने के बाद घाटी के लिए नीचे उतरना होता है। सैलानियों की आवक बढ़ने से अब चोटी पर एक चाय की दुकान भी लग गई है। यहां चाय के साथ थोड़ा खाना भी मिल जाता है। वहीं कुछ कर्मचारी आने-जाने वालों की कागजी औपचारिकताओं पर भी निगरानी रखते हैं। वहां पंजीकरण के लिए प्रति व्यक्ति सौ रुपये का शुल्क भी देना होता है। कई लोग यह भी कोशिश करते हैं कि जखामा की तरफ से चढ़ाई चढ़ते हैं और विश्वेमा की तरफ से उतरते हैं ताकि वे दोनों रास्तों का आनंद ले सकें। अक्सर लोग पहले दिन चढ़ाई करके रात रुक वहीं अपने टैंट में या रेस्टहाउस में आराम करते हैं और अगले दिन सवेरे जल्दी नीचे घाटी में उतर जाते हैं। चोटी से घाटी तक नीचे उतरने में भी आधा घंटा लग जाता है। नीचे आधा दिन आसानी से गुजारा जा सकता है। फिर ऊपर आकर, वापसी का ट्रैक शुरू करके शाम तक कोहिमा, दीमापुर या इंफाल पहुंचा जा सकता है।

परमिट

डिजुको घाटी जाने के लिए भारतीयों को इनर लाइन परमिट लेना होता है जो कोलकाता, गुवाहाटी, कोहिमा या दीमापुर- कहीं से भी लिया जा सकता है। विदेशी सैलानियों को दीमापुर या कोहिमा में राज्य सरकार के स्थानीय अधिकारियों के पास खुद को पंजीकृत कराना होता है।

कैसे पहुंचे

डिजूको घाटी पहुंचने के लिए आपको पहले दीमापुर पहुंचना होगा जो नगालैंड का अकेला हवाईअड्डा है। दीमापुर के लिए कोलकाता व दिल्ली से उड़ानें हैं, जिनमें से कुछ बारास्ता गुवाहाटी यहां पहुंचती हैं। दीमापुर रेलवे स्टेशन भी है और गुवाहाटी से डिब्रूगढ़ के रास्ते पर है। दिल्ली से डिब्रूगढ़ या तिनसुकिया जाने वाली गाड़ियां दीमापुर होते हुए जाती हैं। दीमापुर से फिर आपको नगालैंड की राजधानी कोहिमा पहुंचना होगा जो हवाईअड्डे से 74 किलोमीटर की दूरी पर है। (दीमापुर से कोहिमा तक शेयर टैक्सी में लगभग सवा दो सौ रुपये खर्च करके पहुंचा जा सकता है।) कोहिमा से आपको या तो 25 किलोमीटर दूर विश्वेमा गांव या फिर 20 किलोमीटर दूर जखामा गांव तक किसी प्राइवेट टैक्सी या बस से पहुंचना होगा। इस सफर में 45 मिनट लग जाते हैं। दो तरफ स्थित ये दोनों ही गांव डिजुको घाटी में जाने के लिए सबसे आदर्श स्थान हैं। इन गांवों से थोड़ा आगे (लगभग दस किलोमीटर दूर) पार्किंग की जगह है, जहां अपने वाहन पार्क किए जा सकते हैं औऱ ट्रैक की शुरुआत की जा सकती है। अगर आप मणिपुर से आ रहे हैं तो इंफाल पहुंचकर वहां से नगालैंड-मणिपुर सीमा पर माओ-गेट तक पहुंच सकते हैं। यह दूरी लगभग 105 किलोमीटर की है। माओ-गेट से आगे के लिए शेयर टैक्सी मिल जाती है। चूंकि घाटी का कुछ हिस्सा मणिपुर में भी है, इसलिए मणिपुर की तरफ से भी घाटी तक ट्रैक करके पहुंचने का रास्ता है लेकिन आम तौर सैलानी कोहिमा के ही रास्ते यहां पहुंचते हैं। यह रास्ता ज्यादा लोकप्रिय है और यहां के लिए साधन भी बेहतर हैं। पिछले ही साल मणिपुर के सेनापति जिले में हिबुर रेंज की तरफ से एक रास्ते का उद्घाटन किया गया था। इस रास्ते से घाटी तक ट्रैक करने में भी लगभग पांच घंटे का वक्त लगता है।

कब जाएं

डिजुको घाटी जाने का सबसे बेहतरीन समय जून से सितंबर के बीच है। उस समय फूल पूरी शान से खिले होते हैं, खास तौर पर लिली व रोडोडेंड्रोन (बुरांश)। खास तौर पर मानसून के बाद पूरी घाटी फूलों से लद जाती है। लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि विश्वेमा या जखामा गांव से डिजुको घाटी पहुंचने में ही तापमान में खासा बदलाव आ जाता है। घाटी में पहुंचते ही हवा ठंडी हो जाती है और शाम होते-होते आप ठिठुरने लग सकते हैं। इसलिए बेहतर होगा कि आप गरम कपड़े साथ में जरूर रखें। बारिश के दिनों में जाने से बचें तो बेहतर है ताकि इस जगह का खुलकर आनंद ले सकें।

डिजूको लिली

वैसे तो इस घाटी में कई तरह के फूल खिलते हैं लेकिन उनमें लिली और रोडोडेंड्रोन प्रमुख हैं। कहा जाता है कि जाफू चोटी के पास रोडोडेंड्रोन का एक पेड़ सौ फुट से भी ज्यादा ऊंचा है। लेकिन यहां खिलने वाला डिजूको लिली बेहद दुर्लभ बताया जाता है। इसे 1991 में डा. हिजम बिक्रमजीत ने खोजा था और इसे नाम दिया गया उनकी मां के नाम पर लिलियम चित्रांगंदे।

कहां रुकें

वैसे तो विश्वेमा और जखामा गांवों में रुकने के थोड़े ठिकाने हैं, लेकिन यदि आप डिजूका घाटी में ही कहीं रुकना चाहें तो आपको कैंपिंग के लिए अपना सामान ले जाना होगा। स्थानीय पोर्टर सामान ले जाने के लिए मिल जाएंगे। लेकिन उसके लिए आपको वहां कैंपिंग के नियमों का थोड़ा ख्याल रखना होगा और वहां की आबोहवा की हिफाजत करनी होगी। कोशिश करें की वापसी में अपना सारा कचरा इकट्ठा करके साथ ले जाएं। घाटी के लिए ट्रैक के रास्ते में कुछ कंक्रीट के बने रेस्टहाउस भी हैं। लेकिन ये उनके लिए बेहतर है जिनके पास घाटी में रुकने के लिए टैंट वगैरह नहीं हैं। इन रेस्टहाउस के केयरटेकर नजर आ जाएं तो वे आपके अनुरोध पर कुछ खाना पकाने का भी इंतजाम कर सकते हैं। वहां जरूरत का बाकी सामान भी मिल जाता है। यहां एक कमरे का शुल्क 300 रुपय प्रति रात्रि, डोरमेटरी का 50 रुपये और 50 रुपये का ही शुल्क परिसर में टैंट लगाने का भी है। जिनके पास टेंट होते हैं वे अक्सर घाटी में ही रुकते हैं क्योंकि उसका आनंद अलग है। घाटी में कुछ गुफाएं भी हैं और इनसे डरे नहीं। बारिश हो रही है तो ये गुफाएं भी शरण लेने या ठंड से बचने के काम आ सकती हैं। चोटी पर बने रेस्टहाउस व कैंटीन से खाना पकाने के लिए बर्तन भी किराये पर मिल जाते हैं। वैसे नगा लोग काफी मेहमानवाज होते हैं। 

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