Thursday, December 26
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जहां पठार में खिलते हैं फूल

कास के पठार में फूल खिलने लगे हैं। लेकिन अभी हम उन्हें देखने नहीं जा सकते क्योंकि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लगाए जाने के बाद से यह जगह अभी सैलानियों के लिए फिर से खुली नहीं है। वैसे भी महाराष्ट्र दश में कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला राज्य है। लेकिन अभी वक्त है। फूल अक्टूबर तक खिले रहेंगे। हो सकता है आपको जाने का मौका मिल जाए। तब तक जानिए इस अनूठी जगह के बारे में…

कास हमारे मध्य भारत की फूलों की घाटी है। जब भी हम फूलों की घाटी की बात करते हैं तो उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित हिमालयी फूलों की घाटी नेशनल पार्क की याद आती है या फिर हम हर की दून में स्थित फूलों की भी बात कर लेगे हैं, औऱ हो सकता है कि सिक्किम में युमथांग को भी याद कर लें। लेकिन कास हमारे जेहन में नहीं आता। अब कहने वाले कह सकते हैं कि बात घाटियों की हो तो कास तो पठार है। लेकिन कास के पठार होने की वजह से ही यहां इस तरह फूल खिलना हैरतअंगेज सा लगता है। हालांकि यह पठार भी आसपास के बाकी इलाकों से थोड़ा ऊंचा है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 1200 मीटर है। इसीलिए कास के पठार के फूल कुदरत का एक करिश्मा ही लगते हैं। इसीलिए इसकी गिनती यूनेस्को की विश्व धरोहर में भी होती है। कास के पठार को दुनिया में जैव-विविधता के शीर्ष आठ हॉटस्पॉट में से भी एक माना जाता है।

कास के पठार में फूलों का गलीचा

कास के फूलों का करिश्मा कुछ ऐसा है कि जून से लेकर अक्टूबर तक मानसून के बढ़ने के साथ-साथ यहां फूल खिलते हैं। और अलग-अलग तरह के फूलों के खिलने का जो क्रम होता है उसमें हर 15 से 20 दिन के भीतर यह पठार अपना रंग बदल लेता है। हालांकि मुख्य रूप से जिनके लिए कास के पठार विख्यात हैं, वे फूल अगस्त-सितंबर के महीने में खिलते हैं। मानसून की तेजी और बारिश की मात्रा के अनुरूप इनका समय थोड़ा आगे-पीछे होता रहता है। बारिश बहुत तेज पड़ रही हो तो फूल देर से उगते हैं। इसीलिए जिन सालों में बारिश ज्यादा होती है, जैसी कि इस साल हो रही है, तो फूलों का मौसम आगे खिसक जाता है। इस साल आप अक्टूबर के पहले-दूसरे हफ्ते तक फूलों को देखने का लुत्फ उठा सकेंगे, ऐसी उम्मीद है। वैसे आधिकारिक रूप से 10 अगस्त से लोगों का पठार में फूल देखने के लिए जाना शुरू हो गया है।

पश्चिमी घाट के सह्याद्रि उपक्षेत्र के तहत आने वाला कास का पठार जैव-विविधता का खजाना है। इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकत है कि कास के पठार में 850 अलग-अलग तरह के फूल वाले पौधे हैं और इनमें से 624 पौधे आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कनजर्वेशन ऑफ नेचर) की लाल किताब (रेड डाटा लिस्ट) में शामिल हैं। इस लाल किताब में उनको शामिल किया जाता है जो लुप्त होने के खतरे में हैं। इनमें कई तरह के ऑर्किड व कुछ कीटभक्षी पौधे भी शामिल हैं। ऑर्किड यहां हर सीजन में तीन-चार हफ्ते के लिए खिलते हैं।

मानसून के बाद हर 15-20 दिन में यह पठार अपना रंग बदल लेता है

कास की खासियत यह है कि यहां के ज्यादातर पौधे व वनस्पति खालिस यहां की पैदावार हैं। यानि इनमें से कई ऐसे हैं जो और कहीं देखने को नहीं मिलते। रेड लिस्ट में शामिल 624 किस्मों में से 39 सिर्फ कास इलाके में ही उगती हैं, यानि इन्हें दुनिया में किसी को भी देखना है तो कास के पठार तक आना होगा। इसीलिए कास को लेकर दोहरी चुनौती है- उसे दुनिया के सामने लाने की और उसे दुनिया के प्रहार से बचाने की। इसी वजह से यह पठार सालों से वनस्पतिशास्त्रियों के लिए भी खासी रुचि का इलाका रहा है। अब भी गाहे-बेगाहे कई ऐसी किस्में पौधों की नजर आ जाती हैं, जिनसे वनस्पति विज्ञान अभी तक अनजान था। इसलिए यहां लगातार खोज व अनुसंधान का भी काम चलता रहता है।

कास का पठार बसॉल्ट चट्टान से बना है और ये चट्टानें सीधे हवा-पानी के संपर्क में हैं। इस पठार में इन चट्टानों के ऊपर आसपास के इलाकों से क्षरण की वजह से जमा हुई मिट्टी की एक परत सी बन गई है। ये परत बहुत मोटी भी नहीं है, बमुश्किल एक-डेढ़ इंच मोटी और समान रूप से पठार में फैली हुई है। यहां सतह असमान है, वहां पानी जमा हो जाता है। इस तरह की मिट्टी की परत घास सरीखे छोटे पौधों के लिए जल्द पनपने, उगने के लिए अनुकूल है। इसीलिेए मानसून में पानी पड़ने के बाद इस मिट्टी में पौधे अंकुरित हो जाते हैं और पानी कम होते ही बाहर निकल आते हैं और उनमें फूल खिलने लगते हैं। जाहिर है, घास की ही तरह इनकी उम्र भी ज्यादा नहीं होती। जहां पानी जमा हो जाता है, वहां दलदली जमीन में पैदा होने वाले पौधे निकल आते हैं। यह प्रक्रिया हर मानसून के बाद दोहराई जाती रहती है। आपको बड़े पौधे, झाड़ियां व पेड़ पठार के किनारे की तरफ ही मिलेंगे, बीच में कहीं नहीं। बीच में पठार का समूचा इलाका एक-समान दिखाई देता है। इसलिए जब किसी एक रंग का फूल खिला होता है तो सारे पठार का रंग उस फूल के रंग जैसा हो जाता है। मानो कोई फूलों का कालीन बिछा दिया गया हो। यह भी कितनी हैरत की बात है कि यह सारी प्रक्रिया नितांत रूप से प्राकृतिक है और इसमें किसी तरह का कोई इंसानी दखल नहीं। इंसान तो बस अब उसकी पहरेदारी कर रहा है और उसको पहचानकर उसके संरक्षण की चिंता कर रहा है।

यहां के ज्यादातर पौधे व वनस्पति खालिस यहां की पैदावार हैं जो कहीं और देखने को नहीं मिलते

एहतियात, प्रवेश व शुल्क

कास के पठार में फूलों का लुत्फ लेने के लिए शुल्क देना पड़ता है। यहां प्रवेश की इजाजत वन विभाग के हाथों में है। प्रवेश द्वार पर पार्किंग इत्यादि का शुल्क अलग देना होता है। शनिवार, रविवार और सरकारी छुट्टी के दिनों में कास के पठार के लिए प्रवेश शुल्क सौ रुपये प्रति व्यक्ति होता है और बाकी दिनों में प्रवेश का शुल्क पचास रुपये प्रति व्यक्ति होता है। यह प्रवेश केवल तीन घंटे के लिए मान्य होता है। पठार में सवेरे सात बजे से शाम सात बजे तक ही जाने की इजाजत होती है। प्रतिदिन अधिकतम केवल तीन हजार लोगों को भीतर जाने की इजाजत होती है ताकि यहां की पारिस्थितिकी पर ज्यादा दबाव न पड़े। यह संख्या भी अभी बढ़ाई गई है। पहले केवल दो हजार लोगों को ही जाने की इजाजत होती थी। लेकिन इसमें भी तीन हजार लोग एक साथ भीतर नहीं जा सकते हैं। हर तीन घंटे की अवधि के लिए 750 लोगों को भीतर जाने की इजाजत होती है। प्रवेश केवल निर्धारित दिनों में ही होता है और प्रवेश के टिकट ऑनलाइन भी लिए जा सकते हैं। एसएलआर कैमरा व गाइड के लिए अलग से शुल्क देना होता है। वरिष्ठ नागरिकों (65 साल से ज्यादा) और 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए प्रवेश निशुल्क है।

मानसून के दिनों में यहां जाने पर बारिश से बचने के लिए छतरी या बरसाती की जरूरत पड़ सकती है। कास के पठार के प्रवेश द्वार के निकट और आसपास कुछ दुकानें व छोटे रेस्तरां भी हैं, जहां पर ठीक-ठाक खाना-पीना किया जा सकता है। सितंबर के आखिरी दो हफ्ते और अक्टूबर का पहला हफ्ता यहां जाने के लिए सबसे उपयुक्त है- मौसम के लिहाज से भी और फूलों के लिहाज से भी। कास पठार के लिए सतारा के वन विभाग की आधिकारिक वेबसाइट फूलों के खिलने की स्थिति की भी जानकारी देती रहती है, जिससे वहां जाने वालों के लिए कार्यक्रम बनाने में सुहूलियत रहती है। पठार के भीतर खाने-पीने की इजाजत नहीं है। यही सही भी है ताकि भीतर गंदगी न फैले और उन फूलों-पौधों की जिंदगी पर असर न पड़े। पठार और आसपास का इलाका चूंकि आरक्षित वनक्षेत्र है, इसलिए यहां कई जरह के जानवरों के दिखने की भी गुंजाइश रहती है। वैसे कोई अनधिकृत प्रवेश न हो सके इसलिए वन विभाग ने पठार को बाड़ से घेर रखा है। पठार के भीतर भी निगरानी के लिए कर्मचारी मौजूद रहते हैं।

आसपास

कास झील कास के पठार के दक्षिण की तरफ है औऱ वह घने जंगलों से घिरी है। यह झील सज्जनगढ़ किले और कन्हेर बांध के बीच में है। यह झील सौ साल पहले बनाई गई थी और इसका मकसद सतारा शहर को पानी की आपूर्ति करना था। झील इस तरह से बनाई गई थी कि प्राकृतिक रूप से गुरुत्वाकर्षण ऊर्जा के बल पर पानी झील से सतारा तक पहुंच जाए। राजमार्ग के निकट दो हेक्टेयर इलाके में कुमुदिनी झील है। कई दुर्लभ फूल इस झील के किनारे भी मिलते हैं। भारत के सबसे ऊंचे वाटरफॉल्स में गिना जाने वाला वजरई वाटरफॉल्स भी कास से नजदीक ही भंबावली गांव के पास है।

कोयाना परियोजना भी कास झील के लगभग 30 किलोमीटर दक्षिण में है। कोयाना की तलहटी में वासोटा फोर्ट है। इस किले को व्याघ्रगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। इस किले को देखने के लिए वन विभाग की इजाजत चाहिए होती है। शिवसागर को कोयाना बांध के बैकवाटर्स के तौर पर जाना जाता है। इसी के पूर्वी छोर पर कास पठार से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर बामनोली बोट क्लब है जिसमें सैलानियों के लिए बोटिंग व वाटर स्पोर्ट्स की सुविधाएं हैं। दरअसल यही वासोटा किले का प्रवेश बिंदु है। 

कास पठार से तीन किलोमीटर दूर देवराई वन में घटई मंदिर है औऱ सतारा से 4-5 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 2000 फुट की ऊंचाई पर श्रीक्षेत्र येवटेश्वर में सैकड़ों साल पुराना शिव मंदिर है।

कास में पार्किंग स्थल के आसपास सैलानी

कैसे पहुंचें

कास के पठार महाराष्ट्र में सतारा जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर हैं। कास के पठार का ज्यादातर हिस्सा आरक्षित वन के तहत आता है। कोयना अभयारण्य के उत्तरी हिस्से से भी यह पठार लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। आम तौर पर लोग सतारा होते हुए ही कास जाते हैं। सतारा मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है और दिल्ली व मुंबई से यहां के लिए सीधी रेलगाड़ियां हैं। मुंबई यहां से 280 किलोमीटर दूर है औऱ पुणे 125 किलोमीटर। पुणे ही निकट का प्रमुख हवाईअड्डा है। ट्रेन से आएं तो मुंबई से 6-7 घंटे और पुणे से लगभग तीन घंटे लग जाते हैं। दिल्ली से ट्रेन से 12-13 घंटे के सफर में सतारा पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा महाबलेश्वर व पंचगनी को कास से जोड़ने वाली लिंक रोड से भी टपोला होते हुए यहां आया जा सकता है। उसका फायदा यह है कि कास पठार देखने से पहले या बाद में सैलानी टपोला या फिर महाबलेश्वर में भी रुकने का लाभ ले सकते हैं। वैसे कास पठार के पास भी रुकने के लिए रेस्टहाउस व होमस्टे के विकल्प मौजूद हैं। यह उनके लिए बेहतर है जो सवेरे जल्दी पठार देखने जाना चाहते हैं या एक से ज्यादा बार जाना चाहते हैं। इसके अलावा सतारा शहर में रुकने के तमाम विकल्प मौजूद हैं।

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