राजस्थान में उदयपुर के पास नाथद्वारा के ऐतिहासिक मंदिर के साथ ही जुड़ी है पिछवई कला। यह कहा जा सकता है कि इस कला की उम्र भी इस मंदिर जितनी ही है, यानी करीब चार सौ साल। यह कला न केवल भारतीय कला परंपरा का एक नायाब नमूना है, बल्कि इस बात का भी एक उदाहरण हैं कि कैसे संरक्षण के अभाव और आने वाली पीढ़ियों द्वारा न अपनाए जाने के कारण कुछ बिरली कलाएं अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी इन कलाओं को अप्रत्याशित रास्तों से थोड़ा सहारा मिल रहा है। प्रोजेक्ट विरासत आज इसी का जरिया बना हुआ है।
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प्रोजेक्ट विरासत दरअसल दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (एसआरसीसी) के एक छात्र संगठन इनेक्ट्स एसआरसीसी की अनूठी पहल है। इस प्रोजेक्ट का मकसद था भारत की उन कलाओं को नया जीवन देना जो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। पिछवई कला को इसी के तहत इस प्रोजेक्ट ने एक तरह से गोद लिया।
आइए, थोड़ा जानते हैं कि पिछवई कला है क्या!
जैसा कि नाम से थोड़ा तो जाहिर हो ही जाता है, पिछवई का मतलब है पीछे वाली या पीछे की तरफ लगने वाली। नाथद्वारा में श्रीनाथजी व अन्य मंदिरों में मुख्य मूर्ति के पीछे (पृष्ठभूमि के तौर पर) दीवार पर एक बड़ा सा कपड़ा लगाया जाता रहा है और इस कपड़े पर कलाकार बेहद बारीक कारीगरी के साथ श्रीकृष्ण के जीवन की विभिन्न घटनाओं को चित्रित करते रहे हैं। इससे मंदिर की भव्यता भी बढ़ती रही और कृष्ण के चरित्र के विभिन्न पहलू भी उजागर किए जाते रहे। खास तौर पर पुष्टिमार्गियों में इस तरह की परंपरा रही है। वे अपने घरों व हवेलियों में भी देवमूर्तियों के पीछे इस तरह का कपड़ा टांगते रहे हैं। दरअसल, नाथद्वारा में श्रीनाथजी के रूप में कृष्ण का बालस्वरूप ही विराजमान है। इसलिए जिस तरह से परिवार में बच्चों का लाड़-श्रृंगार किया जाता है, उसी तरह से श्रीनाथजी को भी सजाने-संवारने की परंपरा बनी। नाथद्वारा में श्रीनाथजी के दर्शन के लिए आने वाले मतावलंबी यहां से इस पिछवई पेंटिंग का नमूना अपने घरों के लिए ले जाते रहे हैं।
मंदिरों व श्रद्धालुओं के घरों में हर साल त्योहार के समय या खास मौकों पर नई पिछवई लगाई जाती। कपड़े व उस पर होने वाले काम की बारीकी के अनुरूप ही पिछवई का मूल्य भी होता। सुनहरे व चमकीले रंगों का इस्तेमाल किया जाता। और, महंगी पिछवई में तो बाकायदा असली सोने-चांदी की परत और बेहद बारीक काम वाले गहने-जेवरात भी गढ़े जाते। पिछवई में कृष्ण की रासलीलाओं, राजाओं की सवारियों और प्राकृतिक चित्रों का भरपूर चित्रण होता रहा। कालांतर में इस कला का दायरा बढ़ा। 19वीं सदी तक तो इस कला की खास अहमियत रही। मौलिक कला के कद्रदान भी रहे और उसकी मांग भी।
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लेकिन अब इस कला के लिए अपने को बचाए रखना मुश्किल हो गया है। एक तरफ तो इसकी मांग कम हुई है, दूसरी तरफ बाजार में नकल का धंधा जोरों पर है। यह कला इतनी बारीक है कि यह समय, ऊर्जा व संसाधन- तीनों मांगती है। इन तीनों को दरकिनार करके बन रही पिछवई के नाम पर फर्जी नकल ने मूल कलाकारों को दयनीय स्थिति में ला खड़ा किया है। ऐसा तो कोई तरीका था नहीं जो किसी आम कला-प्रेमी को मूल पिछवई पेंटिंग में और किसी फर्जी पिछवई पेंटिंग में भेद करना बता देता। ऐसे में मौलिक कला को बचाए रखना और मुश्किल हो गया।
ऐसे में नई पीढ़ी की इसमें रुचि बनाए रखना भी इन कलाकार परिवारों के लिए और जटिल काम था। आम तौर पर यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती रही है। फिर ऐसा कोई मंच भी नहीं था जहां इन कलाकारों को एक साथ लाया जा सके।
इसी स्थिति में दखल देकर इस कला व कलाकारों, दोनों को नया जीवन देने का बीड़ा प्रोजेक्ट विरासत ने उठाया। उसके लिए पहले से कला के क्षेत्र में काम कर रही विभिन्न ब्रांडों से उन्हें प्रेरणा मिली। इरादा यह था कि किस तरह से इन कलाकारों को कुद में सक्षम उद्यमियों के रूप में ढाला जा सके।
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इसी क्रम में इस प्रोजेक्ट के तहत आर्टिस्ट्स ऑफ नाथद्वारा नाम से एक वेबसाइट तैयार की गई ताकि इन कलाकारों की दुनियाभर में पहुंच बने और अपना ग्राहक आधार बढ़ाने का मौका मिले। इससे वे बीच के दलालों को हटाकर पिछवई कला के बारे में प्रमाणिक जानकारी दे सकते हैं और नकल के फर्जीवाड़े को भी खत्म कर सकते हैं। प्रोजेक्ट विरासत की कोशिश यह है कि ये कलाकार बदलते दौर में भी अपने को पूरी तरह से प्रासंगिक बनाए रख सकें। अभी तो बहुत कम ही परिवार इस कला की विरासत को संजोये हुए हैं, लेकिन सही संरक्षण मिलने पर इस कला को सहेजा व संवारा जा सकता है।
दरअसल यह कोई आर्ट-पेंटिंग की खरीद-बिक्री करने वाली आम ई-कॉमर्स साइट है भी नहीं, इसका मकसद है कलाकारों व कला-प्रेमियों के बीच एक सीधा संवाद कायम करवाना। कला-प्रेमी भी बेहतर समझ के साथ अपनी पसंद को अमल में ला सकते हैं। वे मूल पिछवई कलाकारों से सीधे संवाद कर सकेंगे और उसके काम को समझ सकेंगे और फिर उसे खरीदने के बारे में फैसला कर सकेंगे। इस तरह यह ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पूरी तरह से कलाकारों द्वारा और कलाकारों के लिए ही काम करेगा।
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यह उन कलाप्रेमियों की भी मदद करेगा जो नाथद्वारा जा नहीं सकते लेकिन पिछवई कला में रुचि रखते हैं।
प्रोजेक्ट विरासत इसके अलावा अमृतसर में जंडियाला गुरु के ठठेरों के साथ भी काम कर चुका है और उन्हें एक स्वयं सहायता समूह पी-ताल (P-TAL यानी पंजाबी ठठेरा आर्ट लेगेसी) के रूप में संगठित कर चुका है। इस समय इस प्रोजेक्ट ने उत्तर प्रदेश में महोबा के गौराहरी शिल्पकारों और राजस्थान में बीकानेर के उस्ता कारीगरों के साथ भी काम करना शुरू कर दिया है।
सामाजिक अभियानों को हाथ में लेने वाले इनेक्टस एसआरसीसी की टीम मार्च 2020 में कोविड की मार शुरू होने से ठीक पहले डॉ. मधुवंती घोस के साथ नाथद्वारा गई थी। तभी इस रचनात्मक पहल की जमीन तैयार की गई। फिर तमाम कलाकारों को जोड़कर इस साल फरवरी में विधिवत इस वेबसाइट को लांच कर दिया गया। आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो से एसोसिएट क्यूरेटर के तौर पर जुड़ी डॉ. घोस लंबे समय से इन कलाकारों के साथ मिलजुल रही हैं और इनकी दिक्कतों को दूर करने के लए काम कर रही हैं।
इरादा यह है कि इन कलाओं को फिर से खड़ा करने के लिए जमीन तैयार की जाए और उनके सामने पेश आने वाली अलग-अलग दिक्कतों के लिए खास तरह के समाधान खोजे जा सकें। वैसे भी वेबसाइट इस दिशा में एक तात्कालिक और व्यावहारिक कदम के तौर पर है ताकि पिछवई कलाकार इस कला के कद्रदानों तक पहुंच बना सकें और उनके पास उसके खरीद-बिक्री, भेजने, हिसाब रखने आदि का एक पारदर्शी मंच रहे।
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अगले कदम के तौर पर इनेक्टस की कोशिश है कि नाथद्वारा के कलाकारों के लिए एक कॉमन फैसिलिटी सेंटर और आर्ट सेंटर तैयार किया जाए ताकि कला का मूल स्वरूप कायम रखा जा सके।
नाथद्वारा पहले ही उदयपुर जाने वाले सैलानियों के साथ-साथ देशभर के कृष्णभक्तों के लिए एक बड़ा महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है। अब वहां कई नई चीजें जुड़ी हैं। शिव की सबसे बड़ी प्रतिमा यहां स्थापित की गई है। उदयपुर से होलिकॉप्टर सेवा की भी शुरुआत हो गई है। ऐसे में कोशिश यह है कि पिछवई कला को इस नई चमक में उसकी वाज़िब हिस्सेदारी और विरासत को आने वाली कई सदियों तक बनाए रखने का मौका मिल सके।
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