बनारस कहें या वाराणसी- या कहें काशी, शहर तो एक ही है। लेकिन, यह तीनों नाम एक ही शहर का परिचय अलग-अलग अंदाज़ में देते हैं। वाराणसी कहें तो मन में चित्र बन जाता है भगवान विश्वनाथ की नगरी का या दशाश्वमेध घाट की दुनिया भर में मशहूर संध्या आरती का। इस नगरी की बात ही खास है। पुरानेपन की शोभा समेटे यह आगे बढ़ने को आतुर नगरी है। काशी कहते ही लगता है हम एक बहुत पुराने स्थान की बात कर रहे हैं जिसका संबध सीधे भगवान राम के पूर्वज सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जीवन गाथा से जुड़ा है। यह नगरी सदियों से संस्कृति, शिक्षा, भारतीय वैदिक ग्रंथों के ज्ञान और इनसे जुड़े मुद्दों पर जांच-परख-रिसर्च और विकास का केंद्र रही है।
वहीं, बनारस कहते ही दिमाग में यहां के एक बीत गए युग की कहानी, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई, यहां के पान-ठंडाई-चाट-घाट और बनारसी साड़ियों की तस्वीर सामने आ जाती है। बनारस शब्द दर्शाता है इस नगर का सांस्कृतिक और सामाजिक पहलू और यहां की तहज़ीब। आज भी यहां कवि सम्मलेन, शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम, ठुमरी चैती आदि की महफिलें लगती हैं, जहां मेहमानों का स्वागत गुलाब की पंखुड़ियों और इतर से होता है।
बनारस में जो एक बार आया वह यहीं का हो गया। बनारस की मिट्टी में वह तासीर है कि जो यहां आकर बसा उस पर बनारसी रंग हावी हो गया। परम सत्य की तलाश में भटकते लोगों की भरमार है यहां, जो ताउम्र इस तलाश में मशगूल रहते हैं। यह सिफत यहां की आबोहवा में है और मस्ती भरी जिंदगी में है। शायद इसीलिए शेख अली हजीं फरमा गए हैं-
अज बनारस न रवम मअवदे आम अस्तईज।
हर बरहमन पेसरे लछमनो राम अस्तईज॥
परी रूख़ाने बनारस व सद करिश्मो रंग।
पथ परात्तिशे महादेव चूँ कुनन्द आरंग॥
व गंग गुस्ल कुनंद व बसंग या मालंद।
जहे शराफते संग व जहे लताफते गंग॥
यानी- “मैं बनारस से नहीं जाऊंगा, क्योंकि यह सबकी उपासना का स्थान है। यहां का हर ब्राह्मण राम और लक्ष्मण है। यहां परियों जैसी सुंदरियां सैकड़ों हाव-भाव के साथ महादेव की पूजा के लिए निकलती हैं। वे गंगा में स्नान करती हैं और पत्थर पर अपने पैर घिसती हैं। क्या ही उस पत्थर की सज्जनता है और क्या ही गंगाजी की पवित्रता।”
साझी संस्कृति बनारस के हर रंग में मौजूद है। बनारस का पान देश भर में धूम मचाए हुए है। और, खाने-पीने की विविधता तो मानो दिल लूटने को तैयार रहती है।
एक बार आकर तो देखिये कैसे लोग राम भंडार की कचौड़ियों का स्वाद लेने के लिए सुबह-सुबह वहां पहुंच जाते हैं। घर के लिए तो बाद में पैक कराते हैं, पहले तो आसपास की बंद दुकानों के चबूतरों पर पर बैठ कर गोल और चौड़ी कचौड़ियों और गरमा-गरम जलेबियों का भरपूर मज़ा लेते हैं। ये इत्मीनान, ये लुत्फ और ये मस्ती सिर्फ और सिर्फ बनारस की ख़ासियत है। इससे पहले कि हम यहां के अन्य कभी न समाप्त होने वाले लुभावने विवरण और खान-पान की रौनकों में खो जाएं, सीधे अस्सी घाट पर हर सुबह होने वाले कार्यक्रम सुबह-ए-बनारस पर आ जाते हैं। यदि आपने बनारस की सुबह नहीं देखी है तो कुछ नहीं देखा। बनारस का असली रूप यहां सुबह को ही देखने को मिलता है। अब सवाल यह है कि बनारस में सुबह होती कब है? इसका निर्णय करना कठिन है। लगे हाथ उसका उदाहरण भी ले लीजिए। इस शहर की पतली-पतली गलियों में धक्का-मुक्की करते घूमने का लुत्फ, सांडों और गायों के समूह के निर्द्वंद्व भाव में बैठकी जमाए दृश्य बनारसी फितरत की कहानी कहते हैं। बनारसी होने का मतलब छतों पर कनकौवे उड़ाये, पान घुलाया, भाँग छानी और गहरेबाजी भी करनी। सब कुछ करने के बाद भी सवाल यही बना रहता है कि बनारस की सुबह आखिर होती कब है?
सुबह के चार बजे से सारे शहर के मंदिरों के देवता स्नान और जलपान की तैयारी में जुट जाते हैं। मंदिरों में बजनेवाले घड़ियालों और घंटों की आवाज से सारा शहर गूँज उठता है। सड़क के फुटपाथों पर, दुकान की पटरियों पर सोयी हुई जिंदगी में हलचल हो जाती है।
मैं अपना ही अनुभव साझा कर रहा हूं। गोदौलिया स्थित अपने होटल से हम सुबह 4.45 बजे जल्दी-जल्दी तैयार हो कर बाहर निकले तो देखा कि बाजार में खूब चहल-पहल है। बसें निकल रही हैं और आने वाले यात्रियों की बसें पार्क हो रही हैं। हर चाय स्टाल पर लोग गरमा-गरम चाय की चुस्कियों का मज़ा ले रहे थे। और, इसी में बीच-बीच आसपास के मंदिरों की घंटियां बज उठती थीं। लगता था जैसे यह शहर सोया ही नहीं। हमने ऑटो रिक्शा लिया और निकल पड़े अस्सी घाट की ओर। करीब 10-15 मिनट में ऑटो ने हमें वहां पहुंचा दिया और जैसे ही हम कुछ कदम चल कर अस्सी घाट पर पहुंचे तो वहां के जादुई वातावरण में मानो खो गए।
घाट पर एक ओर स्टेज था। मध्य में खुले स्थान पर तरतीब से कुर्सियां लगी थीं और सुबह-ए-बनारस के आयोजक प्रोग्राम की तैयारी में लगे हुए थे। कुछ लोग कुर्सियों पर आसन जमा चुके थे और अन्य लगातार पहुंच रहे थे। दायीं ओर एकदम सामने आरती के लिए सात मंच पूरी साज सज्जा और सामग्री से शोभित थे। यह सारा स्थान बिजली के हल्क़े प्रकाश में नहाया हुआ बहुत ही आभामय लग रहा था। घाट से कुछ सीढ़ियां उतर कर गंगा तक लगभग पचास-साठ कदम का फासला और यहाँ दूर तक केवल सूर्योदय पूर्व का हल्क़ा धुंधलका छाया हुआ था। गंगा शांत भाव से बह रही थी और साथ में थी ठंडी-ठंडी बयार।
शुरुआत छात्राओं द्वारा लयबद्ध स्वर में संस्कृत श्लोकों से और इसके बाद रेशमी धोती, कुरता और कमरपट से सजे सात युवा पंडित अपने-अपने आरती प्लेटफार्म पर वंदन करते हुए चढ़े और पहले धूप और फिर दीपों द्वारा गंगा आरती शुरू की। आरती के समाप्त होने के बाद मैं सीढ़ियों से घाट के नीचे की ओर गया और बायीं ओर एकदम सटे घाट की तरफ रुख किया। कुछ दूरी पर एक भक्त अकेला ही सुंदर परिधान में माँ गंगा की आरती में मगन था। उसके कुछ दूरी पर एक महिला आंखें बंद किए एक मूर्ति की तरह ध्यान में खोई हुई थी। दाईं और गंगा की ओर एक जगह पंद्रह-बीस आदमी, औरतें और बच्चे गंगा स्नान का आनंद उठा रहे थे। इस सबके साथ धीरे-धीरे सूर्योदय हो रहा था और सुनहला प्रकाश चारों ओर फैल रहा था।
स्टेज पर अब एक जाने माने संगीतकार आज के संगीत की प्रस्तुति राग भटियार में पेश कर रहे थे। सुबह-सुबह का समय, साफ सुथरा अस्सी घाट, सामने शांत बह रही गंगा, शीतल हवा, आसमान के हर पल बदलते रंग और हवा में थिरक रही मधुर संगीत की स्वर लहरी। इस सब का शब्दों में बयान करना आसान नहीं। लगता था ये पल कभी समाप्त न होंगे। लेकिन प्रोग्राम के मुताबिक अब योग के कार्यक्रम का समय नज़दीक आ गया था जो इस दैनिक आयोजन का अंतिम और रोज आने वालों में बहुत लोकप्रिय होता है। सुबह-ए-बनारस एक तरह से दिल-दिमाग और रूह को एक नयी ऊर्जा और आनंद से भर देने का संपूर्ण अनुभव है।
वाराणसी शहर की अपनी एक बहुरंगी शख्सियत है और यहां आने वालों को सब रंगों का लुत्फ लेना चाहिए। यहां के लोगों से घुलना-मिलना, बनारसी अंदाज में मस्ती में की गई उनकी बातों को सुनना, रिक्शे की सवारी से लेकर मंदिरों के दर्शन, बनारसी सिल्क की खरीदारी, जाने क्या-क्या समेटे हुए है यह शहर अपने भीतर।
इनके बिना बनारस यात्रा है अधूरी
बनारस की चाट और मिठाइयां: बनारस की चाट और मिठाइयों का लुत्फ जरूर उठाएं। चटपटी चाट के लिए जहां काशी चाट भंडार, अस्सी के भौकाल चाट, दीना चाट भंडार और मोंगा आदि काफी लोकप्रिय है। वहीं, ठठेरी बाजार की ताजी और रसभरी मिठाइयों को दुनियाभर में पसंद किया जाता है। अगर आप दूध, दही और मलाई के शौकीन हैं तो बनारस जाकर ‘पहलवान की लस्सी’ जरूर पिएं क्योंकि ऐसी लस्सी कहीं नहीं मिलती। बनारस के पान पूरी दुनिया में मशहूर है।
घाट पर घूमना: बनारस के घाट तो बनारस की शान हैं। घाट की सीढिय़ों पर बैठ कर गंगा को खूबसूरती को निहारना सुकून देता है। इसके बिना बनारस की हवा को महसूस नहीं कर सकते।
गंगा आरती: बनारस के घाट पर शाम को होने वाली गंगा आरती का नजारा अद्भुत होता है। शाम को बड़ी संख्या में लोग इस आरती को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं। हर रोज करीब 45 मिनट की आरती का ये नजारा एक बार तो आपको जरूर देखने जाना चाहिए।
लोकल मार्केट में शॉपिंग:अगर आप बनारस जा रहे हैं और वहां जाकर विश्वनाथ गली, गौदोलिया और ठठेरी बाजार से सामान की खरीदारी नहीं की तो आप ने बहुत कुछ मिस किया। यहां की सिल्क साडिय़ां जिंदगी भर साथ रहती है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय: इस विश्वविद्यालय का भवन और कलात्मकता देखकर यहां बरबस ही पढ़ने का मन होता है। पेड़ों की छांव में टहलते बच्चे उच्च शिक्षा को सांस्कृतिक धरोहर के जोड़ने की कड़ी देते हैं।
मंदिर के दर्शन: बाबा भोलेनाथ की नगरी बनारस, घाट और मंदिरों के लिए जाना जाता है इसलिए अगर आप बनारस गए और वहां के प्रमुख मंदिरों में दर्शन करने नहीं गए तो आप की यात्रा अधूरी रह ही जाएगी। बनारस का सबसे प्रमुख मंदिर है ‘काशी विश्वनाथ मंदिर’ इसके दर्शन करने दूर दूर से लोग आते हैं।
गंगा स्नान: वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी से अटूट रिश्ता है। ऐसा माना जाता है कि गंगा नदी में डुबकी लगाने का अनुभव अलग ही है।
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