म्यांमार की सीमा से लगे भारत के सुदूर पूर्वी कोने में अरुणाचल प्रदेश में है नामदाफा नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व। निहायत ही खूबसूरत और कुदरत की नियामतों का अनमोल खजाना। पहुंचना उतना सहज नहीं और शायद इसी वजह से यहां प्रकृति ने अभी अपना रंग कायम रखा है। लेकिन इसके बावजूद यहां कई ऐसे जानवर हैं जो दुर्लभ हैं।
अरुणाचल प्रदेश का चांगलांग जिले में स्थित यह नेशनल पार्क 1983 में टाइगर रिजर्व बना दिया गया। लेकिन इस पार्क की सबसे ज्यादा ख्याति इस बात में है कि यह दुनिया का अकेला पार्क है जिसमें जंगली बिल्ली की चार बड़ी प्रजातियां एक साथ मिल जाती हैं- बाघ, तेंदुआ (लेपर्ड), स्नो लेपर्ड और क्लाउडेड लेपर्ड। इसके अलावा भी कई अन्य छोटी जंगली बिल्लियां इस जंगल में हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि लगभग दो हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले इस नेशनल पार्क की समुद्र तल से ऊंचाई भी 200 मीटर से लेकर 4571 मीटर तक फैली है। इसके निचले इलाके में बाघ देखने को मिल जाते हैं जो ज्यादा ऊंचाई वाले इलाके में स्नो लेपर्ड। यानी यहां मैदानी इलाकों के जंगलों के जानवर भी देखने को मिल जाते हैं और बर्फीले इलाके के भी। यही इस पार्क की सबसे बड़ी खूबसूरती है।
जैसे-जैसे पार्क की ऊंचाई बदलती जाती है, उसी तरह से यहां की वनस्पति और जीव-जंतुओं की उपलब्धता भी बदलती जाती है। यह पार्क अपने फैलाव के मामले में हिमालयी हेमिस नेशनल पार्क और रेगिस्तानी डेजर्ट नेशनल पार्क के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा नेशनल पार्क माना जाता है। अब भी इस पार्क का खासा बड़ा हिस्सा आम लोगों की पहुंच के बाहर है। ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों तक तो साल में किसी भी समय पहुंच पाना दुष्कर होता है। मिशमी पहाड़ियों में दाफा बम की धार इस पार्क का सबसे ऊंचा इलाका (4571 मीटर) है।
लेकिन केवल बिल्लियों के मामले में ही नहीं, इस जंगल में और भी कई तरह की जैव-विविधता है। पहुंच में दिक्कत-तलब होने के कारण अभी तो यहां की जैव-विविधता पर पूरा अध्ययन भी नहीं हो पाया है और माना यह जाता है कि यहां की वनस्पतियों की पूरी जानकारी होने में ही कम से कम पचास साल का समय तो और लग जाएगा। उदाहरण के तौर पर केवल इमारती लकड़ी की ही यहां डेढ़ सौ से ज्यादा किस्में हैं जिनमें से कुछ तो पूरे भारत में और कहीं नहीं देखने को मिलतीं। एक बहुत ही दुर्लभ और लुप्तप्राय ऑर्किड ब्लू वांडा यहां मिलता है तो मिशिमी तीता नाम की एक जड़ी-बूटी भी जो यहां की स्थानीय जनजातियों द्वारा हर तरह की दवाई में इस्तेमाल की जाती है लेकिन उसे बाहर ले जाने और उसके निर्यात पर पूरी पाबंदी है।
इस जंगल में हाथी भी हैं, भालु, बाइसन, हिरणों की कई प्रजातियां और भारतीय जंगलों के बाकी तमाम जानवर भी। नामदाफा में बंदरों की भी कई प्रजातियां हैं जिनमें असमी मैकाक, पिग-टेल्ड मैकाक, स्टंप-टेल्ड मैकाक तो हैं ही, साथ ही भारत में नर-वानरों की अकेली प्रजाति हूलोक गिब्बन भी यहां देखने को मिलती है। हूलोक गिब्बन को अत्यंत दुर्लभ की श्रेणी में माना जाता है और भारत में इसे केवल असम और अरुणाचल प्रदेश के जंगलों में ही देखा जा सकता है। असम के जोरहाट में तो इनके संरक्षण के लिए एक खास तौर पर गिब्बन वन्यजीव अभयारण्य बनाया गया है। यहां एक और दुर्लभ जानवर है- नामदाफा उड़न गिलहरी। यह केवल इसी पार्क में देखने को मिलती है, इसलिए इसके नाम के साथ नामदाफा का नाम जुड़ गया है।
नदी व प्राकृतिक तालाब होने के कारण यहां पानी की प्रचुरता है और इसलिए यहां पक्षी भी खूब आते हैं। इनमें सफेद पंखों वाले वुड डक प्रमुख हैं जिनकी गिनती दुर्लभ पक्षियों में होती है। हॉर्नबिल तो यहां का खास पक्षी है ही। इनके अलावा भी कई तरह की जंगली मुर्गियां व परिंदे यहां आते हैं। इनमें कई निवासी भी हैं और कई प्रवासी पक्षी भी। जंगल के भीतर कई बस्तियां भी हैं जिनमें कई जनजातियां रहती हैं। उन्हें समझने-जानने का मौका भी इस पार्क में जाकर मिलता है।
कैसे पहुंचे
नामदाफा पहुंचने के लिए सबसे निकट का हवाई अड्डा असम में डिब्रुगढ़ है और सबसे निकट का बड़ा रेलवे स्टेशन भी असम में तिनसुकिया। डिब्रुगढ़ से तिनसुकिया, मार्गेरिटा, लेडो, जागुन व खारसांग होते हुए मियाओ के लिए असम रोडवेज और अरुणाचल रोडवेज की बसें नियमित रूप से चलती हैं। रास्ता कुल मिलाकर अच्छा बना हुआ है। मार्गेरिटा में भी सवारी गाड़ियों के लिए रेलवे स्टेशन है। डिब्रुगढ़ से मियाओ की दूरी महज 160 किलोमीटर की है और तिनसुकिया से 115 किलोमीटर। अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में देहिंग नदी के किनारे बसा छोटा सा मियाओ कस्बा ही नामदाफा नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है। चांगलांग जिला मुख्यालय यहां से 110 किलोमीटर दूर है।
मियाओ से आगे 26 किलोमीटर दूर देबन है। इस रास्ते को तय करने में लगभग एक घंटा लगता है। लेकिन यह रास्ता इतना खूबसूरत है कि एक घंटे का वक्त पंख लगाकर उड़ जाता है। मियाओ से आगे देबन तक परिवहन के साधनों की दिक्कत है। अगर आप आपने वाहन से आ रहे हों तब तो ठीक, वरना यहां टैक्सी काफी महंगी पड़ जाती हैं। डिब्रुगढ़ से मियाओ के लिए ही निजी टैक्सी चार हजार रुपये तक ले लेती है।
कब जाएं
यहां जाने का सबसे बेहतरीन समय अक्टूबर से लेकर अप्रैल तक है। इस इलाके में मानसून जल्दी पहुंचता है और बारिश का मौसम भी लंबा चलता है। नवंबर और मार्च सबसे बढ़िया महीने यहां घूमने के लिए माने जा सकते हैं। सर्दियों में यहां अच्छी ठंड हो जाती है इसलिए गरम कपड़े लेकर साथ जाएं।
कहां रुके
नामदाफा नेशनल पार्क में घूमने के लिए मियाओ और देबन, दोनों जगहों पर रुका जा सकता है। कई अन्य जगहों पर भी जंगल कैंपिंग की सुविधा है। मियाओ में वन विभाग व पीडब्लूडी के गेस्ट हाउस के अलावा कुछ अन्य लॉज व रिसॉर्ट सैलानियों के लिए हैं। नामदाफा नेशनल पार्क के भीतर देबन में वन विभाग का रेस्ट हाउस है जो रुकने की सबसे शानदार जगहों में से है। लेकिन एक बात याद रखें- यह नेशनल पार्क सुदूर पूर्व में है इसलिए यहां सैलानियों की भीड़ मध्य भारत व पश्चिमी भारत के नेशनल पार्कों जितनी तो नहीं रहती लेकिन फिर इसी अनुपात में यहां रुकने की सुविधाएं भी कम हैं। इसलिए यहां आने से पहले रुकने का इंतजाम सुनिश्चित कर लें तो बेहतर होगा। साथ ही यह उन गिने-चुने नेशनल पार्कों में से है जहां आप जंगल के भीतर कैंपिंग व ट्रैकिंग कर सकते हैं।
पार्क में प्रवेश के लिए शुल्क है। उसके अलावा वाहन व कैमरे के लिए भी अलग से शुल्क लिया जाता है। सीमावर्ती इलाका होने के कारण यहां प्रवेश करने के लिए परमिट की जरूरत होती है जो सामान्य फोटो पहचान पत्र दिखाने पर आसानी से मिल जाता है।
पार्क के भीतर और आसपास कई और सारी जगहें हैं जो सैलानियों के लिए रुचि की हो सकती हैं। इनमें से कुछ हैं-
देबन: नोआदिहिंग नदी के किनारे वृहद हिमालय की पटकई पहाड़ी श्रृंखला की गोद में यह एक खूबसूरत जंगल कैंप है। यह कैंप नामदाफा नेशनल पार्क के दायरे के भीतर ही है। यहां से कुदरत का बड़ा खूबसूरत नजारा मिलता है। देबन में ही जंगल से घिरा वन विभाग का निरीक्षण बंगला भी है। यह जगह ट्रैकिंग और नोआदिहिंग नदी में एंगलिंग (मछली पकड़ने) के लिए भी बहुत लोकप्रिय है।
फर्मबेस: देबन के फॉरेस्ट लॉज से 25 किलोमीटर की दूरी पर नोआदिहिंग नदी के किनारे-किनारे ही यह एक काफी लोकप्रिय कैंपिंग साइट है। जंगलों से होकर गुजरते यहां के रास्ते में कई पक्षी और जंगली जानवर भी अक्सर देखने को मिल जाते हैं। यहां कैंपिंग के लिए वन विभाग भी उपकरण और गाइड उपलब्ध कराता है।
हॉर्नबिल: यह जगह देबन से 9 किलोमीटर दूर है और जैसा कि नाम से ही अंदाजा लग जाता है यह दरअसल हॉर्नबिल पक्षियों का ठिकाना है। इन पक्षियों के झुंड के झुंड यहां एक जगह से दूसरी जगह उड़कर जाते देखे जा सकते हैं।
हल्दीबाड़ी: नोआदिहिंग नदी के किनारे यह खूबसूरत कैंपिंग साइट है तो देबन से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर लेकिन उस पार होने के कारण यहां नाव से ही पहुंचा जा सकता है। यहां कैंप लगाकर रात में रुकने का अनुभव ही कुछ और है।
बुलबुलिया: कई लोग इसके नाम को बुलबुल से जोड़ते हैं लेकिन हकीकत में यह बुलबुलों से जुड़ा है- पानी में उठते बुलबुले। यह जगह दरअसल कई सारे प्राकृतिक पानी के सोतों के लिए जानी जाती है। इसीलिए कैंपिंग साइट के रूप में भी बहुत लोकप्रिय है। अगर किस्मत अच्छी हो तो यहां अक्सर अंधेरा ढलने के बाद पानी पीने के लिए आते जंगली जानवरों को देखा जा सकता है।
कैमरा प्वॉइंट: जैसा कि नाम ही बताता है, यह जगह नामदाफा और उसके आसपास के हरे भरे इलाके का विहंगम नजारा लेने के लिए जानी जाती है।
मोतीझील: यहां दो तालाब हैं और यहां के हरे-भरे इलाके में कई जानवर चरने के लिए आते हैं। गिब्बन आइलैंड से यहां तक का पांच किलोमीटर का रास्ता पक्षी प्रेमियों के लिए बेहद आकर्षक है।
गांधीग्राम: देबन से लगभग 120 किलोमीटर की दूरी पर यह जगह नामदाफा के दक्षिण-पूर्वी सिरे पर स्थित है। चीन व म्यांमार की सीमा की तरफ यह भारतीय इलाके का आखिरी गांव भी है। यह लिसु (योबिन) जनजातियों का इलाका है। कई रोमांचप्रेमी यहां ट्रैक करके भी जाते हैं। जंगल के बीच से देबन से यहां तक के ट्रैक में आम तौर पर सात दिन लग जाते हैं। इन सात दिनों में यहां कुदरत का खूबसूरत नजारा लिया जा सकता है।
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