Tuesday, November 5
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रोमांच और श्रद्धा से भरी जंजैहली घाटी

कौन नहीं चाहता कि प्रकृति की हसीन वादियों में कुछ समय बिताया जाए। फिर वह जगह ऐसी हो कि जहां आध्यात्मिक शांति के साथ-साथ प्रकृति के खूबसूरत नजारे और रोमांच एक साथ हों तो सोने पे सुहागा जैसी बात होगी। कुछ ऐसे ही अनुभवों से सराबोर करती है हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की जंजैहली घाटी। जंजैहली घाटी ने देशी व विदेशी पर्यटकों के लिए एक अच्छा खासा प्लेटफार्म तैयार कर लिया है। सीजन में रोजाना सैकड़ों की तादाद में सैलानी यहां घूमते करते देखे जा सकते हैं।

मंडी से जंजैहली बस स्टैंड तक की दूरी लगभग 86 किमी है। किसी भी वाहन से यहां पहुंचा जा सकता है। जंजहैली से दो किलोमीटर पीछे पांडवशिला नामक स्थान आता है जहां आप उस भारी-भरकम चट्टान को देख सकते हैं जो मात्र आपकी हाथ की सबसे छोटी अंगुली से हिलकर आपको अचंभित कर देगी। इस चट्टान को महाभारत के भीम का चुगल (हुक्के की कटोरी में डाला जाने वाला छोटा-सा पत्थर) माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। ढलानदार खेतों में चारों ओर फैली आलु और मटर के खेतों की हरियाली मन मोह लेती है। जंजैहली सुंदर व शहर के शोर-शराबे से दूर एक शांत गांव है। यहां सेब, प्लम, नाशपाती, खुमानी आदि फलों की सीजन पर भरमार रहती है। जंजैहली बस स्टैंड के साथ ही ढीमकटारू पंचायत की सीमा शुरू हो जाती है। यदि आपके पास समय हो तो यहां के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अवश्य शामिल होइएगा। आपकी यात्रा सफल मानी जाएगी। इसी घाटी में अन्य स्थल हैं जो खूबसूरती और रोमांच से भरे पड़े हैं। इन जगहों को आप एक बार देख लेंगे तो फिर आपका यहां बार-बार आने का मन करेगा।

भुलाह

जंजैहली से 6 किमी की दूरी पर आता है रमणिक स्थल भुलाह जिसे एक बार देख लें तो भुले से भी न भूले। भुलाह तक पक्की सड़क है। कोई भी बस यहां तक ही आती है। भुलाह ट्रैकरों, पर्यटकों व श्रद्धालुओं का पहला पड़ाव स्थल भी माना जा सकता है क्योंकि इसके बाद शिकारी पर्वत की चोटी तक चढ़ाई शुरू हो जाती है। थोड़ा सा मैदानी होने और चारों ओर से देवदार, बान आदि के पेड़ों से घिरा होने के कारण इस स्थान की सुंदरता देखते ही बनती है। भुलाह काफी-कुछ चंबा जिले के खजियार जैसा है जिसे हिमाचल का मिनी स्विट्जरलैंड कहा जाता है। सभी यात्री यहां थोड़ी देर रुककर जहां इस स्थान को कैमरों में कैद करते हैं वहीं यहां बैठकर चाय-पानी भोजन का आनंद भी लेते हैं।

बूढ़ा केदार

इस स्थल के लिए पैदल ही जाना पड़ता है। जंजैहली से ही आप इस रास्ते पर हो लेते हैं। पूरा रास्ता चढ़ाई वाला है। यहां पर रहने वाले गुज्जरों के लिए यह रोज का रास्ता है। ये जंजैहली तक दूध, घी व खोया आदि पहुंचाते हैं और बदले में मिलने वाले धन से राशन व जरूरत का अन्य सामान ले जाते हैं। सर्दियों में ये लोग अपने जानवरों के साथ मैदानी इलाकों में चले जाते हैं और गर्मियों में लौट आते हैं। किवदंती है कि बूढ़ा केदार में भीम से बचने के लिए नंदी बैल एक बड़ी चट्टान पर कूदे और सीधे पशुपतिनाथ मंदिर पहुंचे थे। चट्टान में आज भी बड़ा सा सुराख है जिसके अंदर जाकर पूजा-अर्चना की जाती है। यहां स्थित छोटे से झरने के नीचे स्नान करना भी पवित्र माना जाता है।

शिकारी देवी पर्वत

जंजैहली में बड़ी संख्या में लोगों के आने का एक प्रमुख कारण शिकारी देवी के प्रति अटूट आस्था व भक्ति भी है। भुलाह से आगे शिकारी देवी मंदिर लगभग 11 किमी दूर है। मंदिर तक सड़क बनी है। किसी भी छोटी गाड़ी में आप इस दूरी को तय कर सकते हैं लेकिन पैदल चला जाए तो मजा अलग है। मंदिर के कारण इस पहाड़ी को शिकारी पर्वत के नाम से जाना जाता है। जंजैहली से मुख्यतया दो रास्ते मंदिर तक जाते हैं। एक बूढ़ा केदार से और दूसरा भुलाह से होकर। भुलाह से सड़क बनी है जबकि बूढ़ा केदार से आपको पैदल ही खड़ी चढ़ाई तय करनी पड़ती है। यह रास्ता ट्रैकरों के लिए बढिय़ा है। जंजैहली में ट्रैकिंग हॉस्टल भी है।

शिकारी देवी पर्वत के लिए आप भुलाह नाले से होते हुए जाएं तो एक अलग रोमांचकारी अनुभव से सराबोर होंगे। बड़ी-बड़ी चट्टानों से निकलते झरने, कल-कल बहते पानी का संगीत और लंबे-लंबे देवदार के पेड़ों से घिरा यह नाला हर किसी को आकर्षित करने में सक्षम है। नाले वाला रास्ता शार्टकट है। इस नाले से आप लड़वहाच होते हुए सीधे सिंगरयाला पहुंचेंगे। कल्पना लोक-सा शिकारी देवी मंदिर का यह स्थान अनोखे अहसास से सराबोर कर देता है। आस-पास की चोटियों से सबसे ऊपर होने के कारण ऐसा लगता है जैसे हम आकाश में उड़ रहे हों। समुद्रतल से इस स्थान की ऊंचाई 9000 फुट है। शिकारी देवी मंदिर हिमाचल का अकेला ऐसा मंदिर है जिसकी छत नहीं है। मान्यता है कि देवी अपने ऊपर किसी तरह की छत स्वीकार नहीं करती। माना जाता है कि यह मंदिर पांडवों का बनाया हुआ है। वनवास काल के दौरान पांडव यहां रुके थे। एक और बात गौर करने लायक यह है कि देवी की मूर्तियों के ऊपर कभी बर्फ नहीं टिकती, चाहे जितनी भी बर्फ क्यों न गिर जाए। शिकारी देवी मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में भी खासा सौंदर्य बिखरा पड़ा है।

देवीदहड़

शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जब हम उतरते हैं तो आगे का सफर हमें घने जंगल और पथरीले रास्ते से ले जाता है। इस रास्ते पर चलते हुए पश्चिम में नीचे की ओर हमें दीदार होता है एक छोटे से सुंदर इलाके देवीदहड़ का। देवीदहड़ हिमाचल के पर्यटन मानचित्र में विशेष स्थान रखता है। इस क्षेत्र का असीम सौंदर्य हमें अपने मोहपाश में बांध देता है। इस इलाके के लोगों की कठिन लेकिन शांत जीवनशैली हमें हर मुश्किलों से लड़ने की प्रेरणा देती है। यहां का पांच पेड़ों का एक पेड़ हमें हैरत में डाल देता है। यहां माता मुंडासन का मंदिर दर्शनीय है। यहां ठहरने के लिए आप वन विभाग का विश्राम गृह बुक करवा कर इस वादी को तसल्ली से निहारने का आनंद ले सकते हैं। देवीदहड़ के लिए दूसरा रास्ता वाया तुना, धंग्यारा होकर है जो चैलचौक से एक किलोमीटर आगे जंजैहली रोड से इस दिशा की ओर मुड़ जाता है। इस रास्ते से आप गाड़ी द्वारा यहां आराम से पहुंच सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहां की स्थानीय सब्जी लिंगड़ आपको यहां बहुतायत मात्रा में मिल जाती है। इसका अपना ही एक खास स्वाद होता है।

कमरुनाग

जहां से हम देवीदहड़ के लिए नीचे उतरते हैं वहीं से ही एक रास्ता हमें सीधा कमरुनाग (पांडवों के आराध्य देव) मंदिर तक ले जाता है। शिकारी मंदिर से कमरुनाग मंदिर तक का रास्ता तय करने में 7 से 8 घंटे (यदि देवीदहड़ न जाएं) का समय लग जाता है। इस रास्ते को पैदल ही तय करना पड़ता है। सीढ़ीनुमा छोटे-छोटे खेतों के टीले के बिलकुल ऊपर छोटी-सी पहाड़ी पर व्यवस्थित घर किसी चित्रकार की कल्पना से उभरी हुई नायाब तस्वीर मालूम पड़ते हैं। हम अब टाढ़ाबाई गांव के रास्ते पर चल रहे होते हैं क्योंकि यह रास्ता समतल और थोड़ा आरामदायक है। इस यात्रा के दौरान हमें रास्ते में इक्का-दुक्का घर ही मिलते हैं। बहुत-सी छोटी-बड़ी पहाड़ियों को लांघकर जब हम कमरुनाग मंदिर पहुंचते हैं तो हमारी सारी थकान जैसे छूमंतर हो जाती है। मंदिर के साथ एक झील भी है जिसे कमरु झील कहा जाता है। इस ऐतिहासिक झील की खास बात यह है कि इस झील में ढेर सारा सोना, चांदी, सिक्के, रुपये समाहित हैं जो सदियों से चली आ रही परंपरा के चलते असंख्य भक्तगणों द्वारा यहां श्रद्धानुसार व मन्नत पूरी होने पर फेंके गए हैं।

किवदंती के अनुसार कमरुनाग पांडवों के आराध्य देव हैं। आप चाहें तो यहां सरायों में ठहर भी सकते हैं। आगे 7-8 घंटे का लंबा पैदल सफर तय करने के बाद आप अब सड़क मार्ग से सिर्फ 6 किमी की दूरी पर हैं। यह जंजैहली की पश्चिम दिशा की तरफ इसके दूसरे छोर यानी सुंदरनगर की ओर है। आगे का रास्ता उतराई वाला है। उतर कर हम पहुंचते है रोहांडा जहां छोटा-सा बस स्टेशन है जो सुंदरनगर-करसोग मार्ग पर स्थित है। इस रास्ते करसोग, शिमला, काजा, किन्नौर भी जाया जा सकता है। यहां से चंडीगढ़-मनाली नेशनल हाईवे-21 मात्र 35 किमी दूर है। रोहांडा एक छोटा-सा कस्बा है। यहां से बस, जीप व अन्य वाहन द्वारा नेशनल हाईवे तक पहुंचा जा सकता है। 

कब व कैसे

वैसे गर्मी का मौसम जंजैहली घाटी को निहारने के लिए बढ़िया है। आप अप्रैल से अक्टूबर तक इस वादी में विचरण कर सकते हैं। चंडीगढ़-मनाली नेशनल हाईवे या पठानकोट-जोगिंदरनगर मार्ग द्वारा सुंदरनगर या मंडी पहुंचकर यहां से आगे जंजैहली तक 86 किमी का सफर बस या छोटी गाड़ी से किया जा सकता है। एक अन्य रास्ता मंडी से ही वाया पंडोह, बाड़ा, कांढा होकर (76 किमी) है जो पहले रास्ते से छोटा तो है लेकिन थोड़ा तंग है। इस रास्ते आप ब्यास नदी पर बने पंडोह बांध की खूबसूरती का मजा ले सकते हैं। हवाई मार्ग से इधर आने के लिए पहले भुंतर (कुल्लू) एयरपोर्ट जाना पड़ेगा फिर पीछे मंडी की ओर आना पड़ेगा। जंजैहली में लोक निर्माण विभाग, वन विभाग का रेस्ट हाउस और अन्य निजी होटल व सराय हैं जो सस्ते हैं और बुनियादी सुविधाओं से संपन्न हैं।

तो फिर देर किस बात की है। आइए चलें, दुनिया के शोर-शराबे से दूर जंजैहली घाटी की वादियों में, दो पल आस्था व सुकून के बिताने।

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