यायावर कहानियां-किस्से सुनाते हैं- देश-दुनिया के। लेकिन कुछ उनकी अपनी कहानियां भी होती हैं। यह एक ऐसी ही कहानी है वरुण सचदे की, और केवल उनकी ही नहीं बल्कि उनके घुमक्कड़ी के शौक की भी। उस शौक की जिसने उन्हें शोहरत भी दी और नया मुकाम भी।
वैसे तो घुमना-फिरना हर आदमी पसंद करता है और जिसकी जेब जितनी बड़ी होती है, वह उतनी ही महंगी जगह पर घूमने जाता है। आखिर आजकल के सोशल मीडिया के दौर में जब हर शख़्स मोबाइल फ़ोन लेकर फोटोग्राफ़र बन जाता है और फिर एक इंफ्लुएंसर बनने की हसरत पालने लगता है, तो घूमना किसी स्टेटस सिंबल से कम नहीं।
लेकिन कुछ लोग होते हैं जिन्हें घूमने की लत होती है, उनके लिए घुमक्कड़ी एक नशा होती है। वे किसी को दिखाने के लिए या, किसी के कहने पर, किसी के बुलावा देने पर या खुद को साबित करने के लिए नहीं घूमते। बल्कि बस निकल पड़ते हैं, दुनिया को देखने के लिए, लोगों को समझने के लिए।
एक सच यह भी है कि जरूरी नहीं, घुमक्कड़ी आपके लिए पैदाइशी शौक रहा हो। अक्सर कोई एक घटना, कोई एक ख्याल कई लोगों की दिशा हमेशा के लिए बदल देता है।
गुजरात में भुज के रहने वाले वरुण सचदे इन्हीं के तरह के लोगों से एक हैं। घूमने से उनका कोई बहुत पुराना वास्ता नहीं रहा है। विदेश में पढ़ाई-लिखाई और नौकरी पाने को कामयाबी मानने की भारतीय मानसिकता के दबाव चले ही वह अमेरिका गए थे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए लेकिन वहां जाकर भी वह भारतीय संस्कृति व आबो-हवा के लिए तरसते रहे। नौकरी लग गई लेकिन मन भारत लौटने को करता रहा। मन बिलकुल उचट चुका था लेकिन वीजा की दिक्कतों के चलते वह तुरंत लौट नहीं पा रहे थे। उनके पास तीन हफ्ते का समय था और वह चाह रहे थे कि अमेरिका के भीतर ही अमेरिकी संस्कृति की पहुंच से जितना दूर हो सके चले जाएं। यह बात है साल 2014 के आखिरी दिनों की।
तो इसी रौ में वरुण ने प्यूर्तो रिको का टिकट बुक करा लिया जो अमेरिका का हिस्सा होते हुए भी अमेरिकी माहौल से जुदा था। वह वरुण के लिए जिंदगी की पहली सोलो ट्रिप होनी थी। लेकिन जैसे-जैसे ट्रिप की तारीख नजदीक आने लगी तो वरुण नर्वस होने लगे। वह जाने का इरादा छोड़ना चाह रहे थे लेकिन 350 डॉलर के नॉन-रिफंडेबल टिकट की मजबूरी में वह चले ही गए। और, वह गए तो उनकी जिंदगी बदल गई, हमेशा के लिए।
प्यूर्तो रिको ने उनके भीतर जो कुछ दबा-घुटा-छिपा था, वह सब बाहर निकाल फेंका। किशोरावस्था में भी उन्हें दुनिया के बारे में जानने की तो बहुत रुचि थी जो किताबों, पत्रिकाओं व फिल्मों से पूरी होती थी। फिर पढ़ाई-लिखाई नौकरी की आकांक्षा में वह सब ताले में बंद होती चली गई। प्यूर्तो रिको ने एक झटके में वह ताला तोड़ फेंका। वह दिल में नई लोच के साथ लौटे। छह महीने के भीतर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और फिर कहीं भी घूमने निकल पड़ने की ठान ली।
तब से एक सिलसिला शुरू हुआ जो रुका नहीं। यह सफर पहले ही देश के 22 राज्यों और दुनिया के 32 देशों का फासला तय कर चुका है। लेकिन यह किसी आम टूरिस्ट का सफर नहीं है। बहुत लोग हैं और होंगे जो इससे कई गुना ज्यादा देश घूम चुके हैं, घूम रहे हैं। यह उनसे बिलकुल अलग है। यह फ़क़त आवारगी का सफर है, दुनिया को देखने, लोगों को जानने, नई समझ हासिल करने का सफर। वह अकेले घूमते। अकेले घूमना उनके लिए सीखने के नए सबब पैदा करता है। प्यूर्तो रिको की उस ट्रिप के बाद वरुण ने करीब साढ़े चार साल दुनिया देखते हुए सड़कों पर बिताए। इस सफर पर ब्रेक लगाया तो कोविड की लहर ने।
इस सफर के अंदाज को नई शोहरत भी मिली पिछले साल, जब गुजरात के कच्छ इलाके में स्थित एक गुमनाम सी जगह कड़िया ध्रो की उनकी खोज को न्यूयार्क टाइम्स ने साल 2021 की अनूठी व अनदेखी जगहों में से एक माना। न्यूयार्क टाइम्स ने इसके लिए दुनियाभर से प्रविष्टियां मांगी थी। कुल 2000 प्रविष्टियों में से 52 को चुना जाना था और वरुण सचदे के कड़िया ध्रो के ब्योरे को तीसरे स्थान पर आंका गया।
कड़िया ध्रो की वरुण द्वारा की गई तलाश ही दरअसल उनकी घुमक्कड़ी का सार है। वह कहीं भी जाने से पहले कोई योजना नहीं बनाते। उन्हें गूगल व इंटरनेट के भरोसे की यात्राएं कतई पसंद नहीं। वह बस कहीं पहुंच जाते हैं और उसके बाद वहां के रास्ते नापते हैं, या तो स्थानीय लोगों से बातचीत के आधार पर या फिर अपनी समझ से। उसी में अक्सर वह नई-नई जगहें खोज लेतें हैं जिनके बारे में गूगल को भी नहीं पता होता, जैसे कि कडिया ध्रो, या फिर उन जगहों की नई पहचान पाते हैं जो इंटरनेट पर कायम उनकी पहचान से बिलकुल अलग होती है।
उनके सफर फक्कड़ यायावरी वाले होते हैं, किसी टूरिस्ट के नहीं। वह तसल्ली से घूमते हैं। जहां जाते हैं, वहां की संस्कृति, लोगों की जिंदगियों, उनकी बोली, खान-पान का अनुभव लेते हैं और उनसे घुलते-मिलते हैं। वह किसी रिटर्न टिकट की जल्दबाजी में नहीं रहते और बेहद तफसील से किसी जगह और साथ ही वहां के लोगों की परत-दर-परत समझ विकसित करते हैं।
वह किसी जगह पहुंचकर वहां आसपास आने-जाने के लिए लिफ्ट लेने में संकोच नहीं करते (ट्रैवल की शब्दावली में इसे हिचहाइकिंग कहा जाता है)। धन खत्म हो जाए तो वह कोई भी छोटा-मोटा काम करके खर्च चलाने लायक जुगाड़ करने में पीछे नहीं रहते। उन्होंने अपनी कई यात्राओं में दाबेली व सैंडविच बनाकर बेची हैं और खर्च निकाला है।
लेकिन क्या यह सब इतना सहज हो पाता है? मैंने जब वरुण से पूछा तो उनका कहना था कि घूमने के लिए खान-पान व भाषा की जड़ताएं तोड़ना सबसे जरूरी होता है। फिर जरूरी है अपने भीतर की हिचक निकालना। वरुण शाकाहारी हैं लेकिन फिर भी कोशिश यही करते हैं कि जहां हैं, वहां का ही खाना खाएं। उन्होंने लैटिन अमेरिका में खाने में अक्सर केचप के साथ चावल खाया है। यही बात भाषा के संदर्भ में भी है। आप कुछ दिनों में किसी भाषा को पूरी तरह तो नहीं सीख सकते लेकिन समझने की कोशिश कर सकते हैं, कुछ जरूरी संवाद सीख सकते हैं। वरुण ने लैटिन अमेरिका में स्पेनिश और पुर्तगाली सीखी, फिर तुर्की, अरबी व रूसी भाषा में भी हाथ आजमाये।
वरुण का कहना है कि अगर आप सही इरादे से घूमें तो घूमना दुनिया के प्रति आपका नजरिया खोलता है। वह देशों व समुदायों की जाहिरी दुनिया की और गहराई में आपको ले जाता है।
हालांकि वरुण का घूमना सोशल मीडिया के लिए नहीं होता और वह दरअसल शेयरिंग के लिए किए जाने वाले ट्रैवल के बहुत फैन नहीं है। वरुण फ्रीलांस कंटेंट लेखक हैं। इससे होने वाली आय से उनके टिकटों का खर्च निकल आता है। कहीं पहुंचने के बाद का खर्च वह अपने तरीके से निकाल लेते हैं।
(सभी फोटोः वरुण सचदे के अलग-अलग सफर से)
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