Wednesday, December 25
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रावण कुल के तीस से ज्यादा पुतले और अल्मोड़ा का दशहरा

भारत में दशहरा कई जगहों पर बेहद खास तरीके से मनाया जाता है। दशहरा चाहे कुल्लू का हो या मैसूर का या फिर कोटा का, सबकी अपनी अलग पहचान है। इन्हीं में से एक है अल्मोड़ा का दशहरा।

उत्‍तराखंड का अल्‍मोड़ा अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए देश विदेश में पहचान रखता है। इसीलिए इसे सांस्कृतिक नगरी भी कहा जाता है। जितनी यहां की रामलीलाएं मशहूर हैं, उतना ही यहां का दशहरा भी अनूठा है। रामलीला मंचन और विजयदशमी की परंपराएं भारत में बहुत पुरानी हैं। अल्मोड़ा में भी ये दोनों ही पर्व चंद राजाओं के जमाने से मनाए जाते आ रहे हैं। लेकिन मजेदार बात यह है कि अल्मोड़ा के जिस दशहरे की अब सब जगह चर्चा होती है और अब जो बेहद लोकप्रिय है, वह कोई लंबा-चौड़ा इतिहास नहीं रखता।

अल्मोड़ा में दशहरे पर अलग-अलग मोहल्लों में बनते हैं पुतले. फोटोः उपेंद्र स्वामी

अल्मोड़ा के मौजूदा दशहरे का स्वरूप है वहां रावण कुटुम्ब के तमाम लोगों के पुतले बनाए जाना और उनकी झांकी पूरे शहर में निकालना। भारत में बाकी सभी जगहों पर दशहरा के मौके पर रावण के साथ-साथ कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतलों के दहन की परंपरा है। शायद अकेला अल्मोड़ा का दशहरा ही है जहां रावण के कुल के 30 से ज्यादा पुतले हर साल बनाए जाते हैं।

रावण के अलावा बाकी लोगों के पुतले बनाए जाने की परंपरा 50 साल से भी कम पुरानी है। उससे पहले सिर्फ रावण का पुतला बनाया जाता था। कई लोग उसकी शुरुआत भी 1925 के आसपास की बताते हैं। तब नंदादेवी, लाला बाजार के कलाकार रावण का पुतला बनाते थे जो परंपरा आज भी कायम है। अल्मोड़ा के जाने-माने लोक कलाकार अमरनाथ वर्मा को रावण के पुतले के नैन-नक्श बनाने की वजह से काफी शोहरत हासिल थी। तब भी रावण के पुतले को नगर का भ्रमण कराया जाता था और फिर बद्रेश्वर ले जाकर उसे फूंक दिया जाता था।

दशहरे के दिन मोहल्लों से शोभायात्रा के लिए लाए जाते हैं सारे पुतले. फोटोः उपेंद्र स्वामी

स्थानीय लोग बताते हैं कि इस परंपरा को विस्तार मिलना शुरू हुआ 1975 के बाद से। तब अल्मोड़ा के एक अन्य मशहूर लोक-कलाकार अख्तर भारती ने मल्ली बाजार में मेघनाद का आकर्षक पुतला बनाया। उस साल शोभायात्रा में रावण के साथ मेघनाद का भी पुतला जुड़ गया। फिर 1977 में जौहरी बाजार में कुंभकर्ण का पुतला बना। लक्ष्मी भंडार में एक अन्य कलाकार राजेंद्र बोरा ने ताड़का का पुतला बना दिया।

सिलसिला बढ़ता गया। 1982 तक कई मोहल्ले पुतले बनाने लगे और 1990 आते-आते यह संख्या तीस तक पहुंच गई। पुतले अलग-अलग मोहल्लों में बनने लगे। वहां पुतले बनाने के लिए मोहल्ला कमिटियां बन गईं। मजेदार बात यह थी कि पुतले रावण कुल के अलग-अलग लोगों के थे। शहर में सौहार्द्र इतना था कि सब अलग-अलग किरदारों के पुतले बनाते थे। सबने अपने-अपने पात्र चुन लिए थे और कोई किसी दूसरे का पात्र छीनता नहीं था। बस अपने ही पात्र को बेहतरीन तरीके से पुतले की शक्ल देने की सारी मेहनत होती है। अब आप याद कीजिए- क्या आपको रावण कुल के तीस लोगों के नाम पता हैं? यहां आपको हरेक अपने नाम ही नहीं, बल्कि पूरी शारीरिक संरचना के साथ मिल जाएगा।

पुतले कलात्मक तरीके से बेहद सुंदर बनाए जाते हैं। रंगरूप, कदकाठी व उनके चरित्र के अनुरूप चेहरा रौबदार और आकर्षक बनाया जाता है। पुतलों के निर्माण में शौकिया कलाकारों की कल्पना और सृजनशीलता निखरकर सामने आती है। अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव साम्प्रदायिक सौहार्द्र का भी अहसास कराता है। कलाकार पेशेवर नहीं होते और मोहल्ले में तमाम धर्मों के लोग उसमें लगते हैं। तमाम पुतलों के जुड़ने से अल्मोड़ा में दशहरे का त्योहार आम जनमानस का त्योहार हो गया और समूचे शहर की उसमें भागीदारी हो गई। यही अल्मोड़ा के दशहरे की सबसे बड़ी ख़ासियत है।

अल्मोड़ा में माल रोड पर जमा हुए रावण के समूचे परिवार के पुतले. फोटोः उपेंद्र स्वामी

पुतले बनाने का काम दशहरे से महीनेभर पहले शुरू हो जाता है। शुरुआती दौर में पराल के पुतले बनते थे। लेकिन बाद में धातु की फ्रेम इस्तेमाल की जाने लगी। पुतलों में पराल भरकर ऊपर से बोरे सिल दिए जाते हैं और फिर उस पर कपड़े से मनमाफिक आकृति दी जाती है। चेहरा प्लास्टर ऑफ पेरिस का भी बनाया जाता है। पूरा धड़ एक साथ बनाया जाता है, केवल चेहरा अलग से तैयार किया जाता है। अंत में उनकी सजावट होती है, वस्त्राभूषण पहनाए जाते हैं और उनके पात्र के अनुरूप हथियारों से लैस किया जाता है।

यह लंबा काम है। चूंकि मोहल्ले के आम लोग ही पुतला बनाते हैं, इसलिए वे दिनभर अपना रोजी-रोटी का काम करने के बाद देऱ शाम या रात में पुतले के काम के लिए जुटते हैं। मोहल्ले के किसी चौराहे पर पुतला खड़ा होना शुरू होता है। इसलिए यदि आप दशहरे से ठीक पहले के दिनों में अल्मोड़ा घूमेंगे तो आपको तमाम जगहों पर पुतले बनते मिल जाएंगे। ऐन दशहरे के दिन तक पुतले को सजाने का काम जारी रहता है। अब यह तो होता ही है कि हर मोहल्ले के पास उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से पुतले में भी संसाधन लगते हैं।

अल्मोड़ा के मुख्य बाजारों से निकलती पुतलों की शोभायात्रा. फोटोः उपेंद्र स्वामी

दशहरे का दिन बड़ी गहमागहमी वाला होता है। पुतलों को हर तरीके से आखिरी स्वरूप देकर यात्रा के लिए तैयार कर लिया जाता है। मध्याह्न से ये पुतले अपने-अपने मोहल्लों से निकलने लग जाते हैं। पुतला कमिटियों व मोहल्ले के लोग नाचते-गाते-बजाते पुतलों के साथ माल रोड पर टैक्सी स्टैंड के पास पहुंचते हैं। आजकल तो कई पुतलों के साथ डीजे व बड़े म्यूजिक सिस्टम भी चलते हैं। एक-एक करके सारे पुतले माल रोड पर एकत्र हो जाते हैं। दोपहर बाद तक यह सिलसिला चलता है। सारे पुतलों के एकत्र होने के बाद वहां एक औपचारिक सा कार्यक्रम होता है। फिर वहां से इन पुतलों की शोभायात्रा शुरू होती है।

बाजार में पुतले देखने के लिए रास्ते के दोनों तरफ जमा होते हैं स्थानीय लोग व पर्यटक. फोटोः उपेंद्र स्वामी

माल रोड से एलआर शाह रोड पर चढ़कर लाला बाजार, रघुनाथ मंदिर, थाना बाजार होते हुए शोभायात्रा कैंट के पास फिर से नीचे माल रोड पर उतर कर स्टेडियम की तरफ चली जाती है। किसी पहाड़ी शहर में पतले-संकरे बाजारों के बीच से 30-35 पुतलों की शोभायात्रा आसान नहीं होती। इसमें तीन-चार घंटे आसानी से लग जाते हैं। पूरे रास्ते भर लोग शोभायात्रा को देखने के लिए जमा रहते हैं।

दशहरे की शाम अल्मोड़ा में देखते ही बनती है। एक माह से चली आ रही गतिविधियों के यह चरम का दिन होता है जिसका आनंद यहाँ आए देश-विदेश के पर्यटक देर रात तक लेते हैं। शोभायात्रा अल्मोड़ा स्टेडियम पहुंचकर समाप्त होती है। सारे पुतलों को यहां पहुंचते-पहुंचते नौ बज जाते हैं। शोभायात्रा के साथ-साथ शहर के लोग भी स्टेडियम पहुंच जाते हैं जहां एक तरह से मेले का सा माहौल होता है। यहीं पर फिर सारे पुतलों को फूंका जाता है। देश में बाकी जगहों की तरह यहां पहले से कोई बड़े-बड़े रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतले नहीं खड़े होते, बल्कि जो पुतले मोहल्लों में बनकर शोभायात्रा में यहां पहुंचते हैं, उन्हीं का दहन होता है।

देर शाम अल्मोड़ा स्टेडियम में जाकर संपन्न होती है रावण कुल के पुतलों की शोभायात्रा. फोटोः उपेंद्र स्वामी

पुतलों के बनने और शोभायात्रा के इस जश्न के साथ-साथ अल्मोड़ा के मल्ला महल, नंदा देवी मंदिर और हुक्का क्लब में होने वाली पुरानी रामलीलाओं को भी जोड़ लें तो अल्मोड़ा में यह दस दिन का पर्व एक शानदार अनुभव देने वाला बन जाता है। अब तो पिछले कुछ सालों से यहां दुर्गा पूजा भी कुछ स्थानों पर भव्य तरीके से होने लग गई है। इसकी शुरुआत गंगोला मोहल्ले से हुई थी, बाद में अन्य जगहों पर भी होने लगी। विजयदशमी के दिन दोपहर में इन प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए नीचे क्वारब में कोसी व सुआल नदियों के संगम पर ले जाया जाता है।

अल्मोड़ा के दशहरे की पहचान भारत के प्रमुख दशहरा उत्सवों में होने लगी है, जिसके लिए न केवल आसपास के लोग बल्कि देश-विदेश के सैलानी भी जुटते हैं। फिर दशहरे तक बारिश बंद हो जाती है और मौसम खुला होता है। इससे इस अल्मोड़ा की यात्रा का मजा और बढ़ जाता है।

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