एक ऐसा उत्सव जो फूलों से शुरू होता है और उन फूलों के जरिए स्त्री शक्ति के आह्वान के साथ जल में प्रवाहित होता है, जीवन धारा के रूप में।
स्त्री जीवनदायिनी है, स्त्री जीवन धारा को विकसित-पल्लवित-पुष्पित करती है, जीवन को बड़े पालनाघर में डाल पोसती है, नई ऊंचाइयों तक पहुंचाती है और इसलिए उसका खास महत्व है। तेलंगाना के राज्य उत्सव बाथुकम्मा का मूल मंत्र यही है। चूंकि यह शक्ति हर नारी में है, लिहाजा इस उत्सव में किसी देवी-देवता की मूर्त रूप में पूजा नहीं होती। हर औरत इस शक्ति का स्वरूप है, लिहाजा बराबर है। स्त्रीत्व की जयगाथा का ऐसा कोई और उत्सव दुनिया भर में शायद ही हो जिसमें मूर्त रूप में महिलाएं अपनी शक्तियों का जयगान करें और खुश रहने और खुशी बांटने के लिए बहनापे का जगत में विस्तार करें।
इस उत्सव का नाम है बाथुकम्मा, जो दक्षिण भारत के तेलंगाना का राज्य उत्सव है। राज्य सरकार इस उत्सव को दुनिया भर में अपनी खास पहचान के तौर पर प्रचारित कर रही है और तीन साल पहले इसका भव्य आयोजन करके इसको गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में भी जगह दिलाई गई। इस उत्सव में 9,292 हजार की संख्या में महिलाएं एक-साथ नाचते-गाते हुई शामिल हुई। यह अपने आप में विश्व रिकॉर्ड है। इससे पहले केरल में 2015 में 5,015महिलाओं ने ओणम का नृत्य एकसाथ करके गिनीज रिकॉर्ड बनाया था। बाथुकम्मा का नाम गिनीज बुक में दर्ज होने से उसकी अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति भी ठीक-ठाक हो गई है। अभी तक भारत में या कहें तो आंध्र प्रदेश में भी इस त्यौहार को बड़ी मान्यता नहीं है। इसे बहुत ही स्थानीय किस्म के पर्व के तौर पर देखा जाता है। लेकिन तेलंगाना राज्य बनने के बाद से और खासतौर से सरकारी प्रोत्साहन मिलने के बाद से इसका कद बड़ा हो रहा है। इसे केंद्र में रखकर तेलंगाना सरकार अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान तो स्थापित करना चाह ही रही है, साथ ही पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी इसे एक मजबूत प्लेटफॉर्म के रूप में विकसित कर रही है। एक ऐसे सालाना जलसे के तौर पर बाथुकम्मा को विकसित किया जा रहा है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग तेलंगाना में जुटे। सामाजिक कारण को भी इससे जोड़ा जा रहा है, ताकि आम जनता में इसे लेकर सामाजिक जागरूकता का भाव विकसित हो। तभी तेलंगाना का राजनीतिक नेतृत्व इसे अब स्त्री सशक्तीकरण और कन्या बराबरी मिशन के तहत बढ़ावा दे रहा है।
वर्षा ऋतु में जैसे प्रकृति दोबारा से हरी-भरी होती है और अलग-अलग किस्म के फूलों से लद जाती है, उसी समय यह पर्व भी मनाया जाता है। आश्विन अमावस्या से शुरू हो कर यह दशहरे के दो दिन पहले तक चलता है। इस साल यानी 2020 में यह 16 अक्टूबर से शुरू होकर 24 अक्टूबर तक चलेगा। इसका इतिहास करीब 400-500साल पुराना बताया जाता है और इसके संबंध में अलग-अलग कहानियां, कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन सबका पाठ स्त्री शक्ति के उत्सव के रूप में ही खत्म होता है।
ध्यान देने की बात है कि ठीक इसी समय पूरे उत्तर और मध्य भारत में नवरात्र, दुर्गापूजा जोर-शोर से मनाई जाती है। यह बहुत ही दिलचस्प संयोग है कि तकरीबन देश के अलग-अलग कोनों में अलग ढंग से स्त्री शक्ति-देवी शक्ति का बोलबाला रहता है। पश्चिम-बंगाल, त्रिपुरा, असम सहित देश के कई हिस्सों में दुर्गापूजा मनाई जाती है। इस दौरान नौ दिन दुर्गा के अलग-अलग रूपों की धूमधाम से पूजा की जाती है। इन्हें मानने वाले मांसाहार के साथ-साथ पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं नवरात्र को मानने वाले वत्र रखते हैं और शाकाहारी भोजन करते हैं। यानी, स्त्री शक्ति के इर्द-गिर्द देश के अलग-अलग हिस्सों में पर्व मनाए जाते हैं और सबके अलग-अलग रस्में-रिवाज हैं। इन तमाम पर्वों में बाथुकम्मा अलग है।
देसी-मौसमी फूलों को सात परतों में सजा कर उनसे गोपुरम यानी मंदिर का आकार बनाया जाता है। बाथुकम्मा के इतिहास को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन इनमें से कोई एक भी प्रमाणिक नहीं बताई जा सकती। दरअसल, चूंकि तेलंगाना का पूरा इलाका हाल-हाल तक आंध्र प्रदेश का ही हिस्सा बना हुआ था, लिहाजा बाथुकम्मा जैसे लोक-पर्वों को कभी खास तव्वजो नहीं मिल पाई। वे हाशिए पर ही रहे। उनके बारे में कायदे से शोध आदि भी नहीं हुआ। इस इलाके के लोग इसे अपने-अपने इलाकों में धूमधाम से मनाते तो थे, लेकिन राज्य का प्रोत्साहन न होने की वजह से इसका विस्तार नहीं हुआ। जिस किवदंति से बड़ी संख्या में तेलंगाना की महिलाएं खुद को जोड़ती हैं, वह कुछ इस तरह की है। चोला राजवंश में धर्मांगदा का दक्षिण भारत में शासन था। उन्हें कोई संतान नहीं थी, बहुत जतन के बाद एक लड़की पैदा हुई। पैदा होने के बाद इस बच्ची पर भी कई आपदाएं आई, लेकिन वह जिंदा रही। उसकी अद्भुत जिजीविषा से प्रभावित होकर राजा-रानी ने उसका नाम बाथुकम्मा रखा। बाथु यानी जीवन और अम्मा यानी मां और बाथुकम्मा को तब से स्त्री शक्ति, वृद्धि और समृद्धि का परिचायक माना जाने लगा। तभी से तेलंगाना में बच्चियों को खास महत्व देने की परंपरा रही है। अब यह परंपरा अभी भी कितनी कायम है, यह अलग शोध का विषय हो सकता है। बहरहाल, इस पर्व को कन्या और स्त्री शक्ति की दावेदारी के रूप में देखा जा सकता है।
इस उत्सव में फूलों की बेहद अहम जगह है। एक तरह से यह फूलों का उत्सव नजर आता है। हर महिला अलग-अलग किस्म के फूलों से ही स्त्री शक्ति का आह्वान करती है। बाथुकम्मा के दिनों में पूरा तेलंगाना फूलमय हो जाता, रंग-बिरंगे फूलों को थाली में रख घड़े के आकार में महिलाएं सजाती हैं और उन्हें लेकर बाहर निकलती हैं। उन्हें बीच में रखकर गोल घेरा बनाकर गाना गाते हुए जब खिलखिलाते हुए नाचती हैं, तो विहंगम दृश्य बनता है। लगता है कि नजर में दूर तक फूल-ही-फूल फैल गए हों। मशहूर शायर मखदुम मोहिउद्दीन की एक दिल के भीतर धंसने वाली गजल की पंक्तियां जेहन में घूमने लगती है—फूल खिलते रहेंगे दुनिया में, रोज निकलेगी बात फूलों की…फिर छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की...।
बाथुकम्मा में फूलों का चुनाव भी बहुत सोच-समझ के किया जाता है। ऐसा नहीं कि कोई भी फूल थाल में मिट्टी के कलश में सजाए जाते हैं। इसमें सिर्फ वही फूल लगते हैं, जिनका औषधीय इस्तेमाल होता है। ये माना जाता है कि जब इन फूलों को नदी या तलाब में प्रवाहित किया जाता है तो ये पानी को प्रदूषण मुक्त करने में मदद करते हैं। और, चूंकि इन फूलों को मिट्टी के पात्र में सजाया जाता है, इसलिए वह जलाशयों को प्रदूषित नहीं करते, मिट्टी पानी में मिल जाती हैं। इन फूलों में जल संरक्षण और जल को प्रदूषण से मुक्त करने वाले खास तत्व होते हैं, इसलिए पर्यावरण को इससे खासा लाभ होता है। यह पूरा उत्सव जिस तरह से इंसान के प्रकृत्ति से सानिध्य को बढ़ाता है, वह भी इसका एक जरूरी पक्ष है।
बाथुकम्मा कई मामलों में अनूठा है। अपनी सृजन शक्ति का उत्सव खुद औरतें ही करती हैं। इसमें कोई भेद नहीं है। इसमें तमाम उम्र की बच्चियां, महिलाएं और बुजुर्ग महिलाएं शिरकत करती है। जिन बच्चियों की महावारी नहीं शुरू हुई है, उनसे लेकर रजस्वला महिलाओं तक, इस उत्सव में कोई भेद नहीं है। सब स्त्री शक्ति के इस पर्व में नाचते-गाते भाग लेती हैं। जिन बच्चियों की महावारी नहीं शुरू होती है, उनके उत्सव को बुड्डम्मा कहा जाता है और जो रजस्वला महिलाएं हैं उनका उत्सव कहा जाता है बाथुकम्मा। लेकिन ये दोनों ही एक साथ-एक ही समय मनाए जाते हैं। इसके जरिए समाज को बच्चियों का सम्मान करने का संदेश भी दिया जाता है। वारंगल आदि क्षेत्रों में लड़कियों के आगमन को विशेष वरदान के तौर पर देखा जाता है और बच्चियों के पैर भी मां-बाप छूते हैं। इस तरह से स्त्री शक्ति-प्रकृति-फूल-जल को अपने आप में समेटे हुए यह त्योहार तेलंगाना की संस्कृति का द्योतक बन गया है। तेलंगाना राज्य का मूल स्रोत देसज और जुझारू सभ्यता रही है। ये दोनों भाव इस त्यौहार में परिलक्षति होते हैं। जब पूरे देश में स्त्री या देवी से संबंधित तमाम आयोजनों में पुरुष पक्ष का या पित्तृसत्तात्मक सोच का बोलबाला आम तौर पर दिखाई देता है, ऐसे में बाथुकम्मा का उदय तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र स्त्री के प्रतीक के साथ मेल खाता हुआ दिखाई देता है। यहां स्त्री शक्ति किसी खास देवी की शक्ल में नहीं बंधी हुई है, छवि से मुक्त है, फूलों में बिखरी हुई है। बहुत कुछ इस पर्व की पूरी रूपरेखा आदिवासी समाज के पर्वों से मेल खाती दिखाई देती हैं।
हालांकि यह बात भी सही है कि एक दिन लड़की की पूजा करने या स्त्री शक्ति का सम्मान करने भर से पितृसत्तात्मक सोच में कोई परिवर्तन नहीं आता। हमारे परिवारों, समाज, राजनीति का ढांचा पुरुष प्रधान ही बना हुआ है और उसमें इस तरह के तमाम आयोजन अक्सर रस्मी रिवाज के तौर पर ही रह जाते हैं। जश्न के जोर-शोर में असली तत्व या मूल भावना ढक-छिप जाती है। ये तमाम बातें बाथुकम्मा पर भी लागू होती हैं और आज इसके भव्य-दिव्य आयोजनों पर जिस तरह का बेशुमार धन खर्च किया जा रहा है, उसमें बहुत कम जगह बचती है, इसके मूल मकसद पर चर्चा करने की। तेलंगाना सरकार की कहना है कि चूंकि स्त्री सशक्तीकरण की परंपरा इस राज्य की विरासत है, लिहाजा इसकी गूंज राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। पर्यटन को इस तरह के उत्सवों के जरिए बढ़ावा देने की नीति फिलहाल तो कारगर नजर आ रही है। धीरे-धीरे बाथुकम्मा के जरिए नीचे के स्तर तक महिलाओं की सांस्कृतिक गोलबंदी की जा रही है। इस गोलबंदी के केंद्र में स्त्री स्वतंत्रता का बोध कितना है और परंपरा के निर्वाह के नाम पर रीति-रिवाजों और पुरातनपंथी विचारधारा का जोर कितना है और इनमें से हावी कौन होगा, यह तो समय ही बताएगा। फिलहाल तो हम इतना बता सकते हैं कि फूलों के इस दिलकश पर्व में ताल पर अगर आपके भी पैर थिरकने को आतुर हों, तो आप भी बेझिझक सड़कों पर उतरकर, गोल घेरा बनाकर हंसते-मुस्कुराते-गाते हुए बढ़ सकती हैं। बहनापे के इस उत्सव को जीवन, सृजन और प्रगतिशील धारा से लगातार जोड़े रखने की हमारी साझा कवायद शायद कभी कोई गुल खिलाए। जीवन की मां तो अभी सज रही है। बारिश के मौसम में चारों ओर फैली हरियाली से पृथ्वी को जो संजीविनी मिलती है, उसे हम अपने भीतर जितना अधिक भिगो कर सहेज लेंगे, प्रतिकूल मौसम में इन फूलों की खुशबू हमें लगातार आगे बढ़ते जाने का हौसला देती रहेगी।
नौ दिन, नौ नैवेद्य
इस पर्व में अलग-अलग दिन अलग नैवेद्य अर्पित किए जाते हैं। नौ दिन तक अलग-अलग खाना बनाया जाता है। इसमें भी देसी और सहज चीजों की भरमार होती है। चावल, दाल और गुड़ के इर्द-गिर्द ही नौ दिन का नैवेद्यम बनता है। जिस तरह से यह पर्व प्रकृति के सानिध्य में चलता है। औरे फूलों पर इसका आयोजन टिका है, उसी तरह से बहुत सहज उपलब्ध चीजों से बनता है इसका नैवेद्य। हर दिन का अपना खास महत्व है। इसमें सबसे अनूठा है छठे दिन का रूटीन। अलिगिना बाथुकम्मा या क्रोध में होना। ईश्वर से कहना कि चूंकि आप मेरी बात नहीं सुनते, लिहाजा मैं अपनी नाराजगी दर्ज करती हूं और आज मैं उपवास पर हूं। कई लोग इस उपवास की व्याख्या, खुद पर नियंत्रण रखने, शक्ति के आह्वान के लिए शरीर को साधने आदि से भी देतें हैं। व्याख्याएं अनंत हो सकती है, अपनी सोच के मुताबिक जो बेहतर लगे, हम चुन सकते हैं।
- एनगिली पुला बाथुकम्मा। पहले दिन का नैवेद्य: नुव्वुलु (तिल के बीज), बिय्यम पिंडी (चावल का आटा) या नूकलु (टुकड़ा चावल)
- अटुकुला बथुकम्मा। आश्वायुजा मास का पहला दिन। बाथुकम्मा के दूसरा दिन का नैवैद्य: सप्पिडि पप्पु (फीकी दाल), बैल्लम (गुड़) और अटुकुलु (चूड़ा)।
- मुद्दापप्पु बाथुकम्मा। आश्वायुजा मास का दूसरा दिन। पर्व के तीसरे दिन का नैवेद्य: मुद्दापप्पू (खूब पक्की गाढ़ी दाल), पालू (दूध) और बैल्लम (गुड़)।
- नानबिय्यम बाथुकम्मा। आश्वायुजा मास का तीसरा दिन। पर्व के चौथे दिन का नैवेद्य: नानेसिना बिय्यम (गीला चावल), पालू (दूध) और बैल्लम (गुड़)।
- अटला बाथुकम्मा। बाथुकम्मा का पांचवे दिन का नैवेद्य: उप्पडि पिंडि अट्लु (गेंहू का दोसा या दोसा)।
- अलिगिना बाथुकम्मा। पर्व के छठे दिन का नैवेद्य: उपवास, कोई नैवेद्यम नहीं।
- वैपकायला बाथुकम्मा। पर्व के सातवें दिन का नैवेद्य: चावल के आटे में नीम का बौर -फल छानना।
- वेन्नामुद्दाला बाथुकम्मा। आठवां दिन। नैवेद्य—नुव्वुलु (तिल), वेन्ना (मक्खन) या नेइई(घी) और बैल्लम (गुड़)।
- साद्दुला बाथुकम्मा। पर्व के नौवें दिन दुर्गाष्टमी का खास नैवेद्य। पांच तरह का चावल पेरुगन्नम सद्दि (दही चावल), चिंथापंडु पुलिहोरा सद्दि (इमली चावल), निम्माकाया सद्दि (नींबू चावल), कोब्बेरा सद्दि (नारियल चावल) और नुव्वुला सद्दि (तिल चावल)।
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