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काम्यवन के घृष्णेश्वर

देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंगों में घृष्णेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग बारहवें स्थान पर आते हैं। मान्यता है कि इन सभी शिवलिंगों की यात्रा के अंत में घृष्णेश्वर के दर्शन बिना शिव भक्तों की यात्रा सफल नहीं होती। यह स्थान शिवालय-तीर्थस्थान कहलाता है। इस शिव मंदिर में स्थापित पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए शिव भक्तों को पहले महाराष्ट्र के औरंगाबाद पहुंचना होता है। उसके बाद सड़क मार्ग से 30 कि.मी. दूर वेरूल गांव पहुंचते है। यहां एक विशेष प्रकार के शांत वातावरण में स्थापित मंदिर यह दिखाई देता है। विश्व प्रसिद्ध एलोरा गुफाएं मंदिर से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर हैं और उनके समीप मुगल बादशाह औरंगजेब की कब्र भी है। मंदिर से कुछ किलोमीटर पहले औरंगजेब का किला सड़क मार्ग से दिखाई देता है।

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफाओं के निकट स्थित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग कोविड-19 के चलते कई महीने बंद रहने के बाद नवंबर के मध्य से फिर से यात्रियों के लिए खोल दिया गया है। हालांकि शारीरिक दूरी, मास्क पहनने, सफाई आदि के नियमों का सख्ती से पालन किया जा रहा है। दिन में आठ से दस बार मंदिर की सफाई भी की जा रही है। लेकिन श्रद्धालुओं को मूर्ति को छूने की इजाजत नहीं दी गई है और उनके द्वारा लाया गया प्रसाद भी मंदिर परिसर के बाहर ही लिया जा रहा है।

घृष्णेश्वर महादेव और शिवालय से संबंधित अनेक कथाएं जन-मानस में कहीं-सुनी जाती हैं। कहा जाता है कि एक समय वेरूल में नाग जाति के आदिवासी लोग रहते थे। चूंकि सर्पों का घर बाम्बी में होता है। अत: इस स्थान को वारूल कहा गया। यहां से येल गंगा नामक नदी बहती है। इसके किनारे बसा क्षेत्र येरूल कहलाया। इस प्रदेश में ऐल नाम का राजा राज्य करता था जिसने येरूल को अपनी राजधानी बनाया था। यह राजधानी बाद में येलापुर और कालांतर में वेरूल कहलाने लगी।

कहते हैं एक बार वन में शिकार करते हुए ऐल राजा से ऋषि-मुनियों के आश्रम के कुछ प्राणियों की हत्या हो गई तो उन्होंने राजा को शाप दे दिया। परिणामत: राजा के शरीर में कीड़े पड़ गए। वह अत्यंत दु:खी हो गया। पश्चाताप करते और वन में भटकते हुए उसे बहुत प्यास लग गई थी मगर पानी नहीं मिला। अचानक उसकी नजर गायों के खुरों से बने गढ्ढों में भरे पानी पर पड़ी। उसने वह पानी पीकर प्यास बुझाई। तभी चमत्कार हुआ और उसके शरीर के सारे कीड़े समाप्त हो गए। उस स्थान को दैविक मानते हुए राजा ने वहीं बैठकर तपस्या प्रारंभ प्रारम्भ कर दी। इस पर ब्रह्मदेव प्रसन्न हुए और उन्होंने उस स्थान पर अष्टतीर्थों की प्रतिष्ठापना की। समीप ही एक बड़ा पवित्र सरोवर भी बनाया। इस ब्रह्म सरोवर को बाद में शिवालय कहा गया।

शिवालय से जुड़ी एक और कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर खेल-खेल में पार्वती से रूठ गए और कैलाश पर्वत से सह्याद्रि के पठार पर आ गए। उन्हें खोजते-खोजते पार्वती भी वहां पहुंच गई। दोनों यहां कुछ समय तक रहे। एक बार देवी पार्वती की प्यास बुझाने के लिए शिव ने जमीन में त्रिशूल घोंपकर पाताल से जल निकाला। इसी स्थान को शिवालय तीर्थ कहा गया। शिव पार्वती जहां रहे उसे काम्यवन बोला जाने लगा। यहां से शिव नदी (शिवना नदी) निकलकर शिवतीर्थ में मिलते हुए आगे येलगंगा में मिल जाती है।

काम्यवन से जुड़ी अनेक कथाओं में एक यह है कि वन में पार्वती जी ने एक बार अपनी मांग में सिंदूर भरने के लिए बाएं हाथ में कुंकुम और केसर लिया। फिर उसमें शिवालय तीर्थ का जल मिलाकर दाहिने हाथ की अंगुली से कुंकुम-केसर को मलने लगीं। तभी चमत्कार हुआ और कुंकुम-केसर का शिवलिंग बन गया। उस लिंग में एक ज्योति प्रकट हुई। आश्चर्यचकित पार्वती ने उस दिव्य ज्योति को पत्थर के लिंग में रखा और वहीं पर लिंग मूर्ति की प्रतिष्ठापना की। इस ज्योतिर्लिंग का कुंकुमेश्वर नाम रखा गया। लेकिन दाक्षायणी ने घर्षण द्वारा इस लिंग का निर्माण किया था इसलिए इस ज्योतिर्लिंग को घृष्णेश्वर नाम दिया गया।

एक अन्य कथा के अनुसार दक्षिण दिशा में स्थिति देवपर्वत पर सुधर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण अपनी धर्मपरायण सुंदर पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। कई वर्षों के बाद भी उनके कोई संतान नहीं हुई। लोगों के उलाहने सुन-सुनकर सुदेहा दु:खी रहती थी। अंत में सुदेहा ने अपने पति को मनाकर उसका विवाह अपनी बहन धुष्मा से करा दिया। कुछ समय बाद उनके घर पुत्र उत्पन्न हुआ। यद्यपि सुदेहा ने अपनी बहन से किसी प्रकार की ईर्ष्या न करने का वचन दिया था परंतु ऐसा हो न सका। कुछ वर्ष बाद सुदेहा ने धुष्मा के सोते हुए पुत्र का वध करके शव को समीप के एक तालाब में फेंक दिया। सुबह हुई तो घर में कोहराम मच गया परंतु व्याकुल होते हुए भी धर्मपरायण धुष्मा ने शिव भक्ति नहीं छोड़ी। नित्य की भांति वह उसी तालाब पर गई। उसने सौ शिवलिंग बना कर उनकी पूजा की और फिर उनका विसर्जन किया।

धुष्मा की भक्ति से शिव अत्यंत प्रसन्न हुए। जैसे ही वह पूजा करके घर की ओर मुड़ी त्योंहि उसे अपना पुत्र खड़ा मिला। वह शिव-लीला से बेबाक रह गई क्योंकि शिव उसके समक्ष प्रकट हो चुके थे। अब वह त्रिशूल से सुदेहा का वध करने चले तो धुष्मा ने शिवजी से हाथ जोड़कर विनती करते हुए अपनी बहन सुदेहा का अपराध क्षमा करने को कहा। सुदेहा ने भगवान शंकर से पुन: विनती की कि यदि वह उस पर प्रसन्न हैं तो वहीं पर निवास करें। भगवान शिव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और धुश्मेश नाम से ज्योतिलिंग के रूप में वहीं स्थापित हो गए।

मंदिर दक्षिणाभिमुख है यानी मुख्य प्रवेश द्वार का मुंह दक्षिण दिशा की तरफ है। बड़ा सा दालान है और उसके चारों तरफ ऊंची दीवार है। मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं- एक महाद्वार और दो पक्षद्वार। मुख्य द्वार पर कोकिला माता का छोटा सा मंदिर है। मंदिर में एक बड़ा सभामंडप है और एक गर्भगृह। मंदिर का शिखर पांच मंजिला है।

मंदिर में अभिषेक और महाभिषेक किया जाता है। सोमवार, प्रदोष, शिव रात्रि और अन्य पर्वों पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। शिवभक्तों और पर्यटकों का विशाल समुदाय यहां उमड़ता है।

समय-समय पर घृष्णेश्वर महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ है। इसकी दीवारों, स्तंभों, छत पर पर देवी-देवताओं की मूर्तियां, पक्षी, फूल, शिकारी, संगीतकारों आदि की नक्काशी खुदी हुई हैं। पत्थर के 24 खम्भों पर सुंदर नक्काशी तराश कर सभामण्डप बनाया गया है। मंदिर का गर्भगृह 17 गुणा 17 फुट का है जिसमें लिंग मूर्ति रखी है जो पूर्वाभिमुख है। भव्य नंदीकेश्वर सभामण्डप में स्थापित हैं। घृष्णेश्वर शिव मंदिर में एक और विशेष बात यह है कि 21 गणेश पीठों में से एक पीठ लक्षविनायक नाम से यहां प्रसिद्ध है। पुरातत्व और वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर बहुत महत्वपूर्ण है।

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