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अरावली का खजुराहो है नीलकंठ

भारतीय मंदिरों की स्थापत्य कला व शिल्प में खजुराहो की जगह अद्वितीय है। शिल्प की दृष्टि से ये बेजोड़ हैं ही, इनपर स्त्री-पुरुष प्रेम की बेमिसाल आकृतियां गढ़ी गई हैं। इसलिए इन्हें हमेशा अन्यत्र गढ़े गए शिल्पों के मानक के तौर पर देखा जाता है। उस दौर में ऐसे कई शिल्प गढ़े गए। कुछ ध्वस्त हो गए तो कुछ गुमनामी में खो गए। राजस्थान के अलवर जिले में स्थित सरिस्का नेशनल पार्क के इलाके में बना नीलकंठेश्वर मंदिर भी अपने शिल्प व उनमें मानवीय प्रेम के चित्रण के लिए अरावली का खजुराहो कहा जाता है

सबसे भुतहा जगह के रूप में विख्यात भानगढ़ को देखने के तुरंत बाद हम नीलकंठ पहुंचे। मैं यकीन से कह सकता हूं कि भानगढ़ में मौजूद लोगों में से 10 फीसदी से कम ने ही इस मंदिर के बारे में सुना होगा और जिन्होंने सुना होगा उनमें से भी 10 फीसदी से कम ही यहां कभी गए होंगे। कांकवाड़ी किले की ही तरह, जब हम नीलकंठ पहुंचे तो वहां हमारे अलावा कोई और सैलानी न था। हालांकि वहां तैनात सिपाहियों ने बताया कि एक दिन पहले यानी नए साल के पहले दिन काफी संख्या में सैलानी वहां पहुंचे थे। हां, हमसे पहले भी दौसा से एक परिवार वहां पूजा करने के लिए जरूर पहुंचा था।

मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियां

अफसोस यही है कि इस नीलकंठ मंदिर के बारे में ज्यादा कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। यहां लगे बोर्ड पर मंदिर का नाम नीलकंठेश्वर मंदिर लिखा है। अगर आप इंटरनेट पर नीलकंठ मंदिर के बारे में कुछ खोजने निकलेंगे तो ज्यादातर जानकारी सिर्फ उत्तराखंड में ऋषिकेश के निकट स्थित नीलकंठ मंदिर के बारे में मिलती है। मैंने उस नीलकंठ मंदिर को भी देखा है। वह जगह और पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर से घाटी का नजारा यकीनन वाकई बहुत खूबसूरत है, वहां जाने वाले सैलानियों और श्रद्धालुओं की तादाद भी काफी ज्यादा है लेकिन राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का नेशनल पार्क के भीतर स्थित इस नीलकंठ मंदिर की बात ही कुछ अलग है।

मैं शिल्प की बात कर रहा हूं जो इस लेख के शीर्षक से भी जाहिर है। अब यह कहा जा सकता है कि इस मंदिर की तुलना खजुराहो के मंदिरों से करना बहुत बड़ी बात है लेकिन मेरे जेहन में यह खयाल सिर्फ उस मंदिर से नहीं है जिसके अवशेष वहां हैं बल्कि उन तमाम मंदिरों से भी है जो पिछले हजार सालों में नष्ट हो चुके हैं। खजुराहो के मंदिरों को हम उनके शिल्प के लिए जानते हैं और नीलकंठ मंदिर का शिल्प भी काफी कुछ उसी तरह का है। वैसे खजुराहो मंदिरों के समकालीन या उसके बाद के दौर में देशभर में कई मंदिर ऐसे रहे हैं जिनमें उसी तरह का शिल्प और प्रेमरत युगलों की मूर्तियां रही हैं। आम तौर पर उन सभी के आगे खजुराहो एक विशेषण की तरह लग जाता रहा है।

नीलकंठ मंदिर के इतिहास के बारे में कोई ठोस प्रमाणिक जानकारी नहीं है। दरअसल मंदिर के आसपास कोई ऐसा उद्धरण नहीं मिलता जिससे इस मंदिर की उत्पत्ति के बारे में कोई जानकारी आम सैलानियों को मिलती हो। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह मंदिर पांडवकालीन है। दरअसल, जंगल के इस इलाके में पांडवों से जुड़ी कई जगहों की कथाएं हैं। सरिस्का नेशनल पार्क के भीतर पांडु पोल पर तो लगातार श्रद्धालुओं का जमावड़ा रहता है। हालांकि ऐसा कहा जाता है कि राजा अजयपाल ने 1010 ईस्वी में यहां मंदिर का निर्माण करवाया था। इस लिहाज से आंका जाए तो यह मंदिर खजुराहो के मंदिरों के समकालीन ही है।

नीलकंठ शिव का मंदिर है। खजुराहो में सबसे प्रमुख मंदिरों में कंदरिया महादेव शिव का ही मंदिर है। लेकिन वहां अब कोई पूजा नहीं होती, जबकि नीलकंठ मंदिर में शिवलिंग स्थापित है और वहां नियमित रूप से पूजा भी होती है। हर साल शिवरात्रि पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु भी यहां जुटते हैं। सावन के महीने में भी कावडि़ए पवित्र नदियों से पानी लाकर यहां शिवलिंग पर चढ़ाते हैं।

नीलकंठ मंदिर परिसर

दरअसल जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार यह इलाका पुरातात्विक अवशेषों का खजाना है और नीलकंठ मंदिर भी उसी का हिस्सा है। कहा जाता है कि इस घाटी में कभी 360 मंदिर हुआ करते थे। कालांतर में वे सभी नष्ट हो गए- आक्रांताओं, लुटेरों और बीहड़ वक्त की मार झेलते-झेलते। नीलकंठ गांव और उसके आसपास के इलाके में अब भी कई सारे मंदिरों के अवशेष बिखरे देखे जा सकते हैं। यहां के पुरातात्विक अवशेष कितने समृद्ध हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब हम नीलकंठ मंदिर के मुख्य परिसर में प्रवेश करते हैं तो दालान में दोनों तरफ उस इलाके में खुदाई या अन्यत्र मिली मूर्तितयां और अन्य शिल्प तालाबंद जंगलों में रखी हुई हैं। इन बेशकीमती अवशेषों की चौबीसों घंटे सुरक्षा की जाती है। इसके लिए मंदिर परिसर में ही पुलिस चौकी भी है। वैसे मंदिर भारतीय पुरातात्विक सर्वे (एएसआई) के अधीन है। मंदिर के भीतर व बाहर दीवारों पर, स्तंभों पर मूर्तियां व शिल्प अब भी देखे जा सकते हैं। इसके अलावा मंदिर परिसर में भी इधर-उधर कई शिल्प रखे हैं।

नीलकंठ की मूर्तियां और शिल्प कई मायनों में खजुराहो सरीखे हैं- भावों में भी और आकृतियों में भी। सौंदर्य व श्रृंगार की वैसी ही मूर्तियां यहां हैं। उनके अलावा प्रेमरत युगलों के शिल्प और मैथुन मूर्तियां भी यहां देखी जा सकती हैं। नीलकंठ मंदिर के परिसर में भी पीछे की तरफ दो छोटे मंदिरों के अवशेष हैं जिनमें से एक में शिवलिंग भी मौजूद है।

नीलकंठ मंदिर के ठीक बाहर नाथों की समाधियां हैं। कहा जाता है कि कई पीढिय़ों से इस मंदिर में पूजा का जिम्मा इन नाथों का ही रहा है। नीलकंठ मंदिर के पास की कई अन्य चीजें भी हैं। एक बावड़ी है और उसके ठीक आगे एक अन्य मंदिर के अवशेष जिसमें सिर्फ दो दरवाजे और भीतर के मंदिरों के चबूतरे बचे हैं। इन दरवाजों के स्तंभ भी काफी अलंकृत हैं। देखकर लगता है कि ये मंदिर भी अपने समय में काफी भव्य रहे होंगे।

इस मंदिर परिसर से कुछ आधा किलोमीटर आगे खेतों के बीच से एक और महत्वपूर्ण मंदिर परिसर है। इसमें भी एक मुख्य मंदिर और चारों तरफ छोटे मंदिरों के अवशेष बचे हैं। स्थानीय स्तर पर इस मंदिर को नौगजा कहा जाता है क्योंकि मंदिर की सतह नीचे जमीन से नौ गज ऊपर है। यहां मुख्य मंदिर में सिर्फ पीछे की दीवार और ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां बची हैं। दीवार से सटी 16 फुट ऊंची एक जैन तीर्थंकर की प्रतिमा है जो मकराने के लाल पत्थर की बनी है। बाकी समूचे परिसर की तुलना में यह प्रतिमा आश्चर्यजनक से सलामत है। एक पत्थर से बनी इस प्रतिमा में सिर के दोनों तरफ और नीचे पावों के दोनों तरफ छोटी मूर्तियां उकेरी गई हैं। प्रतिमा मंदिर के पीछे की दीवार के सहारे टिकी हुई है, उससे लगता है कि दीवार को बाद में दुरुस्त करके बड़ी मूर्ति को यहां रखा गया। लेकिन ठीक-ठीक कुछ भी कहना कहना मुश्किल है।

नौगजा मंदिर व जैन तीर्थंकर की मूर्ति

इस मुख्य मंदिर के चारों तरफ छोटे-छोटे मंदिरों के चबूतरों के अवशेष हैं। चबूतरों के ऊपर और कोई आकार बाकी नहीं बचा है। इससे यह कहना मुश्किल है कि ये मंदिर किनके रहे होंगे। लेकिन इन चबूतरों पर भी चारों तरफ छोटी मूर्तियों के शिल्प मौजूद हैं। इनमें से ज्यादातर शिल्प नर्तकों-नर्तकियों और विभिन्न वाद्य बजाते वादकों के हैं। इससे ऐसा आभास होता है कि इस परिसर का कभी कोई रिश्ता नृत्य व संगीत से रहा होगा।

नीलकंठ व नौगजा के अलावा भी इस इलाके में कई और अवशेष हैं जो देखे जा सकते हैं। इन्हें देखने के लिए वक्त व धैर्य, दोनों चाहिए। नौगजा मंदिर के इर्द-गिर्द भी दीवारों व स्तंभों के कई अवशेष बिखरे पड़े हैं। स्थानीय भाषा में इन ध्वस्त पड़े मंदिरों के चबूतरों को देवरी कहा जाता है। इन देवरियों में सबके अलग-अलग नाम भी रख दिए गए हैं जो आम तौर पर स्थानीय स्तर पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ी कथा-कहानियों के आधार पर रहे होंगे।

नीलकंठ मंदिर के सामने ही एक अन्य मंदिर के भग्नावशेष

इस इलाके में देखने लायक कई और भी चीजें हैं। इन पुरातात्विक अवशेषों के अलावा यह घाटी प्राकृतिक रूप से भी बहुत सुंदर है। चारों तरफ घने जंगल हैं। मंदिर व इस इलाके के इतिहास के बारे में गांव वालों से बात करना बड़ा रोचक है। लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वो है यहां चारों तरफ घूमते मोर-मोरनियां। व्यक्तिगत रूप से मैंने एक साथ इतने मोर कहीं ओर नहीं देखे। वैसे राजस्थान के इस इलाके में मोर बहुत हैं। नीलकंठ के आसपास सरसों के खेतों में, रास्तों पर उड़ते-नाचते मोरों को देखना वाकई बहुत मन मोहने वाला है।

कैसे पहुंचे

अब जानकारी जरूरी मसलों की। नीलंकठ मंदिर, गांव और परिसर के अन्य मंदिर सरिस्का नेशनल पार्क के भीतर हैं। लेकिन यह सरिस्का टाइगर रिजर्व का कोर एरिया नहीं है, यह बफर एरिया में आता है। बाघ इस तरफ बेशक आ सकते हैं लेकिन आबादी होने के कारण इसकी संभावना काफी कम है। बाकी छोटे जानवर जरूर गांव के पास भोजन की तलाश में कभी-कभी इधर निकल आते हैं। संभवतया मंदिर के पुरातात्विक महत्व के कारण ही यह गांव रिजर्व के बाहर विस्थापित होने से बच गया।

लेकिन नीलकंठ मंदिर पहुंचने का रास्ता टाइगर रिजर्व के भीतर से नहीं है। यहां आने का एकमात्र रास्ता टहला होकर है। टहला में भी सरिस्का टाइगर रिजर्व का एक गेट है जहां से रिजर्व के भीतर सफारी के लिए जाया जा सकता है, लेकिन वो रास्ता अलग है। वैसे ज्यादातर सैलानी आम तौर पर सरिस्का के भीतर सफारी पर जाने के लिए मुख्य सरिस्का गेट का इस्तेमाल करते हैं। टहला सरिस्का गेट से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। अगर आप अलवर से सरिस्का गेट होते हुए आ रहे हों तो सरिस्का गेट से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर गोला मोड़ तिराहे आता है। यहां से एक रास्ता भानगढ़ और आगे दौसा चला जाता है। तीसरा रास्ता टहला होते हुए राजगढ़ और आगे बयाना की तरफ निकल जाता है। टहला गांव गोला मोड़ से लगभग 15 किलोमीटर आगे है। टहला से नीलकंठ लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है।

सरिस्का टाइगर रिजर्व के टहला गेट से पहले टहला गांव से ही एक रास्ता नीलकंठ की तरफ आगे निकल जाता है। यह जंगल का रास्ता है और कुछ गांवों को पार करते हुए पहाड़ी की तरफ निकल जाता है। टहला से कुछ दूर आगे निकलने पर दाईं ओर मानसरोवर बांध आता है। मानसरोवर बांध का जलाशय काफी बड़ा है और सर्दियों में यहां बड़ी तादाद में प्रवासी पक्षी आते हैं। मानसरोवर बांध को पीछे छोड़ते हुए आप आगे बढ़ते जाएं तो टहला से लगभग सात किलोमीटर बाद रास्ता पहाड़ी की तलहटी में पहुंच जाता है। उसके बाद रास्ता पहाड़ी चढऩे लगता है। पहाड़ी के नीचे तक तो रास्ता ठीक है लेकिन उसके बाद खराब हो जाता है। उस पर जीप सरीखे वाहन ही चढ़ पाते हैं। घुमावदार रास्ता पहाड़ी की चोटी पर पहुंचता है तो सामने एक किले का सा दरवाजा आ जाता है।

नीलकंठ मंदिर के बाहर नाथों की समाधियां

दरअसल पहाड़ी की धार पर सब तरफ एक दुर्ग की दीवार है। कहा जाता है कि यह राजौरगढ़ के नाम से जाना जाता था, यह दीवार उसी गढ़ की है। इस घाटी को राजौरगढ़ का पठार कहा जाता है। कभी यह पूरा इलाका ही पारानगर के नाम से भी जाना जाता रहा है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि यहां कभी पाराशर ऋषि का भी आश्रम हुआ करता था। भृतहरि ऋषि का तो इस इलाके में बताया ही जाता था, जिसके नाम से भृतहरि जगह है जो सरिस्का से टहला जाते वक्त रास्ते में आती है। दुर्ग की दीवार में जहां दरवाजा बना है, वहां एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। वहां अक्सर दिन के समय बड़ी संख्या में लंगूर जमा रहते हैं। बहरहाल, जब आप इस दरवाजे को पार करके नीचे जंगल के भीतर उतरते हैं तो थोड़ी दूर आगे चलने पर दाईं तरफ नीलकंठ गांव आता है। इसी गांव में से होकर दूसरी तरफ नीलकंठ मंदिर पहुंचा जा सकता है।

यहां रुकने की कोई जगह नहीं। इसलिए योजना ऐसी ही बनाएं कि शाम ढलते-ढलते यहां से वापस निकल जाएं। खाने-पीने के लिए भी कुछ मनमाफिक मिलना दूभर ही है। लेकिन हमने कई खालिस घुमक्कड़ों को ऐसे गांवों में स्थानीय लोगों से घुल-मिलकर उनके घरों में ही रात को रुकते-खाते देखा-सुना है। यहां की संस्कृति, जनजीवन, रहन-सहन को देखने समझने का इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता। इसके लिए बस संकोच की दीवार तोडऩी होती है।

नीलकंठ मंदिर परिसर का बाहर से नजारा

हमें कहीं कोई शुल्क या प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ा। मंदिर में मौजूद पुलिस चौकी के सिपाही मंदिर के भीतर फोटो खींचने से मना करते हैं। लेकिन विडंबना की बात यह है कि यह मनाही तभी नजर आती है जब आपके पास कोई बड़ा कैमरा गले में लटकता नजर आ जाए। आज तकनीक के इस दौर में आप मोबाइल से तो हर जगह फोटो खींच ही सकते हैं। लेकिन उसपर कोई रोक नहीं भले ही आपके मोबाइल का कैमरा सामान्य कैमरे से भी अच्छा क्यों न हो। बहरहाल, थोड़ी जिरह करने के बाद मुझे अपने कैमरे से फोटो खींचने की इजाजत मिल गई।

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