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आस्था और रोमांच का संगम है किन्नर कैलाश

कोविड-19 के दौर में पिछले कुछ महीनों से आना-जाना सब रुका था। अब कई राज्यों ने अपनी सीमाओं को सैलानियों के लिए खोल दिया है, जिनमें हिमाचल प्रदेश भी है। लिहाजा हम यहां ले चल रहे आपको एक ऐसी यात्रा पर जो हिमाचल के किन्नौर इलाके में जुलाई-अगस्त के महीनों में होती है- किन्नर कैलाश की यात्रा। अगर आप जा पाएं तो बेहद शानदार वरना, घुमा तो हम आपको इस लेख से दे ही रहे हैं

हिमाचल में यात्राओं का अपना ही रोमांच है लेकिन ये यात्राएं यदि रोमांच के साथ-साथ धार्मिक आस्था से ओत-प्रोत हों तो सोने पे सुहागा जैसी बात हो जाती है। पूरे साल भर अपने उफान में रहने वाली इन यात्राओं में कुछ एक ऐसी यात्राएं हैं जिन्हे तय कर पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। इन यात्राओं को वही शख्स पूरा कर सकता है जिसके पास गूढ़ आस्था, बुलंद हौसला, प्रकृति से प्रेम और कुछ कर दिखाने का जज्बा हो तथा जो रोमांच के पलों को जीने की तमन्ना रखता हो। ऐसी ही कठिन धार्मिक यात्राओं में से एक है किन्नर कैलाश यात्रा। जी हां, हम बात कर रहे हैं लगभग 35-40 फुट ऊंचे उस शिवलिंग की जो 6500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किन्नौर के लोगों की अटूट श्रद्धा व आस्था का प्रतीक है।

किन्नर कैलाश अर्थात किन्नौर वासियों का कैलाश। यह स्थान शिव के पौराणिक स्थानों में से एक माना गया है। लोगों के कथनानुसार इस स्थान पर शिव के आदेशानुसार सतलुज नदी को मानसरोवर से किन्नौर लाए थे। ताकि उस जहरीली नदी को फिर से इस्तेमाल योग्य बनाया जा सके जिसे पड़ोसी राज्य के शासक ने ढेर सारा जहर मिलाकर जहरीली बना दिया था।

रिकांगपिओ से किन्नर कैलाश चोटी का नजारा

यात्रा की शुरुआत

हिमाचल प्रदेष के जिला किन्नौर के मुख्यालय रिकांगपियो से लगभग 5 किमी नीचे सतलुज की ओर राष्ट्रीय उच्च मार्ग-22 पर स्थित पोवारी नामक स्थान से आप यात्रा की शुरुआत करते हैं। पोवारी से हमें उस चट्टान की गुफा तक पहुंचना था जहां रात को यात्री ठहरते हैं। यह चट्टान पोवारी से लगभग 12 किमी की दूरी पर किन्नर कैलाश की आधी ऊंचाई पर थी। इसके बाद पार्वती कुंड आता है जो गुफा से लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर है। पार्वती कुंड से किन्नर कैलाश शिवलिंग की दूरी लगभग अढ़ाई किमी है।

पहाड़ों के पुरातन बाशिंदे

रोमांच का सफर

पोवारी से आपको उफनती सतलुज नदी को पार करना होता है जिसे झूले द्वारा पार किया जाता है। यहीं से इस यात्रा का रोमांच शुरु हो जाता है। झूला आपको तंगलिंग गांव की सरहद तक पहुंचाता है। अब पुल का निर्माण भी हो चुका है। यदि आप चाहें तो पुल द्वारा भी तुगलिंग पहुंच सकते हैं। तंगलिंग गांव किन्नर कैलाश पर्वत श्रृंखला की तलहटी पर बसा एक सुंदर गांव है। सेब, चूली, खुमानी, बादाम, न्योजे आदि फलों से भरपूर इस गांव से होते हुए जब हम थोड़ा ऊपर पहुंचते हैं तो सांस यहीं से फूलने लग जाती है। घर वापिस आने को मन करता है। लेकिन अटूट आस्था हमारे कदमों को विराम नहीं लगने देती। आगे की यात्रा जितनी कठिन होती जाती है उतनी ही वह और ज्यादा रोमांचक बनकर हमें प्रकृति के विविध नजारों से भी रु-ब-रु करवाती है। तंगलिंग गांव के आगे और कोई गांव या घर नहीं आता। आगे की यात्रा सुनसान जंगल से होकर तय करनी पड़ती है। जहां तंगलिंग गांव की सीमा समाप्त होती है वहीं से दूसरी खड़ी पहाड़ी शुरू हो जाती है जिससे होकर हम किन्नर कैलाश पहुंचते हैं। इसी पहाड़ी की तलहटी से होकर एक छोटा-सा नाला बहता है जो किन्नर कैलाश की आस-पास की पहाडिय़ों से बर्फ पिघलने के कारण साल भर बहता रहता है। याद रहे इस नाले से हमें अपने साथ पीने के लिए पानी लेकर चलना पड़ता है क्योंकि आगे के इस पहाड़ी के 5-6 घंटे की कठिन यात्रा के दौरान आपको कहीं भी पानी नसीब नहीं होता। न्योजे और देवदार के जंगल के बीच से इस खड़ी चढ़ाई को तय करने के उपरांत जब हम पहाड़ी के शीर्ष पर पहुंचते हैं तो हमें धूप की झाडिय़ों का दीदार होता है। जो हमें ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी अफ्रीकन के सिर पर छोटे-छोटे घुंघराले बाल। इस पूरी पहाड़ी को ‘दर्शन पार्क’ के नाम से जाना जाता है। अगर आप इस शीर्ष से थोड़ा दूसरी तरफ ढलान की ओर रुख करें तो हम स्वंय को भोजपत्र के पेड़ों से घिरा पाते हैं। इस पहाड़ी के ऊपर से आप अपने सामने जिला मुख्यालय रिकांगपिओ और कल्पा को बौना पाते हैं। अभी हमारी आधी यात्रा तय नहीं हुई है। इसके बाद हम दूसरी पहाड़ी के हिस्से को छूते हैं लेकिन अब आगे की यात्रा में आपको कोई पेड़ या झाड़ी नजर नहीं आएगी। यहां से आगे हमें उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों के नजारे होते हैं जो कि बर्फ पिघलने के उपरांत धरती से प्रस्फुटित होती है। गंजी पहाडिय़ों पर इसके अलावा हमें अजीब किस्म के सुदंर व रंग-बिरंगे तरह-तरह के फूलों की चादर बिछी नजर आती है जिसे कोई भी शख्स अपने कैमरे में कैद किए बगैर नहीं रह पाता। इसी ऊंचाई पर और इन्ही खूबसूरत फूलों के बीच हम उस पवित्र ‘ब्रह्म कमल’ का भी दीदार करते हैं जिसे यहां के लोग इतनी ऊंचाई पर जाकर विशेष तौर पर लाते हैं ताकि वे इस कमल को अपने गांव में लगने वाले मेले के दौरान या फिर मंदिर में ही अपने देवी-देवता के चरणों में चढ़ा सकें।

सतलुज नदी को पार करने का तरीका

नीचे की ओर ढलानदार रास्ता तय करने के उपरांत हम फिर उसी नाले के पास पहुंच जाते हैं जिसका पानी हम पिछली पहाड़ी की तलहट्टी से अपने साथ लेकर चले थे। लेकिन यहां नजारा बदल जाता है। बर्फीले पानी की तेज धार के साथ आपको जुलाई-अगस्त के गर्म महीने में भी नाले के साथ बर्फ जमी नजर आएगी। आगे की यात्रा के लिए अब हमें इसी नाले से पानी भरना पड़ता है। नाले से एक बार फिर चढ़ाई शुरू हो जाती है जो हमें उस विशालकाय चट्टान के नीचे बनी उस गुफा के पास तक ले जाती है जहां हमारा रात्रि विश्राम होता है। इस पूरी पेड़-पौधों रहित, खूली, नंगी जगह पर यह चट्टान एक डेरे से कम नहीं है। इस गुफा पर पहुंचते ही हमारी किन्नर कैलाश की आधी यात्रा तय हो जाती है। इस गुफा में एक साथ बीस-पच्चीस लोग आराम से रुक सकते हैं। इसी के साथ ऐसी तीन-चार गुफाएं और भी हैं। एक दो गुफाओं पर पुआलों ने इस मौसम में अपनी भेड़- बकरियों के साथ डेरा जमाया होता है। यहां से जब आप नीचे पहाड़ी के धरातल पर नजर दौड़ाएं तो उठते बादलों के कारण हम पल में ही खुद को धुंध से घिरा पाते हैं। चारों तरफ बादलों की सुंदर परिकल्पनाएं मन को मोह लेती हैं। ऐसा लगता है जैसे हम आकाश में विचरण कर रहे हैं। इस पूरे इलाके को ‘गणेष पार्क’ की संज्ञा से नवाजा जाता है।

चमत्कार कुछ ऐसा भी

रात को यदि आप गुफा के बाहर निकलकर आस-पास के क्षेत्र को निहारें तो आपको जड़ी-बूटियों के उस अनमोल खजाने के दर्शन हो सकते हैं जिन्हें हम रामायण के उस खण्ड में देखते हैं जब हनुमान हिमालय से संजीवनी बूटी लाने के लिए जाते हैं और टिमटिमाती जड़ी-बूटियों को देखकर भ्रमित हो उठते हैं। यदि आपकी किस्मत अच्छी हुई तो आपको भी यहां रात को अपने आस-पास ऐसी ही चमत्कारिक व दुर्लभ जड़ी-बूटियां दिखाई दे जाएंगी जिनसे प्रकाश फूट रहा होता है।

किन्नर कैलाश का रास्ता

गुफा से आगे किन्नर कैलाश तक पहुंचने के लिए अभी हमें लगभग छ: घंटे की और यात्रा शेष रह जाती है। लेकिन आगे की यह यात्रा पिछले दिन की यात्रा के मुकाबले ज्यादा कठिन और जोखिम भरी है। आगे का रास्ता हमें बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच में से होकर तय करना होता है। थोड़ा सा भी मौसम खराब हुआ नहीं कि आपको अपनी आगे की यात्रा स्थगित करनी पड़ सकती है। एक तो यहां बारिश नाममात्र की होती है लेकिन यदि थोड़ी सी भी बूंदा-बांदी हुई तो समझो आपकी जान को खतरा है। पहाड़ी से पत्थरों का सैलाब आप पर बरस सकता है। ऑक्सीजन की कमी तो यहां साफ झलकती है। दस कदम चलने के बाद आपकी सांस फूलने लग पड़ती है। धड़कन धौंकनी की तरह दौड़ने लग जाती है। गुफा के आगे लगभग एक-डेढ़ घंटे की इस कठिन खड़ी डगर पर चलने के उपरांत हम एक चौड़े, विस्तृत व समतल से नजर आने वाले मैदान का सामना करते हैं जो बड़ी-बड़ी चट्टानों के जंगल से भरा पड़ा है। ये चट्टानें आस-पास की पहाडिय़ों से टूट कर इस क्षेत्र में जमा हुई हैं। इन्ही चट्टानों के बीच में से होकर हमें आगे का रास्ता तय करना पड़ता है। इन बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से रास्ते का पता हमें वे छोटे-छोटे पत्थर देते हैं जो कुछ कदम पर किसी न किसी आगे आने वाली चट्टान पर तीन से पांच तक की संख्या में एक के ऊपर एक चिनाई किए होते हैं।

यात्रा का यह हिस्सा हमें और ज्यादा रोमांच से भर देता है और प्रकृति के एक अन्य रुप से रु-ब-रु करवाता है। इस स्थान पर पहुंचते-पहुंचते जैसे हमारी हिम्मत ही जबाब देने लग जाती है। लेकिन अगाढ़ श्रद्धा का जोश हमारा हौंसला पस्त नहीं होने देता। चट्टानों पर छलांगे मार-मार कर जब हम आगे का रास्ता नापते हैं तो हमें चट्टानों के इस जंगल में पानी के छोटे से ताल के दर्शन होते हैं। जिसे यहां के लोग ‘पार्वती कुंड’ कहते हैं। यहां पूजा-अर्चना करने के उपरांत  हमारे कदम एक बार फिर किन्नर कैलाश की ओर बढ़ जाते हैं।

पार्वती कुंड

मैदान की बड़ी-बड़ी चट्टानों को छोड़ अब हम रुख करते हैं पत्थर के पहाड़ की ओर। जहां से किन्नर कैलाश की यात्रा में एक नया रोमांच जुड़ जाता है। वह स्थान जहां से किन्नर कैलाश तक के लिए लगभग आधे घंटे की यात्रा शेष रह जाती है वहां तापमान में एकदम गिरावट आ जाती है। ठंड के मारे सारा शरीर इन गर्म महीनों में भी थरथराने लगता है। लेकिन शिवलिंग के दर्शन की अभिलाषा हमारे शरीर को एक अनोखी ऊर्जा से चलाएमान रखती है और कुछ ही पलों में हम वहां पहुंच जाते हैं जहां पहुंचते- पहुंचते न जाने कितनी बार हमारी हिम्मत लडख़ड़ाती है।अब हमारे सामने होता है लगभग 35-40 फुट का विशालकाय शिवलिंग जो किन्नौरवासियों की अटूट आस्था व अगाढ़ श्रद्धा का प्रतीक है। इस पहाड़ी के शिखर पर अकेला सीधा खड़ा यह विषालकाय शिवलिंग किसी चमत्कार से कम नहीं है। शिवलिंग के आधार तक पहुंचने के लिए हमें लगभग 5 मीटर लंबी व लगभग तीन फुट चौड़ी पत्थर की पट्टिका के ऊपर से गुजरना पड़ता है। चारों तरफ से खुले इस क्षेत्र में हवा इतनी अधिक होती है कि आदमी को उड़ा ले जाए। व्यक्ति जरा सा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि उसे हजारों फुट गहरी खाई का सामना करना पड़ सकता है। किन्नर कैलाश की इस चोटी से हमें रिब्बा, जंगी आदि गांव के साथ-साथ पूह की तरफ की उन नंगी पर्वतमालाओं के दूर-दूर तक दर्शन होते हैं जो पेड़ रहित रेत की ढेरियों की तरह नजऱ आती हैं। इसी चोटी की दूसरी तरफ की चोटियां इन गर्मी के महीनों में भी बर्फ से लदी रहती हैं जहां से बर्फ के पिघलने के साथ-साथ चट्टानों का टूट कर गिरना चला रहता है। परंतु शिवलिंग के दर्शन करते ही मानो सारी थकान एक पल में ही छुमंतर हो जाती है। हिमाचल के कोने-कोने व बाहर के प्रदेशों से आने वाले श्रद्धालु जब शिव के चरणों में शीश नवाते हैं तो उन्हे एक अलग प्रकार की संतुष्टि व आनन्द की अनुभूति होती है।

शिवलिंग की संरचना

यदि हम इस शिवलिंग की सरंचना की बात करें तो इसे आप अपने हाथ की उंगलियों के जरिए भी समझ सकते हैं जो हुबहु वैसी ही है। आप अपने हाथ की सभी उंगलियों को मिला लें और अंगूठे को सीधा खड़ा कर लें। अंगूठे को आप शिवलिंग मान लें तो अंगूठे के साथ लगती सबसे ऊपर की उंगली के एक छोर से दूसरे छोर तक शिवलिंग के आधार तक जाने का रास्ता बन जाएगा।

किन्नर कैलाश के रास्ते में कैंपिंग

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सहारा लें तो शिवलिंग के आस-पास की भौगोलिक सरंचना एक अलग तथ्य प्रस्तुत करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी समय यह एक चपटी सीधी खड़ी चट्टान थी जो समय के बहाव के चलते धीरे-धीरे टूटती चली गई और इसका एक अंतिम छोर जो वर्तमान में शिवलिंग की आकृति प्रस्तुत करता है शेष बचा रह गया है। चट्टान का जो हिस्सा टूट चुका है वर्तमान में उस हिस्से ने एक रास्ते की शक्ल अख्तियार कर ली है जो हमें शिवलिंग के आधार तक पहुंचाता है। लेकिन चाहे कारण कुछ भी रहा हो। इन तथ्यों से शिवलिंग के प्रति लोगों की श्रद्धा व आस्था में जरा भी अंतर नहीं आता।

परिक्रमा

किन्नर कैलाश के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने का एक और जरिया भी है किन्नर कैलाश की परिक्रमा। श्रद्धालु किन्नर कैलाश की परिक्रमा कर खुद को धन्य मानते हैं। यदि आप रिकांगपिओ से परिक्रमा आरंभ करें तो यह पंगी, रिब्बा, रिस्पा, जंगी, मूरंग, ठंगी, लम्बर, रंगरिक टुंडमा, लालंती, छितकुल, सांगला, कड़छम से होते हुए रिकांगपिओ में समाप्त होती है। यह परिक्रमा काफी कठिन व मुश्किल भरे रास्तों से होकर गुजरती है। इस परिक्रमा के दौरान हमें किन्नौर की अनुठी संस्कृति, मेले, त्योहार व यहां की सामाजिक व्यवस्था को देखने तथा यहां के इतिहास से रु-ब-रु होने का मौका मिलता है। पहले इस परिक्रमा को पूर्ण करने में छह-सात दिनों का समय लग जाता था लेकिन अब इस पैदल यात्रा के रास्ते कई स्थानों पर सड़क सुविधा होने की वजह से इस परिक्रमा का कुछ हिस्सा गाड़ी द्वारा भी तय किया जा सकता है। जिस कारण यह यात्रा केवल तीन-चार दिन की रह गई है। तो आइए चलें, हिमाचल की सुंदर वादियों में किन्नौर जि़ला की ओर, किन्नर कैलाश की पावन यात्रा पर।

किन्नौर निवासी अपनी मूल वेशभूषा में

खास बात: शिवलिंग की एक खास बात है कि यह दिन में सूर्य की स्थिति के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है। सुबह यह शिवलिंग यदि भूरा होगा तो दोपहर को यह शिवलिंग लालिमा लिए रहता है और शाम को ग्रे रंग में परिवर्तित हो जाता है। विद्वान इस शिवलिंग को बद्रीनाथ कहकर पुकारते हैं।

यात्रा का समयः लगभग सात महीने बर्फ से लदी इन चोटियों पर पहुंचना खतरनाक है। किन्नर कैलाश की यात्रा का सही समय जुलाई के अंत से शुरू होकर अगस्त अंत तक सबसे उपयुक्त है।यात्रा के दौरानपिछले कई सालों से यहां पर किन्नर कैलाश कमेटी द्वारा लंगर व मेडीकल सुविधा के साथ पुलिस हेल्पलाइन की सुविधा भी प्रदान की जा रही है। लंगर की व्यवस्था यात्रा के सबसे निचले पायदान अर्थात यात्रा के शुरू में ही रहती है।

क्या-क्या ले जाएं

जितने दिन आप अपनी यात्रा में लगाते हैं उतने दिन का खाने का सामान वैसे भी आप अपने साथ ले जाएं तो बेहतर रहेगा क्योंकि यहां आपको आगे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं मिलेगी कि जहां से आप यात्रा के दौरान कोई वस्तु खरीद सकें। दूसरी बात गर्म कपड़े तो आपको अपने साथ रखने ही होंगें। यहां का मौसम पूरे साल भर ठंडा ही रहता है। पानी की बोतल को पर्वत से आने वाली धारा से खत्म होते ही भरते रहें क्योंकि इस बेहद थका देने वाली यात्रा में आपको पानी की हर कदम पर जरूरत महसूस होती रहेगी।

कैसे पहुंचे: सड़क द्वारा रिकांगपिओ पहुंचने के लिए आपको राष्ट्रीय उच्च मार्ग-22 (जिसे हिन्दुस्तान-तिब्बत मार्ग भी कहा जाता है) अख्तियार करना होता है। शिमला से रिकांगपिओ के लिए दिन-रात बस सुविधा है। शिमला से रिकांगपिओ की दूरी 231 किमी है। रिकांगपिओ के लिए निकटतम हवाई अड्डा जुब्बड़हट्टी (शिमला) में है और निकटतम रेलवे स्टेशन भी शिमला है। यानी शिमला पहुंचने के बाद तो आगे का रास्ता आपको सड़क से ही पूरा करना होगा।

कहां ठहरें: रिकांगपिओ व ऊपर कल्पा में यात्रियों के ठहरने का उचित प्रबंध है। होटलों के साथ-साथ, पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाऊस, सरायं भवन, सर्किट हाऊस, सराएं व अन्य ठहरने योग्य उचित भवन हैं।

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