Sunday, November 24
Home>>सैर-सपाटा>>विदेश>>एशिया>>ड्रैगन के देश में

भूटान के बॉर्डर के नजदीक का आखिरी रेलवे स्टेशन हासिमारा। यहां से लोकल टैक्सी के सहारे पश्चिम बंगाल के जयगांव। भूटान के बॉर्डर पर भारत का आखिरी शहर। फिर जयगांव से टहलते हुए एक दीवार पार करते ही भूटान के फुंटशोलिंग शहर में। यानी ड्रैगन के देश में। कितना आसान और कितना सहज। भारतीय पर्यटकों के लिए देश के किसी हिस्से की सैर की तरह विदेश का पर्यटन। जयगांव और फुंटशोलिंग के बीच कोई फासला नहीं है। है तो बस बीच की एक दीवार, जो भारत और भूटान की सीमा रेखा है। एक गेट के सहारे इस पार से उस पार और उस पार से इस पार करते हुए यहां दो देशों की संस्कृतियों के बीच का जीवन दिखता है। इन दोनों शहरों के बीच दिन में बिना किसी परमिट के आना-जाना किया जा सकता है। लेकिन जब यहां से सड़क के रास्ते भूटान की यात्रा पर निकलने की बारी आती है, तो फुंटशोलिंग से ही परमिट बनवाना पड़ता है।

भूटान की राजधानी थिम्फू

भूटान की यात्रा जितनी रोमांचक है, उतनी ही आसान। पारो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से या फिर फुंटशोलिंग होकर सड़क मार्ग से यात्रा की शुरुआत की जाए, इस आसान यात्रा में रोमांच, मस्ती और अद्भुत प्राकृतिक नजारों की कोई कमी नहीं है। हिमालय की गोद में बसा भूटान कुछ दशक पहले तक विदेशियों के लिए वर्जित था। सड़क नहीं होने से यहां पहुंचना भी आसान नहीं था। लेकिन अब यह देश पर्यटन और ट्रेकिंग के शौकिन लोगों के लिए एक खूबसूरत ठिकाना बन गया है। मई से अक्टूबर अंत तक, बर्फ गिरने से पहले और कुछ बाद तक भी, इस देश की यात्रा न भूलने वाली स्मृतियों का पिटारा बन जाती है। इकलौते एयरपोर्ट वाले शहर पारो, राजधानी थिम्फू, पुनाखा सहित कई अन्य स्थानों को याद करते हुए अक्सर ही खो जाते हैं। एक बार की यात्रा हमें बार-बार बुलाती है।

भूटान का दूसरा सबसे बड़ा शहर पारो

मेरी यात्रा की शुरुआत सड़क मार्ग से ही हुई। जब आप साल में कई जगहों पर घुमने का प्लान बना रहे हो, तब बजट पर अक्सर ध्यान चला ही जाता है। भूटान का पर्यटन उतने धन में आसानी से किया जा सकता है, जितने में अपने शहर से बाहर नजदीक के किसी पर्यटन स्थल पर खर्च हो जाता है। यानी महज 15 हजार से 25 हजार रुपये। हां, पर इसके लिए कुछ दोस्तों का समूह होना चाहिए, ताकि कुछ खर्चों को साझा किया जा सके। सिलीगुड़ी या अलीपुर द्वार होते हुए हासिमारा पहुंच कर वहां से जयगांव के लिए छोटे वाहन आसानी से मिल जाते हैं। फिर वहां से टैक्सी या छोटी बस को रिजर्व किया जा सकता है।

जब हम लोग जयगांव पहुंचे, तो दोपहर हो चुकी था। हमें परमिट के लिए फुंटशोलिंग जाना था। दोनों ही शहरों को पैदल ही नापा जा सकता है। भूटान में भारतीय नागरिकता के लिए पासपोर्ट के अलावा वोटर कार्ड भी मान्य है। जब परमिट के लिए इमिग्रेशन डिपार्टमेंट पहुंचे, तो विदेश में होने का जो भी अहसास होता हो, पर यहां जो हुआ, वह हमारे लिए आश्चर्यजनक था। बॉर्डर के इस ओर सड़कों पर गंदगी का अंबार लगा हुआ था और उस तरफ सड़कें ऐसी, मानो उस पर चादर डाल कर सोया भी जा सके। खैर, जब तक परमिट की प्रक्रिया पूरी हुई, तब तक शाम हो चली था। इस बीच हमने तंबाखू और सिगरेट से मुक्त देश में नशे का ऐसा फल देखा, जिसे नशे की श्रेणी में नहीं रखा गया था। डूमा यानी कच्ची सुपाड़ी। हमने कुछ ही देर में कहना शुरू कर दिया – डूमा, सिर घुमा। फुंटशोलिंग में हम एक बौद्ध मंदिर भी गए। वहां हमने देखा कि सिर्फ गर्भ गृह छोड़कर कहीं जूते-चप्पल उतारने की जरूरत नहीं पड़ती। चढ़ावे में कुछ भी। जो मनुष्य खा-पी सकता है वह सब। बिस्कुट, चॉकलेट, चिप्स से लेकर वाइन तक। पहले ही दिन यहां पता चल गया कि मंदिर के नाम पर कोई दिखावा नहीं। एक सहज और शांत जगह। लाउडस्पीकर का शोर नहीं। धम्म चक्र घुमाकर या धर्म ध्वाजा लहराकर धार्मिक माहौल का आनंद लिया जा सकता है।

पारो स्थित भूटान का एकमात्र अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा

हम लोग जयगांव होटल आ गए। रुकने की व्यवस्था दोनों ओर है लेकिन जयगांव कुछ सस्ता है। पहले दिन जयगांव और फुंटशोलिंग में टहलने का आनंद लिया। अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद पारो के लिए रवानगी हो गई। कुछ लोग पहले थिम्फू और पुनाखा होकर पारो आते हैं। यहां सभी ने अपने-अपने गरम कपड़े निकाल लिए। ड्राइवर, जो कि गाइड भी था, उसने बताया कि महज 5-6 किलोमीटर पहाड़ी पर चढ़ने के बाद ही ठंड लगने लगेगी। फुंटशोलिंग होकर भूटान में आगे बढ़ते ही जांच चौकी से पहले दायीं ओर एक छोटा मठ था। भारत को छोड़ते हुए यहां से पहाड़ के नीचे जयगांव को देखा जा सकता है। यहां से भूटान में होने का रोमांच बढ़ने लगता है। एक ओर खूबसूरत घाटियां, तो दूसरी ओर ऊंचे पहाड़। कहीं बारिश, तो कहीं हल्की धूप। पर गरमी तो पीछे भारत में छूट चुकी थी।

थिम्फू स्थित मेमोरियल चोर्टेन

दोपहर में खाने के लिए एक रोड साइड रेस्टोरेंट पर रुकना हुआ। खाना कुछ खास महंगा नहीं। नन वेज हो या फिर वेज, जो खाना हो आराम से खाइए। थोड़ा सुस्ताने के बाद फिर आगे की यात्रा। और शाम होते-होते पारो शहर में। इस बीच छोटे-छोटे गांव, सड़क किनारे शेड में दुकानों, शिक्षण संस्थानों और खूबसूरत नजारों को देखते हुए झपकी तक नहीं आई। पारो शहर में जाने से पहले भूटान के इकलौते इंटरनेशनल एयरपोर्ट को देखने का मौका मिला। नदी के किनारे स्थित एक छोटी हवाई पट्टी लेकिन बहुत ही खूबसूरत। पारो शहर में घुसते ही, शहरों की बनी-बनाई छवि धराशायी हो गई। न गाड़ियों की रेलमपेल, न चिल्लम पों, न होर्डिंग-बैनर, न सड़क किनारे ठेले-गुमठी और न ही हॉकर कॉर्नर। चंद गाड़ियां और पैदल आते-जाते लोग। सारी दुकानें पक्की दुकानें। दुकान का बोर्ड, सिर्फ उस दुकान के आगे। और हर दुकान पर भूटान के राजा का फ्रेम किया हुआ एक फोटो। पारो शहर के पार्क के किनारे सिर्फ महिला सूप लेकर बैठी थी। उसने बताया कि वह गरीब है। दुकान के लायक उसके पास पैसे नहीं है। गांव में खेती थी। भूटान में सभी रेस्टोरेंट में बार हैं। दुकानें आमतौर पर महिलाओं के हवाले ही रहती हैं। बार होने के बावजूद रेस्टोरेंट में परिवार और महिलाओं के साथ बैठने में असहजता नहीं होती।

भूटान में कई जगह से दिखता है हिमालय की बर्फीली चोटियों का नजारा

पारो में अगले दिन हम अलस्सुबह टाइगर्स नेस्ट मॉनेस्ट्री की ओर रवाना हो गए। टाइगर्स नेस्ट यूनेस्को की वैश्विक धरोहर में शामिल है। यहां जाने के लिए पैदल ही जाना होता है। राजा भी पैदल ही जाते हैं। लगभग पांच किलोमीटर पहाड़ की चढ़ाई और फिर उतनी ही वापसी। हां, आधे रास्ते तक घोड़े भी जाते हैं, पर वापसी उनसे संभव नहीं, क्योंकि खड़े पहाड़ होने से घोड़े की पीठ पर संतुलन बनाना संभव नहीं। लेकिन रोमांचप्रेमियों के लिए पैदल जाना बहुत ही रोमांचकारी होता है। आधे रास्ते पर बना कैफेटेरिया थोड़ा दम लेने के लिए पर्याप्त है। यदि थकान के कारण आगे बढ़ना संभव नहीं, तो यहां से टाइगर्स नेस्ट का मनोहारी नजारा लिया जा सकता है। लेकिन बिना टाइगर्स नेस्ट गए, भूटान की यात्रा कुछ खालीपन छोड़ सकती है। टाइगर्स नेस्ट पहुंचकर महसूस होता है कि इसकी यात्रा क्यों जरूरी है, इसे विश्व धरोहर का तमगा क्यों दिया गया और यह भूटान की शान क्यों है। बहुत ही सुकून का माहौल। चारों ओर प्रकृति के विहंगम दृश्य और आध्यात्मिक वातावरण। जाने के बाद लौटने का मन नहीं करता है। यहां मठ में प्रवेश से पहले परमिट की कॉपी दिखानी पड़ती है। इसे साथ रखना होता है। ट्रैकर्स टाइगर्स नेस्ट की यात्रा आधे दिन में पूरी कर सकते हैं लेकिन इसे एक दिन के कार्यक्रम में रखना ज्यादा बेहतर है।

थिम्फू में स्थित गौतम बुद्ध की विशाल प्रतिमा

दोपहर बाद पारो लौटने पर हमने वहां के नेशनल म्यूजियम की ओर रुख कर दिए। नेशनल म्यूजियम में भोपाल की संस्कृति, प्रकृति, वन संपदा, वन्य जीव, इतिहास, भूगोल सभी के बारे में समझने का मौका मिलता है। भूटान के राष्ट्रीय नृत्य छाम का वीडियो लगातार चलता है, जहां बैठकर लोक नृत्य का मजा लिया जा सकता है। पुरातत्व की वस्तुएं भी यहां प्रदर्शित की गई हैं। हिमालयन क्षेत्र में रहने वाले वन्य जीवों को देखकर रोमांचित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। नेशनल म्यूजियम से बाहर आकर पारो के महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक जोंग रुग्याल जोंग और रिनपुंग जोंग में से किसी एक सैर की जा सकती है। जोंग के अंदर की नक्काशी सम्मोहित कर देती है।
पारो में अगले दिन की यात्रा चेलेला पास की थी। चेलेला पास 3822 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मौसम साफ रहने पर यहां से हिमालय की बर्फीली चोटियों का जादुई नजारा दिखता है। इस चोटी के चारों ओर गहरी खाइयां हैं। यहां लहराती हुई धर्म पताकाओं के बीच घंटों बिताए जा सकते हैं।

नदी किनारे से पुनाखा जोंग का मनोहारी दृश्य

यहां से लौटकर थिम्फू की ओर रवाना हो गए। इस बीच कीचू जोंग जाना नहीं भूला जा सकता है। यह यहां के पुराने मठों में से एक है, जिसे 7वीं सदी में बनाया गया था। इन दोनों जगहों को घूमकर थिम्फू पहुंचते-पहुंचते शाम हो चली थी। शाम को थिम्फू में चोर्टेन मेमोरियल घूमने का मौका मिला। इस बीच स्कूल से वापस लौट रहे स्कूली बच्चे दिखे, जो भूटानी ड्रेस में थे। स्कूल बस के बिना पैदल जाते बच्चे शहरों में अब नहीं दिखाई देते, लेकिन भूटान की राजधानी थिम्फू में यह संभव है। रात को थिम्फू की एक सामान्य सैर की जा सकती है। कुछ खरीदारी भी की जा सकती है। यहां घूमते हुए पता चलता है कि चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है। गाड़ी चलाने वाले नियमों को सख्ती से पालन करते हैं। पैदल यात्री जेब्रा क्रॉसिंग से ही सड़क पार करते हैं और जब वे उस पर होते हैं, तो दोनों ओर की गाड़ियां रुक जाती हैं। एक्सिडेंट में जानवरों के घायल होने पर उनका इलाज करवाना पड़ता है। भूटान के लोगों में पर्यटकों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार रहता है। दुकानों पर कुछ नहीं खरीदने पर भी उनमें नाराजगी नहीं दिखती। राह चलते बात करने पर वे रुककर बात करते हैं, जवाब देते हैं।

डोचुला स्थित 108 स्तूपों वाला रुम वांग्याल चोर्टेन

अगले दिन हम पुनाखा की ओर रवाना हुए। रास्ते में डोचुला पास तो रुके बिना आगे बढ़ना संभव कैसे हो, जब यहां से खूबसूरत हिमालय दिखाई पड़ता हो। बर्फीली चोटियों को कैमरे में कैद करने, सेल्फी लेने और प्रकृति की अद्भुत रचनाओं को आंखों में बसाने के बाद ही यहां से आगे बढ़ा जा सकता है। यहां 108 स्तूपों वाला रुम वांग्याल चोर्टेन भी है। जो बहुत ही आकर्षक है।

पुनाखा में स्थित केंद्रीय विद्यालय के सामने एक पार्क है, जो पो चू और मो चू नदियों के संगम पर जोंग से थोड़ा पहले स्थित है। यहां के बच्चे पार्क में जाने पर प्रति व्यक्ति 10 रुपये शुल्क ले रहे थे, जिसे स्कूल के विकास फंड में जमा किया जाता है। बच्चे पार्क में पढ़ रहे थे। काम कर रहे थे। कुछ बच्चे एक-दूसरे का बाल भी काट रहे थे। पढ़ने का एकदम खुला माहौल। भूटान के बारे में बात करने में भी बच्चे पीछे नहीं थे। पुनाखा में स्थित प्राचीन जोंग, जिसे 1637 में बनाया गया था, स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। पुनाखा भूटान की राजधानी भी रह चुकी है। मो चू और पो चू नदियों के संगम पर होने के कारण यहा जोंग बहुत ही आकर्षक दिखता है। ये दोनों नदियां हिमालय के ग्लेशियर्स से निकलती हैं। इनका पानी बहुत ही ठंडा होता है। पुनाखा जोंग इतना बड़ा है कि इसे घूमते हुए आधा दिन निकल जाता है। यहां नदी में राफ्टिंग भी की जा सकती है।

पुनाखा के सेंट्रल स्कूल में भूटानी बच्चे

यहां से वापस थिम्फू लौटने में रात हो जाती है। रात को बाजार घूमना या आराम करना अपनी मर्जी पर है। अगले दिन सुबह थिम्फू शहर स्थित जोंग, नेशनल लाइब्रेरी, बाजार और स्टेडियम को घूमा जा सकता है। थिम्फू शहर के ऊपर एक पहाड़ पर गौतम बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है। यहां जाकर पूरे थिम्फू का पैनोरेमिक नजारा देखा जा सकता है। यह विशाल प्रतिमा बहुत ही बेजोड़ और सम्मोहनी दिखती है। स्टेडियम में सुबह के समय भूटान के राष्ट्रीय खेल तीरंदाजी को देखा जा सकता है। इस तरह भूटान की इस छोटी यात्रा का यहां समापन किया गया।

भूटान की यह छोटी यात्रा वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक स्थानों की एक सामान्य झलक हमें दिखला देती हैं। लेकिन भूटान में और भी बहुत कुछ है, जहां जाना एडवेंचर प्रेमियों और ट्रैकर्स के लिए ही संभव है। भूटान का पर्यटन विभाग ट्रैकिंग भी करवाता है। भूटान की यात्रा एक बार में पूरी नहीं की जा सकती है। यहां एक बार जाने के बाद कई बार जाने की इच्छा खुद-ब-खुद हो जाती है।

तीरंदाज़ी यहाँ का राष्ट्रीय खेल है

भूटान की राजशाही और वहां के लोग

भूटान का स्थानीय नाम द्रुक यू है यानी ड्रैगन का देश। यहां की कुल आबादी लगभग 8 लाख है और क्षेत्रफल 38394 वर्ग किलोमीटर है। भूटान की राजधानी थिम्फू है। भूटान का राजप्रमुख राजा यानी द्रुक ग्यालपो होता है। इस समय जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक भूटान के राजा हैं। भूटान नरेश की पहल पर 2008 से देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है। यहां मुख्य रूप से दो राजनीतिक पार्टियां हैं। भूटान की संसद शोगडू में 154 सीटें होती हैं, जिनमें स्थानीय रूप से चुने गए 105 प्रतिनिधि, 12 धार्मिक प्रतिनिधि और राजा द्वारा नामांकित 37 प्रतिनिधि होते हैं। भूटान में 17वीं सदी से बौद्ध धर्म को अपनाया गया है। भूटान में बौद्ध धर्म की महायान शाखा आधिकारिक धर्म है। भूटान की विदेश नीति व रक्षा नीति में भारत की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है।

शाम के समय पारो बाजार का दृश्य

भूटान की लगभग आधी आबादी भूटान के मूल निवासी गांलोप समुदाय की है। यहां नेपाली मूल के लोगों की संख्या काफी है। भारतीय भी हैं। यहां के घरों को ड्रक युल कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बर्फीले ड्रैगन का घर। देश की ज्यादातर आबादी छोटे गांवों में रहती है और कृषि पर निर्भर है। यहां की आधिकारिक भाषा जोंगखा है। भूटानी मुद्रा नोंग्त्रुम है। तीरंदाजी यहां का राष्ट्रीय खेल है। लाल चावल, काली मिर्च व चीज से बना स्ट्यू एमा दात्शी भूटान का राष्ट्रीय व्यंजन है। भूटान में 1999 से पहले टीवी व इंटरनेट नहीं था। कुछ दशक पहले तक यहां विदेशी पर्यटन पर रोक थी। यहां के 72 फीसदी हिस्से में जंगल है। यह दुनिया का इकलौता देश है जो कार्बन उत्सर्जन रोकने में कामयाब है। यहां लुप्तप्राय जीव को मारने पर उम्र कैद की सजा दी जाती है। बिजली, कृषि और पर्यटन आय के मुख्य स्रोत है। यहां विकास का पैमाना जीडीपी नहीं, ग्रॉस नेशनल हैप्पिनेस यानी सकल राष्ट्रीय खुशी है। भूटान में शिक्षा व स्वास्थ्य मुफ्त है। अपराध न के बराबर है। यहां प्लास्टिक की थैलियों पर पूरी तरह रोक है। 2004 से तंबाखू के सेवन पर भी रोक है। यहां के राजा के भाषण सुनने के लिए राष्ट्रीय पोशाक पहन कर जाना होता है। राजा के दरबार में जाने का अपना एक तौर-तरीका है। देश में बड़े मठों को जोंग कहा जाता है। जोंग में धार्मिक शिक्षण के लिए गुरुकुल जैसा माहौल होता है।

Discover more from आवारा मुसाफिर

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading