दुनिया के सैलानियों में कंबोडिया के अंगकोर वाट के मंदिरों की लोकप्रियता ठीक उसी तरह की है जैसे हमारे यहां स्थित ताजमहल की!
यदि आप दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में भ्रमण का मन बना रहे हों तो अपने यात्रा कार्यक्रम में कंबोडिया को अवश्य शामिल करें क्योंकि यहां एक ऐसी वास्तुशिल्पीय जादूनगरी है जिसका भव्य रूप आपको बार-बार रोमांचित करता रहेगा। यह जादूनगरी है अंगकोर वाट। कंबोडिया के सियमरीप शहर से करीब 5.5 किलोमीटर दूर स्थित अंगकोर वाट दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक परिसर माना जाता है। यह खमेर स्थापत्य कला और वास्तुशिल्प का बेजोड़ नमूना होने के साथ-साथ कंबोडियाई लोगों का गौरवशाली प्रतीक भी है और कंबोडिया के राष्ट्रीय ध्वज पर इसकी छवि अंकित है। प्राचीन कलाकारों ने अपनी कला-प्रतिभा की अभिव्यक्ति के लिए मंदिरो,मस्जिदों और गिरजाघरों को माध्यम बनाया था। पाषाण, ईंटों और चूना पत्थर से खड़े किए गए कई स्मारक और मंदिर आज विश्व की धरोहर बन चुके हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति की अमिट छाप वाला अंगकोर वाट भी एक ऐसी ही विश्व धरोहर है जिसे कुछ लोग दुनिया का सातवां आश्चर्य भी कहते हैं।
इस स्थल पर सर्वप्रथम पहुंचने वाले पश्चिम के लोगों में एक पुर्तगाली पादरी एंटोनियो दा मेडालेना भी था। उसने 1586 में इस स्थल का दौरा करने के बाद कहा था कि इस मंदिर का निर्माण इतना असाधारण है कि कलम से इसका बयान करना कठिन है क्योंकि यह दुनिया की किसी अन्य इमारत से एकदम अलग है। इसके स्तंभ, शिल्पाकृतियां और सजावट इंसानी जीनियस के प्रतीक हैं। 19 वीं शताब्दी के मध्य में फ्रेंच नेचुरलिस्ट और अन्वेषक हेनरी मुहात ने अंगकोर की यात्रा करने के बाद अपने यात्रा वृतांतों के जरिए इस स्थल को पश्चिमी देशों में प्रसिद्धि दिलाई।
करीब 500 एकड़ क्षेत्र में फैले अंगकोर वाट परिसर का निर्माण 12वीं शताब्दी के आरंभ में खमेर राजा सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था। उस समय यह जगह यशोधरापुर के नाम से जानी जाती थी। यह नगर खमेर साम्राज्य की राजधानी के रूप में विख्यात था। प्रारंभ में इसका निर्माण विष्णु मंदिर के रूप में किया गया था लेकिन 14वीं सदी में इसे बौद्ध मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और मूल प्रतिमाओं और कलाकृतियों के साथ बुद्ध की प्रतिमाएं सम्मिलित कर दी गईं। कुछ समय पश्चात इस परिसर में सैनिक किलेबंदी भी हुई। आज अंगकोर वाट एक यूनेस्को वल्र्ड हैरिटेज साइट है और वैज्ञानिक इस स्थल को संरक्षित करने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। यह भी अद्भुत ही रहा कि 19वींसदी में फ्रांसीसी हमले से लेकर कुछ साल पहले तक के गृहयुद्ध तक, तमाम विभीषिकाओं में भी अंगकोर वाट के मंदिरों की भव्यता को खास आंच नहीं आई। इसीलिए आज भी ये मंदिर दुनिया भर के सैलानियों के लिए कंबोडिया आने की सबसे प्रमुख वजह हैं।
अंगकोर वाट का डिजाइन हिंदू पौराणिक कथाओं में वर्णित मेरु पर्वत को प्रतिबिंबित करता है। करीब 3.6 किलोमीटर लंबी बाहरी दीवार और 200 मीटर चौड़ी और चार मीटर गहरी खाई से घिरे मंदिर परिसर के भीतर तीन चतुर्भुजाकार गलियारे हैं जिन्हें एक-दूसरे के ऊपर निर्मित किया गया है। समझा जाता है कि मंदिर परिसर के बाहर गहरी खाई ने भूजल के स्तर को बहुत ज्यादा या बहुत कम होने से रोक कर मंदिर के आधार को स्थिर होने में मदद की होगी। मंदिर के मध्य में 65 मीटर ऊंचा मुख्य शिखर है जिसका डिजाइन घुमावदार है। इस शिखर के आसपास चार छोटे-छोटे शिखर हैं। मंदिर परिसर के प्रत्येक कोने, प्रत्येक भवन, प्रत्येक स्तंभ और प्रत्येक दीवार पर उत्कीर्ण की गई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं,अप्सराएं और पौराणिक कथाओं में वर्णित अन्य पात्रों की आकृतियां बीते युग की दास्तान कह रही हैं।
अंगकोर वाट का निर्माण एक बहुत बड़ा चुनौतीपूर्ण प्रोजेक्ट था। आसपास की खदानों से भवन निर्माण सामग्री जुटाई गई। कलाकृतियां उत्कीर्ण करने का काम भी बहुत सावधानीपूर्वक किया गया। मंदिर के चारों तरफ खाई खोदने के लिए करीब 1.5 लाख घन मीटर रेत और गाद हटाई गई। यह ऐसा कार्य था जिसके लिए एक ही समय में एक साथ हजारों लोगों की जरूरत पड़ी होगी। भवन निर्माण के लिए लेटराइट नामक कठोर पदार्थ का प्रयोग किया गया जिसके साथ नरम बलुआ पत्थर मिलाया गया। नक्काशी के लिए चुना गया बलुआ पत्थर करीब 18 किलोमीटर दूर कुलेन पर्वत से निकाला गया था। रिसर्च से पता चलता है कि बड़े-बड़े पत्थरों को अंगकोर वाट तक पहुंचाने के लिए कई नहरों का प्रयोग किया गया था। अभी हाल में पुरातत्वविदों ने मंदिर परिसर में आठ शिखरों के अवशेष खोजे हैं। उनका अनुमान है कि ये स्तंभ संभवत: उन मंदिरों के अवशेष हैं जिनका प्रयोग अंगकोर वाट के निर्माण से पहले होता था। अंगकोर के मंदिरों की प्राचीन भव्यता को बहाल करने के लिए विशेषज्ञों को काफी मशक्कत करनी पडी है।
मंदिर के पांच शिखर मेरु पर्वत के शिखरों का प्रतिनिधित्व करते हैं और आसपास की दीवारें और मोट पहाडिय़ों और नदियों का। दीवारों और गलियारों में देवताओं की मूर्तियां, रामायण-महाभारत व वेद-पुराणों की कथाओं के कई दृश्य अंकित हैं। अंगकोर वाट के मंदिर का शिल्प अनूठा तो है ही, अपारंपरिक भी है। उड़ीसा व तमिलनाडु के चोल शिल्प से प्रभावित अंगकोर वाट मंदिर पारंपरिक हिंदू मंदिरों के विपरीत पश्चिमोन्मुखी है। यह हमेशा से काफी चर्चा और इतिहासकारों के विश्लेषण का विषय रहा है। इसी के चलते कई इतिहासकारों ने यह मत तक जाहिर किया है कि सूर्यवर्मन ने इस मंदिर की परिकल्पना अंतिम क्रिया से जुड़ी परंपराओं के लिए की होगी। हालांकि इसमें एक मत यह भी है कि यह मंदिर पश्चिमोन्मुखी इसलिए है क्योंकि यह विष्णु को समर्पित है और विष्णु का संबंध पश्चिम से माना जाता है। इन सबसे इतर अंगकोर वाट को उसके शिल्प के समायोजन के लिए भी खूब सराहा जाता है और इसके लिए उसकी तुलना प्राचीन यूनान व रोम के शिल्प से भी की जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस मंदिर की साज-संभाल का काम 1986 से 1992 के बीच भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने किया। यह मंदिर परिसर 1992 से ही विश्व विरासत का दर्जा प्राप्त है।
अंगकोर दक्षिण-पूर्व एशिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों में से है। यह 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इसमें जंगलों के अलावा अनेक मंदिर, तालाब, नहरें और संचार मार्ग हैं। कई सदियों तक अंगकोर खमेर साम्राज्य का मुख्य केंद था। इस परिसर के भव्य भवन और बड़े-बड़े जलाशय उन्नत सभ्यता की तरफ इशारा करते हैं। अंगकोर पुरातात्विक पार्क में नौवीं से पंद्रहवीं सदी के बीच खमेर साम्राज्य की विभिन्न राजधानियों के शानदार अवशेष मौजूद हैं। अंगकोर के मुख्य मंदिर के अलावा अंगकोर थोम का बेयोन मंदिर भी इस पार्क में स्थित है। यूनेस्को ने इस महत्वपूर्ण धरोहर और इसके आसपास के स्थलों की हिफाजत के लिए एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है।
इतिहास
जिन्हें इतिहास की थोड़ी-बहुत जानकारी होगी, उन्हें पता होगा कि कंबोडिया को पहले कम्पूचिया कहा जाता था। कंबुज या कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। पूर्व हिंदचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव- आर्यदेश- के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहां बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में तब्दील हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला) से भी हिंदचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुंचा था और संभवतया कंबोज के घोड़े अपने साथ लाया था। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस इलाके में हिंदू संस्कृति का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। उसके बाद ही इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य व संपन्नता की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष ही अंगकोर वाट व अंगकोर थोम नामक स्थानों में मौजूद हैं।
कंबोडिया बहुत बड़ा नहीं लेकिन भौगोलिक विविधता से भरपूर है। कंबोडिया का क्षेत्रफल 181,000 वर्ग मील है। इसकी पश्चिमी और उत्तरी सीमा पर स्याम व लाओ और पूर्वी सीमा पर दक्षिणी वियतनाम देश हैं। दक्षिण-पश्चिम भाग स्याम की खाड़ी का तट है। कंबोडिया तश्तरी के आकर की एक घाटी है जिसे चारों ओर से पर्वत घेरे हुए हैं। घाटी में उत्तर से दक्षिण की ओर मीकांग नदी बहती है। घाटी के पश्चिमी भाग में तांगले नामक एक छिछली और विस्तृत झील है जो उदाँग नदी द्वारा मीकांग से जुड़ी हुई है।
कंबोडिया की उपजाऊ मिट्टी और मौसमी जलवायु में चावल प्रचुर परिमाण में होता है। अब भी विस्तृत भूक्षेत्र श्रमिकों के अभाव में कृषिविहीन पड़े हैं। यहां की अन्य प्रमुख फसलें तंबाकू, कहवा, नील और रबर हैं। पशुपालन का व्यवसाय विकासोन्मुख है। पर्याप्त जनसंख्या मछली पकड़कर अपनी जीविका अर्जित करती है। चावल और मछली कंबोडिया की प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ हैं। इस देश का एक विस्तृत भाग बहुमूल्य वनों से ढका हुआ है। मीकांग और टोनलेसाप के संगम पर स्थित नॉम पेन्ह कंबोडिया की राजधानी है। बड़े-बड़े जलयान इस नगर तक आते हैं। यह नगर कंबोडिया के विभिन्न भागों से सड़कों द्वारा जुड़ा है।
हिंदू मिथकों का चित्रण
अंगकोर वाट मंदिर के गलियारों में तत्कालीन सम्राट, बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश पुराण और रामायण से संबद्ध अनेक शिलाचित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में वर्णित राम कथा बहुत संक्षिप्त है। इन शिलाचित्रों की शृंखला रावण वध के लिए देवताओं द्वारा की गई आराधना से आरंभ होती है। उसके बाद सीता स्वयंवर का दृश्य है। बालकांड की इन दो प्रमुख घटनाओं की प्रस्तुति के बाद विराध और कबंध वध का चित्रण हुआ है। अगले शिलाचित्र में राम धनुष-बाण लिए स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। इसके उपरांत सुग्रीव से राम की मैत्री का दृश्य है। फिर, बाली और सुग्रीव के द्वंद्व युद्ध का चित्रण हुआ है। परवर्ती शिलाचित्रों में अशोक वाटिका में हनुमान की उपस्थिति, राम-रावण युद्ध, सीता की अग्नि परीक्षा और राम की अयोध्या वापसी के दृश्य हैं। अंगकोरवाट के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा यद्यपि अत्यधिक विरल और संक्षिप्त है, तथापि यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी प्रस्तुति आदिकाव्य की कथा के अनुरूप हुई है। मंदिर की विशालता और निर्माण कला आश्चर्यजनक है। हिंदू मिथकों के अलावा उसकी दीवारों को पशु, पक्षी, फूलों और नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों से भी अलंकृत किया गया है। इससे यह भी जाहिर होता है कि भारत के बाहर भारतीय कला किस तरह से फैली। समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया में इसका नमूना देखने को मिल जाता है।
You must be logged in to post a comment.