किसी ने खूब कहा है, घूमना पहले आपको अवाक कर देता है और फिर आपको कहानियां कहने के लिए वाचाल बना देता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कुछ समय पहले मेरा विवाह हुआ और मैंने अपनी जीवन-संगिनी के साथ घूमने जाने की कई सारी योजनाएं बनाईं। शादी से पहले हमने सोचा था कि हम यूरोप जाएंगे। लेकिन फिर कुछ वजहों से हमने यूरोप जाने का इरादा छोड़ दिया।
कुछ ऐसा हुआ कि विवाह तक यह तय ही नहीं हो पाया था कि हमें बाद में हनीमून के लिए जाना कहां हैं। फिर विवाह के दो दिन बाद हमने योजना बनाई कि घूमने के लिए दक्षिण भारत निकल पड़ते हैं। हमने बेंगालुरु (बैंगलोर) के लिए टिकट बुक कराए और वहां पहुंच गए। लेकिन तब तक भी हमारे दिमाग में इस बात की कोई योजना नहीं थी कि हमें किन जगहों पर जाना है, कहां ठहरना है, क्या करना है। न तो कोई होटल बुक थे और न यह तय था कि हम ट्रेन से जाएंगे, बस से या कैब से। पहला सुझाव मेरी बड़ी साली की तरफ से आया जिनके पास बेंगालुरु में हम रुके हुए थे। उन्होंने कहा कि हम एक कार लें और सड़क के रास्ते पूरे दक्षिण भारत को घूमने निकल जाएं। बात हम दोनों को ही तुरंत समझ में आ गई।
हमने कार की और अगली सुबह साढ़े पांच बजे हम बेंगालुरु से देश के सबसे निचले सिरे कन्याकुमारी के लिए रवाना हो गए। यह दूरी लगभग 650 किलोमीटर की है। हमने राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पकड़ा जो सलेम और मदुरै होते हुए जाता है। यह छह लेन की बड़ी शानदार सडक है। मदुरै अपने मीनाक्षी मंदिर के लिए जाना जाता है। इस मंदिर को देखने में आपको लगभग दो घंटे का वक्त लगेगा। आप चाहें तो यहीं दोपहर का खाना भी खा सकते हैं क्योंकि मदुरै बेंगालुरू से कन्याकुमारी के रास्ते के ठीक बीच में पड़ता है।
विवेकानंद मेमोरियल
विवेकानंद रॉक मेमोरियल स्वामी विवेकानंद को समर्पित है। यह रॉक मेमोरियल 1970 में नीले और लाल ग्रेनाइट के पत्थरों से निर्मित किया गया था। यह समुद्रतल से 17 मीटर की ऊँचाई पर एक पत्थर के टापू की चोटी पर स्थित है। यह स्थान 6 एकड़ के क्षेत्र में फैला है। यह स्मारक 2 पत्थरों के शार्ष पर स्थित है और मुख्य द्वीप से लगभग 500 मीटर की दूरी पर है। ऐसा माना जाता है कि विवेकानंद कन्याकुमारी आए और इस पत्थर तक तैर कर गए और गहरी ध्यान की मुद्रा में रात बिताई। इसके बाद उन्होंने अपने आप को देश की सेवा के प्रति समर्पित करने का निश्चय किया।
रास्ते में कोई रुकावट न मिले तो बेंगालुरु से कन्याकुमारी पहुंचने में साढ़े नौ घंटे लग जाते हैं। हम शाम को साढ़े चार बजे कन्याकुमारी पहुंच गए थे। सूर्यास्त का समय होने वाला था इसलिए हम बगैर कोई समय गंवाए सीधे सनसेट प्वाइंट की तरफ चले गए, जो कन्याकुमारी के पश्चिमी हिस्से में है। कन्याकुमारी भारत में शायद अकेली ऐसी जगह होगी जहां समुद्र में एक ही जगह पर खड़े-खड़े शाम को आप पश्चिम में पानी में डूबता हुआ सूरज और सवेरे पूर्व में पानी से निकलता हुआ सूरज देख सकते हैं। यह वाकई बड़ा शानदार नजारा होता है और इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।
कन्याकुमारी में अच्छी संख्या में होटल हैं जो हर बजट के लिए माफिक बैठते हैं। वहां लगभग दो हजार रुपये में आपको कॉटेज मिल सकता है और नौ सौ रुपये में डबल बेड एसी रूम। हां, सीजन व भीड़ के हिसाब से कभी-कभी ये रेट ऊपर-नीचे हो जाती हैं। कई होटल बड़ी खुली जगह के साथ हैं और उनमें से ज्यादातर में वेज कैंटीन भी है, जहां अच्छा व सस्ता खाना मिल जाता है। खाने के कई विकल्प होटलों के बाहर भी हैं। एक अन्य विकल्प तमिलनाडु टूरिज्म के होटल का भी है। लाइट हाउस रोड पर स्थित इस होटल में एसी कमरे के लिए 1900 से 3200 रुपये तक देने पड़ सकते हैं। हमने विवेकानंद पुरम में एक कॉटेज ले लिया।
अगली सुबह हम तड़के साढ़े चार बजे उठ गए ताकि यहां का खूबसूरत सूर्योदय देख सकें। यहां आप जेट्टी से टिकट लेकर नाव से विवेकानंद स्मारक जा सकते हैं। विवेकानंद स्मारक के बगल में ही तिरुवल्लुर की विशाल मूर्ति स्थापित है। ये दोनों ही जगहें अद्भुत हैं। कन्याकुमारी वह जगह है जहां आप बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिंद महासागर को मिलते हुए देख सकते हैं और वहां इन तीनों समुद्रों के पानी को उनके रंगों से अलग-अलग पहचाना जा सकता है। कन्याकुमारी की अधिष्ठात्री देवी कन्याकुमारी ही हैं और यहां उनका मंदिर है। जाहिर है, लोग यहां आते हैं तो उस मंदिर में जरूर जाते हैं। उन्हीं की वजह से कन्याकुमारी का महत्व तीर्थ के रूप में भी है।
हमारा दूसरा पड़ाव केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम था। कन्याकुमारी से यहां की दूरी बमुश्किल सौ ही किलोमीटर है लेकिन भीड़ व रास्ते की वजह से पहुंचने में लगभग तीन घंटे का वक्त लग गया। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 47 पर यह रास्ता नागरकोइल की तरफ से होकर आता है। तिरुवनंतपुरम पहुंचते ही हमने सबसे पहला काम मशहूर पद्मनाभस्वामी मंदिर जाने का किया जहां शेषनाग पर विष्णु और उनके बगल में कमल पर लक्ष्मी विराजमान हैं। इस मंदिर में दर्शनों के समय भी तय हैं और भीतर जाने के लिए सभी को पारंपरिक ïवेशभूषा में ही जाना होता है।
दर्शन करके हम तिरुवनंतपुरम से 18 किलोमीटर दूर कोवलम बीच की तरफ निकल गए। इसकी गिनती हमेशा से भारत के सबसे खूबसूरत व लोकप्रिय समुद्र तटों में होती रही है। यहां बीच पर ही रुकने के लिए कई छोटे-बड़े होटल हैं। मेरे लिए यहां रुकने की पहली पसंद द लीला रहा। हालांकि यह महंगा होटल है लेकिन सबसे आरामदेह भी, इतना कि सारी कीमत वसूल हो जाती है। कोवलम में दो प्रमुख बीच हैं। सबसे ज्यादा चहल-पहल लाइटहाउस बीच पर रहती है। इसी बीच पर सबसे ज्यादा रेस्टोरेंट, होटल और दुकानें भी हैं। यहां आप कई तरह के सी-फूड का भी आनंद उठा सकते हैं।
हम यहां बड़े सुकून से दो दिन तक रुके। उसके बाद हमने उस जगह का रुख किया जो कोवलम की ही तरह केरल की सबसे नामी-गिरामी जगहों में से एक है- कुमारकोम। इसे केरल के बैकवाटर्स में हाउस बोटों का गढ़ भी कहा जाता है। कोवलम से कुमारकोम की दूरी 180 किलोमीटर है। वैसे तो आम तौर पर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 47 का इस्तेमाल दोनों शहरों को जोडऩे के लिए किया जाता है लेकिन यह बहुत भीड़-भाड़ वाला रास्ता है। इससे बचने के लिए आप राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 220 भी चुन सकते हैं। इसके दो फायदे हैं, एक तो आप ट्रैफिक की मारामारी से बच जाएंगे, दूसरे आप केरल के भीतरी इलाकों को देख सकेंगे। यह रास्ता कई छोटे शहरों व कस्बों से होकर गुजरता है।
कुमारकोम में हाउसबोट के लिए कई दिन पहले बुकिंग करानी होती है ताकि आपको मनपसंद तारीखें और दरें मिल सकें। चूंकि हमारा सारा कार्यक्रम चलते-फिरते बन रहा था, इसलिए हमने अपने एक दोस्त की मदद ली जिसने अपने किसी परिचित को कहकर हमारे लिए हाउसबोट का इंतजाम करा दिया। हाउसबोट पर पहुंचते ही समय के अनुसार या तो आपको भोजन दिया जाता है या स्नैक्स। उसके बाद नाव वेमबांड लेक की तरफ चल पड़ती है। हमारे लिए यह नया और बेहद शानदार अनुभव था। आसपास का नजारा मोहित करने वाला था। झील में पहुंचने के बाद आपको एक छोटी नाव से बैकवाटर्स की छोटी-छोटी धाराओं में ले जाया जाता है जो आपको केरल के उस इलाके के पानी के किनारे बसे छोटे-छोटे गांवों की तरफ ले जाती हैं। वहां आप ग्रामीण केरल के जनजीवन और लोककलाओं व हस्तशिल्प से वाकिफ हो सकते हैं और चाहें तो कुछ खरीद भी सकते हैं। रात में हाउसबोट वेमबांड लेक में ही खड़ी रहती है। रात का खाना नाव में ही खिलाया जाता है। पारंपरिक केरल शैली का खाना काफी स्वादिष्ट होता है। अक्सर नाव के कुक आपकी पसंद का सी-फूड भी तैयार कर देते हैं। इन हाउस बोट के कमरे भी काफी आरामदेह और सुरक्षित होते हैं। पानी के बीच नाव में रात गुजारने का अनुभव बिलकुल अलग है। अगले दिन दोपहर के खाने के बाद नाव हमें फिर से किनारे ले आई और हाउसबोट से निकलकर हम फिर से अपने सड़क के सफर पर आ गए।
हमारा अगला मुकाम केरल का हिल स्टेशन मुन्नार था। कुमारकोम से मुन्नार की दूरी लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर है केरल की खूबसूरती का पूरा मजा लेने के लिए आप वहां से पहले राज्य राजमार्ग संख्या 41 को और उसके बाद राष्ट्रीय राजमार्ग 49 को पकड़ें। जब हम लोग गए तो पहाड़ी सड़क के हाल उतने अच्छे नहीं थे लेकिन मुन्नार एक बार पहुंचकर आप रास्ते की सारी दिक्कतें, शिकवे भूल जाते हैं।
केरल की बाकी जगहों से अलग नीलगिरी पहाड़यिों के बीच मुन्नार की आबोहवा, वहां के चाय के बागान और मसालों की खेती- सब मुग्ध करने वाली है। मुन्नार का मौसम, नजारा और लोग, सभी कुछ लुभाने वाले हैं। हम केरल टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (केटीडीसी) के टी काउंटी में रुके और हमारी नजर में वह उस इलाके में रुकने की सबसे बेहतरीन जगहों में से है। हालांकि मुन्नार में रुकने के लिए हर बजट के मुताबिक कई सारी होटलें हैं। वैसे तो कई होटल मुन्नार शहर से थोड़ी दूर चाय-बागानों के बीच में भी हैं। लेकिन जब आप शहर में जाएं तो कृष्णा शॉपिंग मॉल जाना न भूलें। वहां आपको अच्छे दामों पर केरल के प्रसिद्ध मसाले, चाय व चॉकलेट मिल जाएंगी। केरल की प्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सा का लाभ लेने के लिए आप मुन्नार में शरीर व बालों के लिए किसी स्पा से ट्रीटमेंट भी ले सकते हैं।
हमने मुन्नार में भी सुकून से दो दिन गुजारे और उसके बाद तीर्थनगरी गुरुवायूर की ओर निकल पड़े। कृष्ण की यह नगरी मुन्नार से 185 किलोमीटर की दूरी पर है। वहां जाने के लिए पेरुम्बवूर तक राष्ट्रीय राजमार्ग 49 और उसके आगे से त्रिशूर होते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग 47 पकड़ लें। गुरुवायूर को दक्षिण भारत की द्वारका कहा जाता है। आपको यहां पहुंचते ही अद्भुत ऊर्जा का अहसास होने लगेगा। यहां दर्शनों के लिए पुरुषों को धोती पहननी होती है और महिलाओं को साड़ी या सलवार-कुर्ता। यहां दर्शन में लगभग एक घंटे का वक्त लगता है, हालांकि यह दर्शनार्थियों की भीड़ पर भी निर्भर करता है। उसके बाद या तो गुरुवायूर में ही रुक सकते हैं या फिर त्रिशूूर जा सकते हैं। त्रिशूर का रास्ता यहां से 45 मिनट का है। अगर आप त्रिशूर में रुक रहे हैं तो वडक्कुमनाथन शिव मंदिर चौराहे के आसपास रुके। यहां आपको सबसे ठीकठाक होटल, खाने के ठिकाने और बाजार मिल जाएगा। आप वडक्कुमनाथन शिव मंदिर जाना न भूलें जो यहां के सबसे पुराने व लोकप्रिय मंदिरों में से एक है।
हम दोनों ही अंधाधुंध खरीदारी के उतने शौकीन नहीं हैं, इसलिए हमने मसाले, चाय, कॉफी और स्थानीय हैंडीक्राफ्ट के अलावा ज्यादा कुछ नहीं खरीदा। इसके बाद हमारा वापसी का सफर शुरू हुआ। त्रिशूर से बेंगालुरु की दूरी लगभग 480 किलोमीटर की है जिसमें अमूमन आठ घंटे लग जाते हैं। हमने इरोड के रास्ते पहले राष्ट्रीय राजमार्ग 47 और उसके बाद राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पकड़ा। मैं व मेरी जीवन-संगिनी, दोनों ही घूमने के शौकीन हैं और रोमांचक बात यह थी कि हमारे साथ की शुरुआत ही एक लंबे सफर से हुई। अब बस हमारी कोशिश है कि जितनी जल्दी हो, पूरा देश घूम आएं।
पुन्नमडा लेक
कुमारकोम और वेमबांड लेक की प्रसिद्धि हाल के कुछ सालों में बढ़ी है लेकिन एलेप्पी या अल्लपुझा की पुन्नमडा लेक पारंपरिक रूप से अपने बैकवाटर्स के लिए जानी जाती रही है। यहीं पर मानसून के महीने में नेहरू ट्रॉपी बोट रेस समेत केरल की तमाम सर्प नौका दौड़ें भी होती हैं जिन्हें देखने पूरी दुनिया से सैलानी हर साल यहां जुटते हैं। कोच्चि से तिरुवनंतरपुरम जाते हुए सैलानी अक्सर अल्लपुझा में रुक जाते हैं ताकि यहां पर हाउसबोट में रुकने का आनंद ले सकें। इसके अलावा कोच्चि भी बैकवाटर्स के लिए एक पसंदीदा जगह है।
खूबसूरत मुन्नार
मुन्नार तीन पर्वतों की श्रृंखला – मुथिरपुझा, नल्लथन्नी और कुंडल के मिलन स्थल पर स्थित है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 1600 मीटर है। मुन्नार किसी जमाने में दक्षिण भारत के पूर्व ब्रिटिश प्रशासन का ग्रीष्मकालीन रिजॉर्ट हुआ करता था। यहां कोहरे से ढंकी पहाडिय़ां, चाय के बागान, ब्रिटिशकालीन बंगले और चारों ओर बिखरी हरियाली है। यह एक बेहद रूमानी जगह है, जो कवियों की प्रेरणा रही है। समुद्र तल से 1600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मुन्नार नवयुगल के लिए हनीमून स्पॉट है तो सपरिवार छुट्टियां बिताने वालों या सैर-सपाटा करने वालों के लिए भी बेहद खूबसूरत जगह है।
You must be logged in to post a comment.