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दक्कन का नूर था वारंगल

वारंगल को सबसे ज्यादा ककातीय वंश के शैव शासकों की राजधानी के तौर पर इतिहास में अहमियत मिली। उस समय यह दक्षिण के सबसे प्रभावशाली साम्राज्यों में से एक था। कालांतर में साम्राज्य भले ही ढह गया लेकिन ककातीयों ने शिल्प व कला के रूप में ऐसी विरासत छोड़ दी जिसे दुनिया आज भी याद करती है

वारंगल किले में मानो जहां-तहां इतिहास बिखरा पड़ा है। किले का प्रवेश द्वार वारंगल रेलवे स्टेशन से महज दो ही किलोमीटर की दूरी पर है। फिर किले के अवशेष वहां से लेकर पांच किलोमीटर दूर तक हनमकोंडा तक फैले हैं लगभग सहस्त्र स्तंभ मंदिर को छूते हुए। किले के भीतर पहुंचने के बाद वहां खड़े ककातीय कला तोरणम सहसा ध्यान खींच लेते हैं। ककातीय वंश की भव्यता की कहानी कहते ये तोरण द्वार कितना ऐतिहासिक महत्व रखते हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सका है कि तेलंगाना राज्य के नए लोगो में पृष्ठभूमि में चारमीनार के साथ-साथ यह ककातीय कला तोरणम भी अंकित है।

वारंगल को न केवल तेलंगाना की, बल्कि पूरे दक्षिण भारत के सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शहरों में गिना जाता है। वारंगल नाम की उत्पत्ति तेलुगू शब्द ओरुगलु से बताई जाती है- ओरु यानी एक और गलू यानी चट्टान। इसीलिए इस शहर का एक और नाम एकशिला नगरम भी है। और दरअसल जब वारंगल किले के भीतर घुसते हैं तो वहां पत्थरों पर की गई कारीगरी इस शहर के नाम को अलग ही तरीके से चरितार्थ करती है। ककातीय वंश ने इस इलाके पर दो सौ साल से कुछ ज्यादा वक्त तक राज किया और इस दौरान उसने कई बेहद शानदार इमारतें पत्थरों से गढ़ दीं।

वारंगल किले में चार ककातीय कला तोरणम हैं। माना जाता है कि ये कला तोरणम मूलत: किले के भीतर स्थित शिव मंदिर की चार दिशाओं में बने चार द्वार थे। शिव मंदिर किले के ठीक बीचों-बीच रहा होगा। उसके अवशेष अब मौजूद नहीं हैं। यह स्वयंभू शिव मंदिर बताया जाता है। इससे यह भी आभास होता है कि ककातीयों ने शिव को अपना आराध्य देïव मान रखा था। मंदिर भले न हो, लेकिन मंदिर के सामने शिव के वाहन नंदी की काले पत्थर से बनी विशाल प्रतिमा अब भी मौजूद है। कुछ-कुछ इसी तरह की नंदी की प्रतिमा हनमकोंडा में सहस्त्र स्तंभ मंदिर में भी है। लेकिन वारंगल किले में स्थित नंदी की प्रतिमा चार अलंकृत स्तंभों पर टिकी एक छत के नीचे है। किले में बाकी जगह खुले मैदान में अवशेष, स्तंभ आदि बिखरे पड़े हैं। लेकिन वे यह आभास देने के लिए काफी हैं कि यह किला अपने समय में कितना भव्य रहा होगा। निकट ही पालमपेट में रामप्पा मंदिर भी ककातीयों का ही बनवाया हुआ है।

वारंगल का इतिहास यूं तो कई अलग-अलग दौर में कई शासकों से गुजरा है- ककातीयों से पहले भी और उसके बाद भी। लेकिन इसका स्वर्णिम दौर ककातीयों के शासन में ही रहा। उसी की वजह से वह दिल्ली के सुल्तानों को भी खटकता रहा। इसका इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि ककातीयों के पास ही दुनिया के हीरों का सरताज कोहिनूर हीरा था जो बाद में ककातीय राजा प्रतापरुद्र को अलाउद्दीन खिलजी के सिपहसालार मलिक काफूर से हार जाने के बाद सुल्तानों को देना पड़ा।

उसके बाद से वारंगल का किला कभी फिर उस तरह से खड़ा नहीं हो पाया। कहा जाता है कि खिलजी ने तो ककातीयों से केवल धन-संपदा हासिल की लेकिन उनके बाद दिल्ली की सल्तनत संभालने वाले तुगलकों ने वारंगल के किले को काफी तहस-नहस किया। गोलकुंडा पर शासन करने वाले कुतुबशाही सुल्तानों और फिर हैदराबाद के निजामों ने समय-समय पर उसमें थोड़ा बहुत रद्दोबल बेशक किया। वारंगल का किला प्रतापरुद्र द्वितीय से पहले और गणपतिदेव के बाद तीस साल से भी ज्यादा वक्त तक रुद्रमा देवी के शासन का भी गवाह बना। रुद्रमा देवी को भी वारंगल किले में और आसपास कई शानदार निर्माण करवाने का श्रेय जाता है। वारंगल पर शासन करने वाली वह अकेली महिला रही और क्या संयोग था कि दिल्ली में रजिया सुल्तान के शासन के खत्म होने के कुछ ही साल बाद रुद्रमा देवी ने ककातीय वंश की गद्दी संभाल ली।

वारंगल का किला 1199 ई. में बनना शुरू हुआ था। रुद्रमा देवी के पिता ककातीय राजा गणपति ने इसकी नींव डाली और 1261 ई. में रुद्रमा देवी ने इसे पूरा करवाया था। ककातीय कला तोरणम पर साँची के स्तूप के तोरणों के समान ही उत्कृष्ट मूर्तिकारी का नजारा मिलता है। किले की दो दीवारें थीं। भीतर की दीवार पत्थर की और बाहर की मिट्टी की बनाई गई थी। बाहरी दीवार 72 फुट चौड़ी और 56 फुट गहरी खाई से घिरी है। हनमकोंडा से 6 मील दक्षिण की ओर एक तीसरी दीवार के चिह्न भी मिलते हैं।

एक इतिहास लेखक के अनुसार परकोटे की परिधि तीस मील की थी। इसका उदाहरण भारत में अन्यत्र नहीं है। किले के अन्दर अनगिनत मूर्तियाँ, अलंकृत प्रस्तर-खंड, अभिलेख आदि भी मिले हैं। वारंगल किले के निकट ही खुश महल भी है जो शिताब खां ने बनवाया था। इसके अतिरिक्त अनेक छोटे-बड़े मंदिरों की मौजूदगी के निशान भी यहां मिलते हैं। अलंकृत तोरणों के भीतर नरसिंह स्वामी, पद्याक्षी और गोविन्द राजुलुस्वामी के प्राचीन मंदिर हैं। गोविन्द राजुलुस्वामी मंदिर तो एक ऊँची पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। यहाँ से दूर-दूर तक का मनोरम दृश्य दिखलाई देता है। 12वीं 13वीं सदी का एक विशाल मंदिर भी यहां से कुछ दूर पर है, जिसके आँगन की दीवार दुहरी और असाधारण रूप से मोटी है। यह विशेषता ककातीय शैली के अनुरूप ही मानी जाती है। इसकी बाहरी दीवार में तीन प्रवेशद्वार हैं, जो वारंगल के किले के मुख्य मंदिर के तोरणों जैसे ही हैं। यहाँ से दो ककातीय अभिलेख प्राप्त हुए हैं- पहला सातफुट लंबी वेदी पर और दूसरा एक तड़ाग के बांध पर अंकित है।

आसपास

रामलिंगेश्वर रामप्पा मंदिर वारंगल शहर से 70 किलोमीटर दूर पालमपेट गांव में स्थित है। यह मंदिर काफी हद तक सलामत है और इसकी दीवारें और स्तंभ खासे नक्काशीदार हैं। रामप्पा मंदिर के निकट ही रामप्पा झील भी है। यह झील भी ककातीय शासकों ने ही खुदवाई थी। यह जगह कुदरती रूप से भी बहुत खूबसूरत है। सहस्त्र स्तंभ मंदिर के निकट ही भद्रकाली मंदिर है जिसमें बैठी हुई अवस्था में काली की मूॢत स्थापित है। इसे भारतीय आध्यात्मिक इतिहास में देश के काली के सबसे पुराने मंदिरों में से एक माना जाता है। यह जगह भी भद्रकाली झील के किनारे होने की वजह से बहुत खूबसूरत बन पड़ी है, चारों तरफ हरा-भरा माहौल है। इस मंदिर का ज्ञात इतिहास 625 ईस्वी के आसपास का है जिसके अनुसार चालुक्य राजा पुलकेसी द्वितीय ने इसे बनवाया था।

साउंड एंड लाइट शो

अलग तेलंगाना राज्य बनने के बाद से इन सारी ऐतिहासिक जगहों को भी मानो नया जीवन मिल गया है। तेलंगाना राज्य पर्यटन विकास निगम ने वारंगल में भी साउंड एंड लाइट शो का आयोजन शुरू किया है जिनसे ये इमारतें जीवंत हो जाती हैं। किले की पृष्ठभूमि में आवाज व रोशनी के बेहतरीन संयोजन के साथ यहां एक तरह से ककातीय वंश का शानदार इतिहास सामने आ खड़ा होता है। वारंगल किले में रोजाना 50-50 मिनट के दो शो होते हैं। पहला शो शाम 6.30 से 7.20 बजे तक और दूसरा 7.30 बजे से 8.20 बजे तक। पहला शो तेलुगू में होता है और दूसरा शो मौजूद लोगों की पसंद के आधार पर अंग्रेजी में या फिर तेलुगू में। वारंगल जाकर इसका अनुभव लेने से नहीं चूकना चाहिए।

हजार स्तंभों वाला मंदिर

वारंगल शहर की सबसे बड़ी पहचान में से एक है वहां का हजार स्तंभों वाला मंदिर। यह मंदिर हनमकोंडा में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1163 ईस्वी में राजा रुद्र देव ने करवाया था। यह मंदिर वास्तुशिल्प की चालुक्य शैली को बेहद खूबसूरती के साथ प्रतिबिंबित करता है। विशेषज्ञ इसे ककातीयों की कला का सबसे बेहतरीन नमूना बताते हैं।

मंदिर का आकार सितारे जैसा है। इससे उस दौर में शिल्पकारों की काबिलियत का उदाहरण मिलता है। जैसा कि इसके नाम से समझा जा सकता है, इस मंदिर में एक हजार स्तंभ हैं। इन सभी स्तंभों पर उस समय की छैनी व हथौड़े का कमाल देखा जा सकता है। सभी पर काफी शानदार कलाकारी की गई है।

इस मंदिर में तीन मुख्य आराध्य हैं- विष्णु, शिव व सूर्य। मुख्य मंदिर में तीनों आराध्यों के तीन अलग-अलग मंदिर हैं। इसे यहां त्रिकुताल्यम कहा गया है। शिल्प की खूबसूरती यह है कि मंदिर के भीतर बने हजार स्तंभों में से कोई भी मंदिर के किसी भी हिस्से में खड़े व्यक्ति को उसके आराध्य के दर्शन के आड़े नहीं आता। मंदिर के बाहर चारों तरफ बड़ा बगीचा है और उसमें सब तरफ कई सारे छोटे-छोटे शिवलिंग स्थापित हैं। मुख्य मंदिर के ठीक सामने काले पत्थर से बनी नंदी की विशाल मूर्ति है। इससे यह भी जाहिर होता है कि इस मंदिर में मुख्य रूप से शिव की ही पूजा होती रही होगी।

मुख्य मंदिर जमीन से लगभग एक मीटर ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। पत्थर पर नक्काशी करके बनाई गईं हाथियों की मूर्तियां और पत्थर को तराशकर बनाई गई जालियां यहां की खूबसूरती हैं और काकातियों की शिल्प कला की पहचान भी। कहा जाता है कि तुगलकों ने दक्कन पर अपने हमले के दौरान इस मंदिर को भी नुकसान पहुंचाया। बाद में समय-समय पर इसकी मरम्मत करने का काम होता रहा।

यह मंदिर रोजाना सवेरे पांच बजे से देर शाम नौ बजे तक खुला रहता है। अगर इस इलाके की कला, शिल्प व संस्कृति को समझना है तो इस मंदिर को देखना बहुत जरूरी है। यह मंदिर बहुत लोकप्रिय तीर्थस्थल भी है। हजारों की तादाद में सैलानी व श्रद्धालु नियमित रूप से यहां आते भी हैं। यह मंदिर वारंगल से हनमकोंडा जाने वाले राजमार्ग पर है। तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से यह लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है। वारंगल रेलवे स्टेशन मंदिर से पांच किलोमीटर दूर है।

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