Wednesday, December 25
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गर्वीला खड़ा है अजेय कालिंजर

कालिंजर को कालजयी यूं ही नहीं कहा जाता है। इसने कालखंड के प्रत्येक प्रसंग को, चाहे वो प्रागैतिहासिक काल के पेबुल उपकरण हों, पौराणिक घटनाएं हों या 1857 का विद्रोह हो, सबको बहुत ही खूबसूरती से अपने आंचल में समा रखा है। वेदों में उल्लेख के आधार पर जहां इसे विश्व का प्राचीनतम किला माना गया है, वहीं इसके विस्तार और विन्यास को देखते हुए आधुनिक एलेक्जेंड्रिया से भी श्रेष्ठ। वेदों में इसे रविचित्र और सूर्य का निवास माना गया है। पद्म पुराण में इसकी गिनती नवऊखल अर्थात सात पवित्र स्थलों में की गई है। मत्स्य पुराण में इसे उज्जैन और अमरकटंक के साथ अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है। जैन ग्रंथों और बौद्ध जातकों में इसे कालगिरि कहा गया है। कालिंजर का पौराणिक महत्व शिव के विष पान से है। कुछ लोगों का कहना है कि कालिंजर शिव का ही एक नाम है जिसका अर्थ है मृत्यु का नाश करने वाला। समुद्र मंथन में मिले कालकूट के पान के पश्चात शिव ने इसी कालिंजर में विश्राम करके काल की गति को मात दी थी। महाभारत के युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर ने यहां के कोटतीर्थ में स्नान किया था।

कालिंजर के किले पर जिन राजवंशों ने शासन किया उसमें दुष्यंत- शकुंतला के पुत्र भरत का नाम सर्वप्रथम उल्लिखित है। कर्नल टॉड के अनुसार उसने चार किले बनाए जिसमें कालिंजर का सर्वाधिक महत्व है।

कालिंजर का अपराजेय क़िला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। 249 ई. में यहां हैहय वंशी कृष्णराज का शासन था, तो चौथी सदी में नागों का जिनसे सत्ता गुप्तों को हस्तांतरित हुईं। इसके पश्चात यहां चंदेलों का यशस्वी शासन रहा जिसका विनाश 1545 ई. में भोरशाह (भोरखां) सूरी ने किया। जब चंदेल शासक आये तो इस पर महमूद ग़ज़नवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाए।

कालिजंर के किले में इस तरह के कई जलकुंड हैं और इनमें से हरेक का अपना खास महत्व है

मध्यकालीन इतिहास में कालिंजर भोरखां की मौत का कारण बना। मेवाड़ विजय के बाद भोरखां की महत्वाकांक्षाएं उफान पर थी। वह कालपी, खजुराहो होता हुआ सीधे कालिंजर पहुंचा, किन्तु सात माह के घेरे के पश्चात भी चंदेल हथियार डालने को तैयार नहीं थे। अत: भोरखां ने किले के सामने कालिंजरी पहाड़ी पर तोपों को चढ़ाया और गोलाबारी कराई, किन्तु एक गोला फटने के बाद कालिंजर भोरखां की कब्रगाह बन गया। उसके पुत्र इस्लाम खां ने चंदेल नरेश कीरत सिंह को उसके 70 सहयोगियों के साथ कत्ल करके अपने पिता को श्रद्धांजलि दी। अंत में अकबर ने 1569 ई. में यह क़िला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह क़िला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद क़िले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ई. में यह क़िला अंग्रेज़ों के अधीन हो गया। कालिंजर विकास संस्थान के संयोजक बीडी गुप्ता ने बताया कि कुछ समय पहले यहां कई प्राचीन शिलालेख मिले थे।

कालिजंर के किले में रानी महल का खूबसूरत नजारा

कालिंजर अपने शिल्प के कारण अद्वितीय है। किले का क्षेत्रफल लगभग 320 वर्ग किलोमीटर का है। यह समुद्र तल से 375 मीटर ऊंचाई पर है। 90 डिग्री पर खड़ी इसकी दीवारें आज भी कारीगरों को विस्मित करती हैं। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली आदि। प्रतीत होता है कि इसकी संरचना वास्तुकार ने अग्निपुराण, बृहदसंहिता और अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है। यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं, जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे आपस में एक-दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं। किले के सात द्वार- गणेश, चंडी, बुद्ध, हनुमान, आलमगीर, लाल व बड़ा दरवाजा आज भी पूरी तरह महफूज हैं। आलमगीर दरवाजे का निर्माण कार्य औरंगजेब ने करवाया था। किला इतना बड़ा है कि इस फोर्ट को तसल्ली से घूमने में करीब दो दिन लग जाते हैं। बाहर से देखने पर ये किला एक पहाड़ लगता है, लेकिन ऊपर जाने पर इसकी विशालता हैरान कर देती है।

किले के भीतर एक अन्य इमारत

लोग कहते हैं कि कालिंजर के किले में कई रहस्यमयी छोटी-बड़ी गुफाएं भी मौजूद हैं। इन गुफाओं के रास्तों की शुरुआत तो किले से ही होती है, लेकिन यह कहां जाकर खत्म होती है, यह कोई नहीं जानता। हालांकि यह बात देश में कई पुराने किलों के बारे में कही जाती है। इन्हीं सारी बातों की वजह से किले को भुतहा, रहस्यमयी और न जाने क्या-क्या कह दिया जाता है और कुछ लोग तो यह भी बात उड़ाने लगते हैं कि यहां रात में जाना खतरे से खाली नहीं। कुछ लोग खहते हैं कि यहां घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देती हैं तो कुछ कहते हैं कि यहां हलचल सुनाई पड़ती है। यानी जितने मुंह उतनी बातें। जबकि इनमें से किसी का भी कोई आधार नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि कालिंजर किले में एक रानी महल है। एक दौर था जब इस महल में हर रात महफिलें सजा करती थीं। कहने वाले कहते हैं कि आज 1500 साल बाद भी शाम ढलते ही एक नर्तकी के कदम यहां उसी तरह थिरकने लगते हैं। घुंघरू की आवाज उस नर्तकी की कही जाती है जिसका नाम पद्मावती था। गज़ब की खूबसूरत इस नर्तकी की जो भी एक झलक देख लेता वही उसका दीवाना बन बैठता। कहते हैं जब उसके घुंघरू से संगीत बहता तो चंदेल राजा उसमें बंधकर रह जाते। पद्मावती शिव की भक्त थी। लिहाजा खासकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन वो पूरी रात दिल खोल कर नाचती थी। कई कथित इतिहासकारों के हवाले से इस तरह की अपुष्ट चर्चाएं चलती रहती हैं कि रिसर्च के दौरान एक बार उन्हें देर रात इस महल में रुकना पड़ा और फिर रात की खामोशी में अचानक उन्हें वही घुंघरुओं की आवाज सुनाई देने लगी। वैसे यह भी किसी की कपोल कल्पना से कम मालूम नहीं होती।

किले के भीतर प्राचीन काल की कई देव प्रतिमाएं

कई लोग यह भी कहते हैं कि यहां पत्थर पर लिखे आलेखों में किले में छिपे खजाने का रहस्य छुपा हुआ है, जिसे अब तक कोई भी ढूंढ नहीं पाया है। कहा जाता है कि किले को लेकर हुई तमाम लड़ाइयां दरअसल इसी छुपे खजाने के लिए हुईं। हालांकि इसमें कोई दोरात नहीं कि किला सामरिक लिहाज से खासा महत्वपूर्ण था।

वैसे मंदिर में शिल्प का खजाना तो बेशुमार है। किले के परिसर में फैली मूर्तियां पर्यटकों और दर्शकों के जबरदस्त आकर्षण का केंद्र हैं। सर्वाधिक मूर्तियां भौव धर्म से संबंधित है। काल भैरव की प्रतिमा सर्वाधिक भव्य है। 32 फीट ऊंची और 17 फीट चौड़ी इस प्रतिमा के 18 हाथ हैं। वक्ष में नरमुंड और त्रिनेत्र धारण किए यह प्रतिमा बेहद जीवंत है। झिरिया के पास गजासुर वध को वर्णित करती मंडूक भैरव की प्रतिमा दीवार पर उकेरी गई है। उसके समीप ही मंडूक भैरवी है। मनचाचर क्षेत्र में चतुर्भुजी रुद्राणी काली, दुर्गा, पार्वती और महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाएं हैं।

कालिंजर के किले में स्थित मूर्तियां व प्रतिमाएं उसके गौरव के दिनों में रहे बेजोड़ शिल्प का नमूना दिखलाती हैं

कालिंजर के वास्तुकारों ने क्षेत्र की दुर्गम स्थिति को देखते हुए पेयजल की सुगम व्यवस्था की ओर इसके लिए जलाशय का निर्माण किया। क़िले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है, जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं। काल भैरव की प्रतिमा के बगल में चट्टान काटकर बनाए गए स्वर्गारोहण तालाब का उल्लेख अबुल फजल ने किया है। पाताल गंगा, पांडु तालाब, बुढिय़ा ताल कुछ अन्य जलाशय हैं जिसका पौराणिक महत्व है। कहा जाता है कि इसी में स्नान करने से कीर्ति वर्मन का कुष्ठ रोग समाप्त हुआ था।

कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। कुछ लोगों का मानना है कि यह प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण नागों ने कराया। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता राधाकृष्ण बुंदेली व बीडी गुप्त बताते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। मंदिर के ठीक पीछे की तरफ पहाड़ काटकर पानी का कुंड बनाया गया है। इसमें बने मोटे-मोटे स्तंभों और दीवारों पर प्रतिलिपि लिखी हुई है। इस मंदिर के ऊपर पहाड़ है, जहां से पानी रिसता रहता है। बुंदेलखंड सूखे के कारण जाना जाता है, लेकिन कितना भी सूखा पड़ जाए, इस पहाड़ से पानी रिसना बंद नहीं होता है। कहा जाता है कि सैकड़ों साल से पहाड़ से ऐसे पानी निकल रहा है, ये सभी इतिहासकारों के लिए अबूझ पहेली की तरह है।

कालिंजर फोर्ट के अंदर ही पाषाण द्वारा निर्मित एक शैय्या और तकिया है। इसे सीता सेज कहते हैं। कथाओं के अनुसार, इसे सीता का विश्राम स्थल कहा जाता है। यहां पर प्राचीन तीर्थ यात्रियों के आलेख हैं। एक जलकुंड है, जो सीताकुंड कहलाता है। इसके अलावा यहां पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।

कोटितीर्थ के पश्चात वैष्णव मंदिर है। किले में जगह-जगह फैले मुख लिंग प्रतिहारों की देन हैं।  कालिंजर के अन्य दर्शनीय स्थलों में सीतासेज, राजा अमान सिंह महल, राजकीय म्यूजियम प्रमुख है। इस म्यूजियम में लकुलेश, चतुर्मुखी शिव लिंग सहस्त्र लिंग के अतिरिक्त गुप्त, प्रतिहार, चंदेल काल की अनेक अमूल्य धरोहरें मौजूद है।

कालिंजर का दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में लाल रंग का चमकदार पत्थर से प्राचीनकाल में सोना बनाया जाता था। इस क्षेत्र में पर्तदार चट्टानें व ग्रेनाइट पत्थर काफी है जो भवन निर्माण में काम आता है। साखू, शीशम, सागौन के पेड़ बहुतायत में है। इनसे लकड़ी की बनी वस्तुएं तैयार होती हैं।

कालिंजर दुर्ग में विविध प्रकार की औषधियां भी मिलती हैं। यहां मिलने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज औषधि के काम आता है। गुमाय के बीज भी उपचार के काम आते हैं। हरर का उपयोग बुखार के लिए किया जाता है। मदनमस्त की पत्तियां और जड़ उबालकर पी जाती है। कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग अस्थमा के लिए किया जाता है। मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल का इस्तेमाल आंव रोग के लिए किया जाता है। घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग के लिए उपयोगी है। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, लाल पथरचटा, गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहां उपलब्ध है।

कैसे पहुंचे: कालिंजर बांदा से 50 किलोमीटर की दूरी पर है। बांदा और सतना निकटतम रेलवे स्टेशन हैं। दिल्ली से बांदा के लिए कई रेलगाडिय़ां हैं। खजुराहो, चित्रकूट और कालिंजर पर्यटकों के लिए नया त्रिकोण बना रहे हैं। खजुराहो के लिए मुंबई, दिल्ली व वाराणसी से सीधी उड़ानें भी हैं। सैलानी वहां से भी कालिंजर पहुंचते हैं। बांदा प्रशासन हर साल कालिंजर महोत्सव का भी आयोजन करता है, उस समय वहां सैलानियों की खासी भीड़ रहती है। पर्यटकों की आमद को देखते हुए कालिंजर में अब अलग-अलग बजटों के कई बढिय़ा होटल भी खुल गए हैं।

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