Wednesday, December 25
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कांकवाड़ी किला, जो लगता है भानगढ़ से भी ज्यादा भुतहा

कहा जाता है कि औरंगजेब ने यहीं दारा शिकोह को बंदी बनाया था

अक्सर जब भुतहा जगहों- जिन्हें हम अंग्रेजी में हांटेड जगहें कहते हैं- के बारे में बात होती है, तो राजस्थान के अलवर जिले में स्थित भानगढ़ के किले का नाम खास तौर पर लिया जाता है। लेकिन यहां हम बात कर रहे हैं भानगढ़ के किले से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक और किले की। यह है कांकवाड़ी का किला। अगर आप यहां जाएं तो यह किला भानगढ़ से कहीं ज्यादा भुतहा यानी हांटेड लगता है।

कांकवाड़ी का किला अलवर जिले में ही सरिस्का टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क के भीतर स्थित है। यह किला घने जंगल के बीचों-बीच आम लोगों और सैलानियों की पहुंच से बहुत दूर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है।

ये है सरिस्का टाइगर रिजर्व के भीतर स्थित कांकवाडी का किला

दरअसल, जब हम यह कह रहे हैं यह किला कहीं ज्यादा भुतहा लगता है तो इसकी कुछ वजहें हैं। सबसे पहले तो इस बात पर गौर कीजिए कि आज के समय में जब हम भानगढ़ जाते हैं तो वहां हर वक्त सैकड़ों की संख्या में सैलानी मौजूद होते हैं। आपको हमेशा आसपास लोगों का कोलाहल और सेल्फी लेने को आतुर युवाओं की रेलमपेल नजर आती है। आपको इसकी कहानी सुनाई-बताई न जाए तो आपको अहसास ही नहीं होगा कि इस किले को लेकर इतना डर रहता है।

इसके ठीक विपरीत जब आप कांकवाड़ी के किले में जाते हैं तो उस इलाके की बीहड़ता और किले की वीरानी आपको भीतर ही भीतर असहज कर देती है। भानगढ़ तक तो सड़क जाती है, वहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। लेकिन कांकवाड़ी के किले तक पहुंचने में ही हालत खराब हो जाती है क्योंकि यह सरिस्का टाइगर रिजर्व के प्रवेश द्वार से भी करीब 25 किलोमीटर दूर घने जंगल में है।

बाघ-तेंदुए व तमाम जंगली जानवरों से भरे जंगल के उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते पर आपको सफारी की खुली जीप से ही किले तक पहुंचना होता है। अगर आप वहां ढंग से पहुंच भी जाएं तो किले में घुसते हुए डर लगता है। जब हम लोग किले में पहुंचे तो वहां एक भी इंसान नहीं था। हम ही किले का दरवाजा खोलकर भीतर घुसे। अंदर जाते हुए अनजाना सा डर लगता है और यह डर केवल इस बात का नहीं होता कि कहां कोई जंगली जानवर अचानक सामने न आ जाए। उस किले की वीरानी से भी आप थोड़े असहज हो जाते हैं।

भानगढ़ का इलाका बड़ा है क्योंकि वह दरअसल किले के साथ-साथ एक नगरी भी थी। लेकिन कांकवाड़ी में केवल एक किला है। एक और बात, भानगढ़ में उसके पीछे की तमाम कहानियों को किनारे रखकर देखें तो उस इमारत के रखरखाव से आपको काफी निराशा होगी। लेकिन इसके विपरीत कांकवाड़ी का किला काफी बेहतर स्थिति में है- खामोशी से मानो किसी का इंतजार करता हुआ। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि भानगढ़ का किला तमाम चर्चाओं की वजह से सैलानियों की आपाधापी का शिकार रहता है, वहां पहुंचना भी आसान है। लेकिन कांकवाड़ी का किला पहुंचना थोड़ा मुश्किल है, इसलिए टूरिज्म की मारामारी से वह बचा रहा है।

किले से बहुत पहले जंगल में स्थित यह दरवाजा आपको न्यौता सा देता लगता है

आइए, थोड़ी इतिहास की बात करते हैं। भानगढ़ का किला थोड़ा पुराना है- कांकवाड़ी से करीब सौ साल पहले बना हुआ। भानगढ़ शायद अकबर के समय में बना होगा और कांकवाड़ी का किला औरंगजेब के समय में। लेकिन मजेदार बात यह है कि दोनों ही किला का संबंध आमेर के शासकों से है। भानगढ़ का किला 16वीं सदी में राजा मान सिंह के पिता भगवंत दास ने बनवाया था जबकि कांकवाड़ी का किला 17वीं सदी में मान सिंह के पोते राजा जयसिंह प्रथम ने। मान सिंह के बारे में हम जानते ही हैं, वह अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। वहीं, जयसिंह प्रथम औरंगजेब की सेना में बड़े ओहदे पर थे।

कांकवाड़ी का किला किस मकसद से बनाया गया था, उसका क्या इस्तेमाल होता रहा, इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हो सकता है कि आमेर के राजाओं ने शिकार के इरादे से यहां जंगलों में आने के लिए किले के रूप में एक ठिकाना बनाया हो। लेकिन यह तय है कि यह दुर्गम होने की वजह से सुरक्षित रहा होगा। कांकवाड़ी के किले की इतिहास में सबसे ज्यादा ख्याति इसी बात के लिए है कि औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह को यहां कुछ समय कैद करके रखा था। जंगली जानवरों से भरे इस जंगल में किसी के लिए पहुंचना मुश्किल था। शायद इसी दुर्गमता की वजह से औरंगजेब ने दारा शिकोह को यहां कैद करके रखा हो।

भानगढ़ के किले के विपरीत कांकवाड़ी का किला काफी अच्छी हालत में है। किले के बाहरी हिस्से में जरूर कुछ झाड़-झंखाड़ उग आई हैं लेकिन ऊपर मुख्य इमारत और कमरे काफी ठीक-ठाक हैं। किले की बनावट भी आम किलों जैसी नहीं है, जैसे कि उसके बगीचे की डिजाइन। इसमें सफेद संगमरमर की झलक देने के लिए चूना पत्थर का खूब इस्तेमाल किया गया है। अफसोस इसी बात का है कि किले के बाहर या भीतर उसके इतिहास, बनावट और उसकी अहमियत को लेकर कहीं कोई जानकारी अंकित नहीं है।

किले की बनावट पारंपरिक किस्म की है। पहाड़ चढ़ने पर एक रास्ता है और रास्ता खत्म होने के बाद नब्बे अंश के कोण पर मुख्य दरवाजा है। इस शैली का इस्तेमाल मुख्य दरवाजे पर प्रहार करने के लिए हमलावरों को कोई जगह न देने के इरादे से किया जाता था। दरवाजे से भीतर जाने के बाद तुरंत ही फिर नब्बे डिग्री के कोण पर घूम कर एक रास्ता दोनों तरफ ऊंची किलेनुमा दीवार के बीच से मुख्य किले के प्रवेश द्वार तक है। पहाड़ी की तलहटी में दूसरी तरफ एक बड़ी झील है। झील के किनारे एक रास्ता बना है जो सीधा ऊपर चढ़कर किले में पहले दरवाजे से दूसरे दरवाजे के बीच बने रास्ते में बीच में जाकर खुलता था। कहा जाता है कि यह रास्ता घुड़सवार सेना के लिए मुख्य दरवाजे का इस्तेमाल किए बिना, सीधे किले में आने-जाने के लिए था। मुख्य किले में भीतर घुसते ही सामने एक तिबारा है और उसी के बगल से रास्ता ऊपर चढ़ता है।

किला तिबारे से लेकर ऊपर तक पांच मंजिल में बना है। किले के एक हिस्से से दूसरे और एक तले से ऊपर के तले में जाने के लिए सीढ़ियां व गलियारे बने हैं। कई गुप्त रास्ते भी नजर आते हैं। कमरों में दीवारों पर पुरानी कलाकारी के नमूने अब भी देखने को मिल जाते हैं। सबसे ऊपर किले की छत से चारों तरफ जंगल का बेहद शानदार नजारा देखने को मिलता है।

किले के कई हिस्से व कमरे अब भी बंद हैं। रिजर्व फॉरेस्ट में होने के कारण यह किला वन विभाग के कब्जे में है। किले में घूमते हुए अचानक आपको कभी पक्षियों की तेज चीख सुनाई दे जाती है या फिर बंदर की आवाज। जंगल में होने के कारण ऐसा सामान्य है, लेकिन इतने बड़े किले में अकेले घूमते हुए कोई भी आवाज या तेज हवा की सांय-सांय भी आपको डरा देती है।

किले के पीछे के हिस्से में एक बड़ी सी बावड़ी है। इसमें हरी काई से ढका पानी है। इसमें नीचे उतरने की सीढ़ियां भी हैं। देखने से लगता है कि पानी की सतह के नीचे भी कुछ और ढांचा है। कुछ लोग कहते हैं कि दारा शिकोह को इसी में रखा गया था। कुछ लोग कहते हैं कि यह बागियों को सजा देने की जगह थी। कैसे? यह तो जानना मुश्किल है। लेकिन देखने में ही यह जगह अजीबोगरीब लगती है कि क्योंकि इधर आए बिना आपको पता नहीं चलता कि किले के पिछवाड़े में ऐसी भी कोई जगह है।

कांकवाड़ी किली जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसकी तलहटी में एक छोटा सा गांव है जिसका नाम कांकवाड़ी गांव ही है। कुछ परिवार अब भी उस गांव में रहते हैं। यह उन कुछ गिने-चुने गावों में से है, जो अब भी इस टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में स्थित हैं। हालांकि इसे सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार स्थानांतरित किया जाना था लेकिन कुछ परिवार अब भी वहां हैं।

कुछ साल पहले यह किला विवाद के जड़ में भी रहा था जब इसे इको-टूरिज्म के लिए खोलने की योजना थी। हालांकि तत्कालीन केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसका कड़ा विरोध किया था। संभवतया इसी वजह से बाद में इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

खैर, जितनी जल्दी मुमकिन था, किले को पूरा देखकर हम लौट गए, आखिर सफारी के वक्त में ही हमें जंगल से बाहर भी निकल जाना था। लेकिन एक दिन पहले देखे भानगढ़ के किले से कहीं ज्यादा रोमांचित हमें कांकवाड़ी के किले ने किया, इसमें कोई संदेह नहीं। अगर आप कभी वहां जाएं तो हमें अपने अनुभव के बारे में जरूर बताइगा।

खास बातें

  • किले के आसपास आपको बड़े रोचक तरीके से खजूर (डेट पाम) के पेड़ मिल जाएंगे। यहां के लोगों का कहना है कि यह मुगलों को ईरान-अफगानिस्तान की याद दिलाते रहने के लिए लगाए गए थे।
  • किले के नीचे पहाड़ी की तलहटी में एक खूबसूरत झील है। यह झील प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए बेहद शानदार जगह मानी जाती है।
  • जैसा कि हमने पहले कहा, किला टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में है। लेकिन खास तौर पर कांकवाड़ी फोर्ट देने के इच्छुक लोगों के लिए यहां कोई तय नियम नहीं है। यानी आपको टाइगर सफारी के तय समय में ही किला देखने जाना होगा। अब यह समय सवेरे (7 से 10) और दोपहर में (2.30 से 5.30) तीन-तीन घंटे के लिए ही है। अब इसके दो पहलू हैं- एक तो आपको किला देखने के लिए पूरी सफारी और साथ में गाइड का शुल्क अदा करना होगा (पार्क में आप बगैर गाइड के नहीं जा सकते हैं)।
  • दूसरा, तीन घंटे में आपको पार्क में भीतर प्रवेश करके किले तक पहुंचकर (सरिस्का गेट से करीब 25 किमी अंदर), उसे देखकर फिर से निर्धारित समय में बाहर निकलना होगा। पार्क के ऊबड़-खाबड़, ऊपर-नीचे पहाड़ी रास्तों पर यह कोई आसान काम नहीं। ठीक विपरीत दिशा में पार्क का टहला गेट किले के थोड़ा नजदीक है। लेकिन फिर टहला दौसा-जयपुर की तरफ से आने वाले सैलानियों के लिए नजदीक है। दिल्ली की दिशा से आने वालों के लिए सरिस्का गेट ही नजदीक पड़ता है।
  • इससे यह तो तय है कि आप टाइगर देखने और फोर्ट की सैर करने को एक ही सफारी में नहीं कर सकते। हालांकि फोर्ट आते-जाते आपको रास्ते में तमाम जानवरों के दर्शन तो हो ही सकते हैं, किस्मत से टाइगर के भी! हालांकि इस बार जब हम सरिस्का में टाइगर सफारी के लिए गए थे तो हमारे साथ के गाइड ने कांकवाड़ी जाने के लिए दिन में जीप बुक करने का कोई जिक्र किया था. लेकिन इसकी कोई आधिकारिक जानकारी हमें नहीं मिल सकी। हकीकत यह है कि सरिस्का में सफारी करने जाने वालों में बमुश्किल पांच-सात फीसदी ही कांकवाड़ी जाने का इरादा करते होंगे।
  • फोर्ट वन विभाग के तहत है और लिहाजा फोर्ट के लिए कोई तयशुदा कर्मचारी जिम्मेदार नहीं हैं। तो वहां पहुंचने पर यही उम्मीद करनी होगी कि या तो वन विभाग ने किले के दरवाजे खुले छोड़ रखे हों या फिर निकट की वन विभाग की चौकी पर कोई कर्मचारी हो जिसके पास किले की चाबी हो। तभी आप किले में घुस सकेंगे।

लेकिन इन तमाम किंतु-परंतु के बावजूद हकीकत यही है कि तमाम जंगली जानवरों से भरे घने जंगल के बीचों-बीच इस किले को देखने का अनुभव एकदम अलग है।

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