Tuesday, November 5
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अब की बार चले नर्मदा तट पर महेश्वर

मध्य प्रदेश तो इतिहास, कला, स्थापत्य, शिल्प, परंपरा, प्राकृतिक सौंदर्य और वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों का खज़ाना है, लेकिन इस बार मेरा मन अटक गया महेश्वर पर। दिल्ली से इंडिगो की सवेरे 11 बजे की फ्लाइट ली और डेढ़ घंटे में आ पहुंचे हम इंदौर एयरपोर्ट पर। वहां पहले से ही बुक की हुई टैक्सी पकड़ी और चल पड़े सीधे महेश्वर की ओर। इंदौर नगर पार करते-करते कुछ भूख महसूस हुई तो ए.बी. रोड पर राजेंद्र नगर में  ड्राइवर ने श्रीमाया सेलिब्रेशन रेस्टोरेंट के सामने गाड़ी को रोक दिया।

घाट पर कुछ साधु बैरागी अलमस्त अपने में मग्न, तो कहीं स्नान करते श्रद्धालु और, उधर पश्चिम में सूर्य अपनी सुनहरी आभा के साथ विदा लेने की तैयारी में… महेश्वर का यह बहुत ही सुंदर नज़ारा था

साफ़ और सुंदर, हरियाली से घिरे इस स्पेशियस रेस्टोरेंट में मल्टी-क्यूज़िन व्यंजन उपलब्ध हैं, और साथ में हैं चुस्त सेवा। मेन्यू देखिए, पेमेंट कीजिए और आपका पसंदीदा खाना आपकी टेबल पर सर्व कर दिया जाएगा। अब हम चले ए.बी. रोड (राष्टीय राजमार्ग-3) पर महेश्वर की ओर। रास्ते में छोटे-मोटे गांव और कस्बे आते रहे, ट्रैफिक सामान्य था। मनमोहक नज़ारे उस समय आए जब हमने दो घाट- पहले भैरव ओर फिर गणपति घाट पार किए। घाट के मार्ग के चढ़ाव-उतार, सर्पीला घुमावदार रास्ता और दोनों ओर की गहन हरियाली- हमारी यात्रा का आनंद दोगुना कर रहे थे। जहां धामनोद 5 किलोमीटर दूर होने का मील का पत्थर आया तो वहां से हम बाईं और जाने वाले रास्ते पर मुड़ गए। वहाँ से 11 किलोमीटर की दूरी पर है महेश्वर।

महेश्वर शहर पहुंचकर शुरू में ही दाईं ओर सहस्त्रधारा रोड पर बिलकुल नज़दीक था हमारा होटल कंचन रिक्रिएशन। नौ कमरों का तिमंज़िला भवन, साफ़ और सुन्दर, खुले कमरे, सुरुचिपूर्वक बना हुआ। जानने पर पता लगा कि टेक्निकली यह होटल नहीं, होमस्टे है। भोजन के लिए कम से कम आधा घंटा पहले आर्डर करना होगा। इस बात को छोड़ दें तो यहाँ की चुस्त पर्सनलाइज़्ड सर्विस, स्वादिष्ट व्यंजन औऱ ताज़गी देती चाय ने इसको मेरा पसंदीदा होटल बना दिया। मिड-रेंज बजट यात्रिओं के लिए अति-उत्तम।  होटल में चेक-इन औऱ चाय के बाद हम निकल पड़े रानी अहिल्याबाई फोर्ट की ओर।

महेश्वर में किले के प्रवेश द्वार के भीतर लगी महारानी अहिल्या बाई होल्कर की आदमकद प्रतिमा यहां के इतिहास में उनके योगदान की याद दिलाती है

फोर्ट की पार्किंग में गाड़ी खड़ी की तो एक साइनबोर्ड़ की ओर ध्यान गया जिस पर ‘गोबर गणेश मंदिर’ का दिशा निर्देश था। बोर्ड देखकर मन में कुछ उत्सुकता जागी, लेकिन सोचा फोर्ट देखने के बाद यहाँ जाएंगे। कुछ आगे जाने पर हम राजमाता अहिल्या बाई होल्कर के फोर्ट के प्रवेश द्वार के सामने पहुंचे। प्रवेश द्वार मेरी कल्पना के अनुरूप कोई फतेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाज़ा जैसा विशाल नहीं था, बस एक बड़ा सा द्वार जैसा बड़ी बड़ी हवेलियों में अक्सर देखने को मिल जाता है। यह किला नर्मदा से सटी  एक छोटी पहाड़ी पर बना है।

यह रजवाड़े यानी राज परिवार के रहने के स्थान का द्वार था। फोर्ट के कुछ हिस्से को एक हेरिटेज होटल में बदल दिया गया है और शेष में फोर्ट के बाकी सब हिस्से फैले हैं। इनमें मंदिर, घाट, आदि वह सभी स्थान हैं जो पर्यटकों की रुचि के दायरे में आते हैं। प्रवेश द्वार से अंदर जाते ही बायीं ओर राजमाता अहिल्या बाई की आदमकद मूर्ति दिखाई दी। मानों आज भी वह 18वीं सदी में अपने बनवाए गए किले व घाट आदि को निहार रही हैं। सुंदर मूर्ति उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक देती हैं। इंदौर के आस-पास के सारे इलाके में उनके द्वारा कराये गए कल्याण कार्यों के लिए लोग आज भी सम्मान से उन्हें देवी या माँ के रूप में स्मरण करते हैं।

हम आगे बढ़े तो हमारी दाईं ओर किले का नर्मदा किनारे वाला भाग और उसके आगे बह रही थी नर्मदा नदी। हम लगातार ढलान वाले मार्ग पर थे और हमारे सामने से लोग ऊपर की ओर आ रहे थे। तभी हम एक जगह पहुंचे जहां बाईं ओर था रेहवा सोसाइटी का बुनाई और बिक्री परिसर और दाईं ओर नीचे नर्मदा घाट की ओर सीढ़ियां उतर रही थीं। कुछ सीढ़ियां उतरने पर एक समतल स्थान आया जिसके दाईं ओर कुछ ऊपर चढ़कर था महादेव का मंदिर।

कुछ सीढियां चढ़कर एक चौकोर स्थान और इसके बीच में कुछ और चढ़कर मंडप में संगमरमर के बने नंदी और गर्भगृह में सुंदर शिवलिंग। यहां न कोई भीड़भाड़ थी और न कोई शोर। यहां का शांत वातावरण मन को बहुत भाया। मंदिर की बाहरी दीवार पर भगवान विष्णु की, और अन्य की मूर्तियां थीं। दो सौ साल से अधिक पुराना लेकिन साफ़ और सुंदर था मंदिर। और, ऐसे ही साफ़ सुंदर थे किले की चाहरदीवारी, परकोटा आदि। मंदिर परिसर के एक ओर था राम, लक्ष्मण और सीता का छोटा सा मनमोहक मंदिर, और सामने की ओर हनुमान का।

महेश्वर मंं नर्मदा नदी के घाट पर लोगों की चहल-पहल

वहां से नीचे उतरकर कर नर्मदा घाट की ओर चले और सीढ़ियां उतर कर घाट पर पहुंचे। शाम का खुशनुमा वातावरण था। सामने मनोरम दृश्य था। एक ओर फोर्ट की दीवार में नक्काशीदार झरोखे, घाट की सीढ़ियां और दूसरी ओर घाट के किनारे की चहल पहल। माँ नर्मदा को यहाँ गंगा के समान ही पवित्र माना जाता है। शांत सलिला के निरंतर बहाव में कुछ लोग नौका विहार में मग्न थे।

घाट पर छोटी-छोटी दुकानें, खाने-पीने की भरपूर चीज़ें। कुछ बकरियां यात्रियों से कुछ खाना मिलने की आशा में इधर-उधर घूम रहीं थीं तो कुछ श्रद्धालु मछलियों के लिए आटे की गोलियां जल में डाल रहे और उन्हें लपकने के लिए मछलियों के झुंड भी उछल-उछल कर आ रहे थे, मिल रहे भोजन को पाने की होड़ सी थी। एक घाट पर कुछ साधु बैरागी अलमस्त अपने में मग्न थे। उधर पश्चिम में सूर्य अपनी सुनहरी आभा के साथ विदा लेने की तैयारी में था। बहुत ही सुंदर नज़ारा था।

अब हम वापिस ऊपर की ओर चले और रेहवा सोसाइटी के सामने पहुँच गए। आश्चर्य की बात थी कि इस सब उतराई-चढ़ाई में किसी भी तरह की कोई थकान महसूस नहीं हुई। किले और घाटों की यह मनोरम यात्रा एक सुंदर कविता पढ़ने के समान थी जिसमें थकान का कोई स्थान नहीं होता। यह इस स्थान की अपनी महिमा है जिसका जिक्र रामायण और महाभारत में भी आता है।

महेश्वर लंबे समय से अपनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है जो यहाँ की अपनी ही विशेषता है। हैंडलूम पर बुनाई यहाँ की पुरातन परंपरा है। इस दिशा में आज के समय में रेहवा सोसाइटी का अपना एक योगदान हैं। हम सोसाइटी के सेल्स ऑफिस में गए और वहां पर उपलब्ध चीजों का जायज़ा लिया और इसके बुनाई परिसर में करघों पर हो रहे काम का दृश्य भी बड़ी दिलचस्पी से देखा।

हैंडलूम पर बुनाई यहाँ की पुरातन परंपरा है। इस कला को बनाए रखने की खूब कोशिशें हो रही हैं

शाम हो चली थी। अब कुछ ही लोग काम पर थे लेकिन वहां की व्यवस्था देखकर अच्छा लगा। पास ही था राज राजेश्वर सहस्त्रार्जुन का मंदिर। यह वही मिथकीय राज राजेश्वर हैं जिन्होंने लंका नरेश रावण को भी बंदी बना लिया था और कहा जाता है कि राज राजेश्वर की रानियां रावण के दसों सिरों पर दीपक जलाती थीं। उसी परंपरा में प्राचीन काल से  आज भी 11 दीपक निरंतर इस मंदिर में जल रहे हैं।  महेश्वर का बहुत पुराना नाम है महिष्मति और रामायण काल से जुड़ी बहुत सी ऐतिहासिक धार्मिक घटनाएं, परंपराएं यहां से जुड़ी हुई हैं। छोटा सा नगर पर अपने अंतर में बहुत कुछ संजोये हुए है।

शायद यही कारण है कि महेश्वर फिल्म निर्माताओं की भी पसंदीदा लोकेशन है जहां एक ही कॉम्पैक्ट जगह पर सुन्दर फोर्ट, हेरिटेज होटल, प्राचीन मंदिर, नदी और उसके सुरम्य घाट उपलब्ध हैं। साथ ही बड़े नगरों की तरह शूटिंग में व्यवधान डालने वाली भीड़ की समस्या भी नहीं है। इसीलिए यहां बहुत सी फिल्मों की शूटिंग हुई है और यह सिलसिला यहां लगा रहता है।

महेश्वर में राज राजेश्वर सहस्त्रार्जुन का मंदिर

अब अँधेरा होने लगा था, हम लौटते हुए किले के दूसरे दरवाजे की ओर चल पड़े। इस किले की यह विशेष बात थी कि इसके भीतर रजवाड़ा भी है तो मंदिर और सुरम्य घाट भी। नर्मदा के दर्शन-स्नान हैं, कुछ दुकानें भी हैं, बुनकर सोसाइटी है और यहीं पर लोगों के छोटे और पुराने घर भी हैं। रास्ते में देखा कि अपने-अपने घरों में संध्या की दिया-बाती करने के बाद परिवार साथ बैठे हैं और रात के भोजन की तैयारी और गपशप चल रही है। इस तरह हम किले के दूसरे दरवाजे से बाहर आए और होटल की ओर चल दिए।

अगले दिन सुबह-सुबह तैयार हुए, अपने होटल में स्वादिष्ट नाश्ता किया और सहस्त्रधारा की ओर चल दिए जो महेश्वर से बाहर 4-5 किलोमीटर की दूरी पर है। हमारे सामने अद्भुत दृश्य था। नर्मदा यहाँ आकर हज़ारों शाखाओं में बंट जाती है। हमारे सामने नदी की अलग-अलग धाराओं का मनमोहक नज़ारा था। प्रकृति का सुन्दर खेल, हम बस देखते ही रहे। ड्राइवर के याद दिलाने पर ही याद आया कि अब चला जाए क्योंकि आज ही ओंकारेश्वर भी निकलना है।

करीब नौ सौ साल पुराना है महेश्वर स्थित गोबर गणेश मंदिर

अब होटल से चेक आउट किया। यह देखकर बहुत अच्छा लगा मैनेजर ने हमारा बिल बड़े आदर के साथ हरी पत्तियों में सजे एक गुलाब के साथ पेश किया। गाड़ी चली तो याद आया कि पिछले दिन हमने जिस गोबर गणेश मंदिर का साइनबोर्ड देखा था वहां जाना जरूरी है, वरना मन में उत्सुकता बनी ही रहेगी। ड्राइवर इसमें बहुत उत्साहित तो नहीं था लेकिन हमारे चाहने पर फोर्ट की पार्किंग के पास ही वह हमें एक गली में स्थित गोबर गणेश मंदिर तक ले ही आया। सामने था मंदिर का गेरुए रंग में पुता छोटा सा भवन, लगभग कुल 1500 फुट इलाके में बना। अंदर प्रवेश कर देखा तो पाया कि इसके दो ही भाग हैं, मंडप और गर्भगृह। गर्भगृह में स्थापित गणेश जी का विग्रह अत्यंत सुन्दर और प्रभावशाली था। इसमें अवश्य कुछ था जो हमें यहाँ खींच लाया था, और इसका आकर्षण देखते ही बनता था।

मंदिर के भीतर गणेश की प्रतिमा

वहां के पुजारी से बातचीत कर मालूम हुआ कि मंदिर नौ सौ वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोद्धार ढाई सौ साल पहले देवी अहिल्या बाई होलकर ने करवाया था। हाल ही में 13 साल पहले फिर से इसका जीर्णोद्धार हुआ, लेकिन अबकी बार जनसहयोग से। गोबर गणेश का महत्व यह था कि इस विग्रह के निर्माण में गोबर का भी अंश है जिससे इसकी महत्ता और पवित्रता और भी बढ़ जाती है। गोबर और मिट्टी से बने विग्रह में भूमि तत्व आ जाता है और माना जाता है कि यह गणेश जी अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। यह मंदिर देखने के बाद हमारे मन की उत्सुकता शांत हुई और अब पूरे आनंद और महेश्वर यात्रा की ताज़ा यादों में खोए हम बढ़ चले ओंकारेश्वर की ओर।

2 Comments

  1. It looks so nice, after a time gap, I could not believe at first that it was written by me. Big thanks.
    I found Trivandrum, Gangtok , Maheshwar, Shantiniketan, Cuttack very fascinating places in India.

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