Wednesday, December 25
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बर्फ की चादर पर रोमांच

जांस्कर नदी हमारे उत्तर भारत के उस इलाके में स्थित हैं जो लगभग सात से आठ महीने तक दुनिया के बाकी हिस्सों से अलग-थलग पड़ जाता है। इस दौरान यहां एक अलग ही दुनिया होती है। इसे देखकर लगता है मानो हम हिम-युग में पहुंच गए हैं।

जम्मू-कश्मीर के लद्दाख इलाके में जांस्कर क्षेत्र में स्थित जांस्कर नदी इन महीनों में पूरी तरफ बर्फ से ढक जाती है। मानो किसी ने नदी को सफेद चादर से ढक दिया हो। यह नजारा विलक्षण, अद्भुत व अविस्मरणीय बन पड़ता है। ऊपर बर्फ की ठोस मोटी परत और उसके नीचे से बहती हुई नदी की निर्मल, अविरल धारा। रोचक बात है कि बर्फ की यही चादर इन महीनों में इस इलाके की जीवनरेखा बन जाती है। प्राचीन काल से ही बर्फ से ढके इस रास्ते पर राजा-महाराजा, साधु-संन्यासी, बौद्ध भिक्षु और आम लोग तमाम तकलीफों से जूझते हुए भी अपने मुकाम पर बढ़ते रहे हैं। अब यह दुष्कर रास्ता हमेशा तो इस तरह से नजर नहीं आता। इसलिए कई लोगों ने इस रास्ते पर चलते हुए अपनी जान भी गंवाई है। लेकिन तमाम लोग ऐसे भी हुए जिन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ इस रास्ते का पार किया।

दुनिया के सबसे रोमांचकारी ट्रैक में से एक है चादर ट्रै

उस इलाके के लोगों के लिए तो इस चादर को कुछ दूरी तक पार करना भले ही सहज रहा हो लेकिन देश-दुनिया के रोमांचप्रेमियों के लिए यह हमेशा से बड़ी चुनौती रही है। यही कारण है कि चादर ट्रैक की गिनती अक्सर दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण चौदह ट्रैकिंग रास्तों में होती है। अपने सामने हमेशा नई चुनौती रखने वाले रोमांचप्रेमी कड़ाके की सर्दी में इस बीहड़ इलाके में आते रहे हैं।

जांस्कर नदी लद्दाख के निमु में आकर सिंधु नदी में मिलती है। इस चादर की समुद्र तल से ऊंचाई 11 से 12 हजार फुट के बीच है। इस इलाके में जांस्कर नदी के दोनों तरफ सैकड़ों फुट ऊंची चट्टानों से बनी खड़ी पहाड़ियां हैं। इतनी खड़ी कि अगर आप नजर उठाएं तो आसमान बमुश्किल दिखे। इसीलिए चादर ट्रैक जांस्कर के जिस खड्ड से होकर गुजरता है उसमें धूप बमुश्किल ही पहुंचती है। कई जगहों पर तो इस खड्ड में जांस्कर नदी के पाट की चौड़ाई महज पांच मीटर तक है। लिहाजा सर्दियों में यहां दिन का तापमान भी शून्य से बीस डिग्री नीचे तक पहुंच जाता है। सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच क्या हाल रहता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

यहां रास्ते में इन चट्टानों के बीच ही कई प्राकृतिक गुफाएं भी हैं। अक्सर ट्रैकर्स इन गुफाओं को ही रात में रुकने के लिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि ढकी होने के कारण यहां ठंड की मार थोड़ी कम पड़ जाती है। इसीलिए स्थानीय लोग कहते हैं यह जितनी खूबसूरत है, उतनी खतरनाक भी। यहां लोग पानी की कमी को बर्फ पिघलाकर पूरा करते हैं। लेकिन पानी की कमी को भले ही इस तरह से पूरा कर लिया जाए, भोजन की कमी को पूरा करने का और कोई तरीका नहीं, इसलिए इस सफर में साथ भोजन लेकर चलना बेहद जरूरी हो जाता है। भोजन खत्म हो जाए और बीच के संपर्क बिंदुओं तक पहुंचने का रास्ता न मिले तो जान जोखिम में पड़ सकती है। लिहाजा इस ट्रैक पर पूरी तैयारी व कड़ी हिम्मत दोनों जरूरी हैं। हर कदम यहां संभलकर रखना होता है। वैसे यहां आने वाले इस जोखिम को अच्छी तरह जानकर ही आते हैं।

इस रास्ते का जिक्र पहली बार बौद्ध लामा बकुला रेनपोछे के सिलसिले में मिलता है। उनका जन्म जांस्कर इलाके में ही हुआ था। उन्हें स्वतंत्र मंगोलिया का राष्ट्रदूत भी माना जाता था। कहा जाता है कि उन्हीं की प्रेरणा से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दलाई लामा को भारत में प्रश्रय दिया था। चादर ट्रैक पर एक गुफा को बकुला गुफा कहा जाता है क्योंकि उसी में लामा बकुला ने सबसे पहले प्रवास किया था।

पहले इस दुर्गम घाटी में विदेशी सैलानी ही मुख्य रूप से आया करते थे। भारतीय सैलानियों की संख्या नाममात्र की ही थी। लेकिन पिछले एक दशक में इस स्थिति में खासा बदलाव आया है। अब यह अनुपात पलट गया है। इसकी एक वजह यह भी है कि यह ट्रैक आयोजित करवाने वाले ऑपरेटर्स बढ़ गए हैं। बेहतर सुविधाओं व साजो-सामान की वजह से ट्रैकिंग अपेक्षाकृत सुरक्षित हो गई है। उसके अलावा बीच में कई बिंदु सड़क मार्ग से जुड़ गए हैं। यह ट्रैक आम तौर पर जनवरी व फरवरी के महीनों में किया जाता है, जब बर्फ की सतह ठोस हो जाती है और चलने के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित मानी जाती है। इसीलिए सर्दियों के मौसम में जब बर्फ गिरने से बाकी रास्ते बंद हो जाया करते थे तो जमी हुई जांस्कर नदी ही इस इलाके के लोगों के लिए संपर्क मार्ग का काम करती थी। सदियों से इसे व्यापारिक मार्ग के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता रहा। बाद में यह रोमांचक गतिविधि में तब्दील हो गया।

लेकिन पिछले पंद्रह सालों में चादर ट्रैक के स्वरूप में काफी बदलाव आया है। शुरुआती दिनों में यह ट्रैक 21-22 दिन में पूरा होता था। अब आप चार-पांच दिन में भी चादर ट्रैक कर सकते हैं क्योंकि कई जगहों तक सड़क बन गई है। यहां 1998 में दारचा से लेकर पदुम व निमु तक सड़क की आधारशिला रखी गई थी। यह सड़क चिलिंग को पार करके आगे पहुंच चुकी है। इस वजह से अब ट्रैकर तिलत-दो को पार करके चादर ट्रैक की शुरुआत करते हैं। पहले यह ट्रैक लेह से 55 किलोमीटर दूर चिलिंग से शुरू होकर जांगला तक रहता था। अब निमु से चिलिंग होते हुए तिलत-दो तक सड़क बन गई है और उधर दूसरे छोर पर सारक-दो से जांगला तक सड़क बन चुकी है। लिहाजा शिंगरी कोमा, टिब योग्मा, न्येरक और सारक-दो होते हुए बीच का ट्रैक चार-पांच दिन का ही रह गया है।

जंस्कार घाटी का बर्फीला नजारा

अब इस नदी के साथ लगे खड़े पहाड़ों में से सड़क काटी जा रही है। बहुत जल्द ही जांस्कर के भीतरी गांवों तक इन सड़कों के रास्ते पहुंचना आसान हो जाएगा। स्वाभाविक भी है कि बर्फ की नदी पर जाने की तुलना में सड़क का रास्ता ज्यादा सुरक्षित भी होगा। लेकिन इसका असर चादर ट्रैक पर भी तो पड़ेगा ही। ज्यादा संख्या में लोगों व सड़क पहुंच जाने की स्थिति में वाहनों के आवागमन और जलवायु परिवर्तन के असर से बर्फ कम जमेगी और जल्दी पिघलेगी। जानकार लोगों का कहना है कि आने वाले पांच-सात सालों में चादर ट्रैक का स्वरूप हो सकता है कि वह न रहे जो अब है। बेहतर होगा, इसका अनुभव जल्द ले लिया जाए।

चादर की हिफाजत

चादर ट्रैक बिना पक्की योजना और गाइड के करना ठीक नहीं। उसमें जोखिम ज्यादा हो सकता है। कोलकाता की रूपायन टूरिज्म एक्सप्लोरिंग सोसायटी ने 2005 से ही इस रास्ते पर ट्रैकिंग अभियानों को आयोजित करना शुरू कर दिया था। वर्ष 2005 में उसका अभियान प्राकृतिक आपदा की वजह से पूरा नहीं हो पाया था लेकिन 2006 में उनका अभियान केवल नौ दिन में पदुम तक पहुंचा। फिर 2008 में उन्होंने हेलीकॉप्टर के जरिये पदुम से हानी मोर तक सफर पूरा किया था। फिर हानी मोर से तिलत-दो तक का रास्ता उन्होंने पांच दिन में पूरा किया। फिर 2016 में चार दिन में यह रास्ता पूरा किया गया। इस सोसायटी ने इस कुदरती चादर को जलवायु परिवर्तन और सैलानियों के कचरे से बचाने के लिए जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग के साथ मिलकर ‘सेव चादर’ (चादर बचाओ) नाम से एक अभियान की भी शुरुआत की। इसका मकसद चादर ट्रैक को पारिस्थितिकी के लिहाज से ज्यादा जिम्मेदार बनाना था। सोसायटी से जुड़े कमलेश कमिला किसी चादर ट्रैक के पहले अभियान लीडर थे जो पूर्वी भारत से आए थे। जॉली साहा 2007 में चादर ट्रैक करने वाली पहली भारतीय (गैर-लद्दाखी) महिला बनी। उन्होंने 2005 में भी इस अभियान के लिए कोशिश की थी लेकिन खराब मौसम की वजह से उस साल उन्हें अभियान बीच में छोड़ना पड़ा था। दीप्ति नवल चादर ट्रैक करने वाली दूसरी भारतीय (गैर-लद्दाखी) महिला बनीं।

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