दारमा घाटी को करीब दो दशक बाद फिर से अनुभव करना एक खूबसूरत ख्वाब को जीने जैसा था। मैं यकीनन इसे उत्तराखंड ही नहीं समूचे हिमालय की सबसे खूबसूरत घाटियों में से एक मानता हूं। मैं वहां सबसे पहले 2001 में अपने कुछ घुमक्कड़ साथियों के साथ गया था। इस बार यह देखकर कितना सुकून मिला कि पिछले 18-19 सालों में दारमा घाटी खूबसूरती के मामले में जरा भी कम नहीं हुई है। वही धौलीगंगा का निर्मल बहता पानी, वही पंचाचूली की मोहित करती चोटियां, वहा बुग्यालों की आरामदायक हरी गद्देदार बुग्गी घास और वही वहां के निवासियों का आदर सत्कार।
एक प्रकृति प्रेमी और फोटोग्राफर होने के नाते कम से कम दारमा घाटी के लिए तो यह कहा ही जा सकता है कि दारमा नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। खास तौर पर दारमा के दुक्तु और दांतू गांव से पंचाचूली चोटियों का नयनाभिराम दृश्य आपको पागल बना देता है। दुक्तु व दांतु से पंचाचूली की विराट हिमालयी चोटियां और उनकी तलहटी से निकलती चूली एक सुंदर कंपोजिशन बनाती है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर एक खूबसूरत सी पेंटिंग रच दी हो।
दुक्तु और दांतू गांव दारमा घाटी के सबसे खूबसूरत छोर पर एक-दूसरे के सामने बसे हुए हैं। हालांकि ये दो गांव दारमा घाटी के कुल 19 गांवों में शामिल हैं। घाटी के बाकी प्रमुख गांवों में सेला, नागलिंग, बेदांग, मारछा आदि शामिल हैं। दुक्तू व दांतू से पंचाचूली ग्लेशियर तक जाने का ट्रैक है तो महज तीन-चार किलोमीटर का लेकिन इस दूरी को तय करने में शायद आपका पूरा दिन निकल जाए। ऐसा इस वजह से है कि दिन अगर साफ हो (यानी जिस दिन पंचाचूली श्रृंखला की चोटियां साफ दिख रही हों), और आप रात में दुक्तु गांव में रुके हों तो जाहिर है कि तड़के आप पंचाचूली ग्लेशियर तक का रास्ता तय करेंगे। अब वह दिन आपकी जिंदगी में प्रकृति के साथ सानिध्य के सबसे खूबसूरत व यादगार दिनों में से एक हो सकता है। दुक्तु से महज सौ मीटर चलने के बाद ही आपको पंचाचूली चोटियों का मंत्रमुग्ध करने वाला नजारा मिलना शुरू हो जाता है। आप तड़के निकल गए हों तो जब सूरज की पहली किरणें पंचाचूली चोटियों पर गिरते देखेंगे तो उनका सौंदर्य आपको और निखरा हुआ नजर आएगा। ऐसे में अगर आप फोटो खींचने के शौकीन हों तो आप हर कदम पर कई-कई फोटो खींचने के बाद ही अगला कदम बढ़ाएंगे। पंचाचूली और आसपास का नजारा आपको मोहपाश में बांध लेता है। ऐसे में तीन-चार किलोमीटर का फासला भी बहुत वक्त लेकर ही पूरा होगा।
अगर आप अप्रैल से लेकर जून के दरम्यान दारमा घाटी जाते हैं तो वहां आपको भांति-भांति के बुरांश के फूल खिले नजर आएंगे। सामान्य तौर पर हमें निचले हिमालयों के बाकी इलाकों में लाल-गुलाबी रंग का ही बुरांश ज्यादातर देखने को मिलता है लेकिन यहां ऊंचाई थोड़ी ज्यादा होने के कारण आपको अलग-अलग रंगों में बुरांश नजर आ जाएगा, खास तौर पर सफेद और बैंगनी रंगों में। ग्लेशियर की तलहटी में भोजपत्र का भी सुंदर जंगल है। चढ़ाई चढ़ते हुए अगर धूप सताने लगे तो इस जंगल के पेड़ों की छाया में थोड़ा सुस्ताया जा सकता है। बीच-बीच में बुग्याल मिलते रहेंगे और जब पंचाचूली की सफेद चोटियों की पृष्ठभूमि में हरे-भरे बुग्यालों को देखा जाए तो वे एक प्राकृतिक स्टेज का सा निर्माण कर देते हैं, आखिर यह प्रकृति का रंगमंच ही तो है। एक प्रकृति प्रेमी इस स्टेज पर कुदरत के न जाने कितने खेलों की कल्पना करता रहता है।
प्रकृति का यह नजारा पल-पल आपके कदमों को थाम लेता है और आप घंटों तक इसे अपने कैमरे और आंखों में समा लेने की कोशिश में लगे रहते हैं। हमने दुक्तु गांव से लेकर पंचाचूली ग्लेशियर से तकरीबन एक-डेढ़ किलोमीटर पहले स्थित हमारी कैंपसाइट तक की दूरी को तय करने में ही लगभग पांच-छह घंटे लगा दिए। इस दौरान मैं लगभग पागलों की तरह फोटोग्राफी कर रहा था और बाकी साथी भी कुदरती नजारे में सुध-बुध खोए हुए थे।
तकरीबन दो दशक बाद यहां दोबारा जाने में एक बहुत बड़ा फर्क तो आ ही गया था और वह था रोड का फर्क। जी हां, उस समय यानी 2001 में और कुछ साल पहले तक भी आपको दारमा घाटी जाने के लिए न्यू सोबला या दर गांव से पंचाचूली ग्लेशियर तक की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती थी। अब सड़क काफी आगे तक बन गई है। दुक्तु या दांतू गांव तक 2017 में सड़क बनाने का काम पूरा हो चुका था और बेदांग गांव तक सड़क का काम चल रहा था। इससे ट्रैक की लंबाई काफी हद तक खत्म सी हो गई है। जाहिर है, इसके फायदे व नुकसान दोनों ही हैं। वहां रहने वाले लोगों के लिए तमाम सुहूलियतों तक पहुंच बनाने का फायदा है लेकिन वहां के नाजुक प्राकृतिक संतुलन के लिए थोड़ा नुकसान। वैसे सड़क बनने के बाद भी पैदल यात्रा के शौकीन लोग ट्रेक करके और साइक्लिंग व बाइकिंग के शौकीन लोग अपने-अपने तरीकों से दारमा के साहसिक व रोमांचक सफर का आनंद तो उठा ही सकते हैं।
धारचूला से लेकर तवाघाट तक और तवाघाट से दुक्तु तक बनी नई सड़क अभी मेटल्ड नहीं हुई है और इसके अगले चार-पांच साल में मेटल्ड होने की संभावना भी कम ही है। लिहाजा यहां ऑफ रोड बाइकिंग और माउंटेन बाइकिंग का अपना अलग ही रोमांच रहेगा। दारमा के इस पहलू को लेह-लद्दाख जैसा नहीं तो उस तर्ज पर डेवलप किया ही जा सकती है, खास तौर पर साहसिक पर्यटन के शौकीनों के लिए किया ही जा सकता है। इस इलाके में पूरे रास्ते भर खाने-पीने व रुकने की व्यवस्था है। धारचूला से दारमा जाते समय बीच-बीच में आने वाले गांवों को अलग-अलग तरह से इधर आने वाले सैलानियों के लिए विकसित किया जा सकता है।
अगर आप दारमा जाने की सोच रहे हैं तो दारमा घाटी में आने वाले नागलिंग के निकट नागलिंग ब्याकसी गलफूर और दुक्तु से कुछ ऊंचाई पर स्थित रंगज्यादी तालाब तक जाना न भूलें। नागलिंग ब्याकसी गलफूर जाने के लिए रात्रि विश्राम नागलिंग गांव में किसी होमस्टे में किया जा सकता है। अगली सुबह आप थोड़ा जल्दी नाश्ता करके इस विशाल बुग्याल नागलिंग ब्याकसी गलफूर तक जा सकते हैं। आप चाहें तो यहां कैंप भी कर सकते हैं। नागलिंग गांव से यहां तक की दूरी लगभग 4-5 किलोमीटर की होगी। लेकिन बेहतर होगा कि अपने साथ किसी स्थानीय गाइड को जरूर रखें। अगर आपको ट्रेकिंग का शौक है तो दुक्तु से आगे पंचाचूली ग्लेशियर के पास हमारी ही तरह कैंपिंग जरूर करें। इसके दो फायदे हैं- एक तो आप रात में स्टारगेजिंग (तारों को निहारना) कर सकते हैं और यकीन मानिए ऐसी तारों भरी रात आपको कहीं और देखने को नहीं मिलेगी। दूसरे आप सवेरे पंचाचूली पर सूर्योदय का दिलकश नजारा देख सकेंगे। चाहें तो आप दारमा घाटी को पार करके व्यास घाटी में भी जा सकते हैं। इसके लिए आपको सिनला दर्रा पार करना होगा जो लगभग 5503 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। सिनला दर्रा पार करके आप व्यास घाटी के जौलिंगकोंग तक पहुंच सकते हैं जिसे आदि कैलास के नाम से भी जाना जाता है। वहां से आगे कुटी, नाबी रौंगकोंग, गुंजी, गर्ब्यांग, छांगरु, बूंदी, मालपा, छियालेक आदि जगहों का भ्रमण कर फिर से धारचूला आ सकते हैं। यहां से नाभीडांग, ऊं पर्वत का भी अविस्मरणीय नजारा लेने जाया जा सकता है। नाभीडांग से आगे ही लिपुलेख दर्रा है जिसे पार करके कैलास-मानसरोवर यात्रा का रास्ता जाता है। हर साल सैकड़ों यात्री इस रास्ते चीन में प्रवेश करके कैलास-मानसरोवर जाते हैं। तो फिर देर किस बात की। हो जाइए तैयार अपनी साइकिल, मोटरसाइकिल या कार के साथ या फिर ट्रेकिंग का साजो-सामान लेकर। दारमा घाटी आपको बुला रही है।
कब, कहां व कैसे
दारमा घाटी जाने के लिए अप्रैल से जून और फिर सितंबर से नवंबर तक का समय सबसे बेहतर रहता है। नवंबर के बाद यहां के गांवों में रहने वाले ज्यादातर लोग अपने घरों को बंद करके सर्दियों के कुछ महीनों के लिए धारचूला व तराई के बाकी गांवों में रहने आ जाते हैं। सर्दियों में दारमा और आसपास के इलाकों में खासी बर्फ गिरती है और कड़ाके की ठंड रहती है। ट्रेकिंग व कैंपिंग के शौकीन दारमा घाटी जाते वक्त अपने साथ टेंट लेकर जा सकते हैं। वैसे आप वहां स्थानीय लोगों के होमस्टे में रहने का विकल्प भी चुन सकते हैं। पिछले साल कुमाऊं मंडल विकास निगम की पहल पर दारमा घाटी के कई निवासियों ने अपने घरों को होमस्टे में परिवर्तित करने की शुरुआत की है। इसके अलावा धारचूला, बालिम और दुक्तु गांव से पंचाचूली ग्लेशियर की तरफ एक किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊं मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस और इको हट्स हैं। इनमें रुकने के साथ-साथ खाने-पीने की सुविधा भी है। इनकी बुकिंग आप कुमाऊं मंडल विकास निगर की वेबसाइट पर ऑनलाइन भी करा सकते हैं।
दारमा पहुंचने के लिए अगर आप हवाई रास्ते से आना चाहें तो पहले दिल्ली से हवाई जहाज से पंतनगर और फिर वहां से सड़क मार्ग से धारचूला होते हुए दुक्तु तक पहुंचा जा सकता है। इसके बजाय आप दिल्ली से सीधे सड़क के रास्ते हल्द्वानी होते हुए भी धारचूला-दुक्तु तक जा सकते हैं। रेलगाड़ी से आना चाहें तो काठगोदाम तक ट्रेन और फिर उसके आगे का सफर सड़क मार्ग से पूरा किया जा सकता है।
दिल्ली से काठगोदाम तक की दूरी तकरीबन 290 किलोमीटर है। काठगोदाम से अल्मोड़ा-चौकोड़ी-थल-डिडीहाट होते हुए धारचूला तक की दूरी भी तकरीबन 290 किलोमीटर है जिसे सड़क मार्ग से लगभग 8-10 घंटे में पूरा किया जा सकता है। काठगोदाम से आने पर आप अल्मोड़ा, कसारदेवी या फिर चौकोड़ी में एक रात रुक सकते हैं। धारचूला में भी एक रात रुका जा सकता है। धारचूला से दुक्तु तक की दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। लेकिन इसे तय करने में काफी वक्त लग जाता है- लगभग 5-6 घंटे क्योंकि तवाघाट से आगे का रास्ता खासा दुर्गम और रोमांचक है। इस रास्ते में कुछ बड़े गधेरे (नाले) भी पड़ेंगे जो आपको लेह-लद्दाख की यात्रा की याद दिला देंगे।
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