Tuesday, November 5
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पन्ना-पन्ना यायावरी

घुमक्कड़ी की दुनिया में 13वीं-14वीं सदी के मोरक्को के शिक्षाविद व यायावर इब्ने बतूता के नाम से कई कहावतें प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक है कि “Traveling leaves you speechless, then turns you into a storyteller, ” यानी घुमक्कड़ी, पहले तो आपको स्तब्ध कर देती है और फिर आपको एक कहानीकार में तब्दील कर देती है। मायने यह कि घूमते-घूमते आप प्रकृति से इतने मोहित हो जाते हैं कि आप निरंतर उस अनुभव को दूसरों से साझा करने को उत्सुक रहते हैं, यह अनुभव आपको ऊर्जा व शब्द, दोनों देता है।

इंदौर में पेशे से न्यूरोसर्जरी के प्रोफेसर अजय सोडानी की किताब ‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ इसी स्टोरीटेलिंग का अच्छा नमूना है। डॉक्टरी के व्यस्त पेशे से घूमने के लिए समय निकाल पाने वाली बात दरअसल अब हैरान नहीं करती क्योंकि पिछले दो दशकों में ऐसे कई डॉक्टरों के बारे में लिख-पढ़ चुका हूं जिन्हें घूमना हद से ज्यादा पसंद है और वे उसके लिए निरंतर समय निकालते रहे हैं। लेकिन अजय सोडानी की यात्राएं ज्यादा साहसिक व रोमांचकारी रही हैं, यह तय है।

दर्रा-दर्रा हिमालय, लेखकः अजय सोडानी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 160, पैपरबैक, मूल्यः 175 रुपये

राजकमल प्रकाशन से यह किताब सबसे पहले 2014 में आई थी। 2019 में इसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका था। किताब में अजय सोडानी, उनकी पत्नी अपर्णा और पुत्र अद्वैत की दो यात्राएं दर्ज हैं। पहली कालिंदी खाल की और दूसरी ऑडेन कॉल की। दोनों ही यात्राएं अलग-अलग वजहों से लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज हैं। कालिंदी खाल की इसलिए क्योंकि वह किसी परिवार के एक साथ कालिंदी खाल पार करने का पहला वाकया था। यह साल 2006 की घटना है। और, ऑडेन कॉल की इसलिए क्योंकि अपर्णा उसे पार करने वाली पहली महिला थीं। यह यात्रा 2011 में की गई थी।

दोनों यात्राओं के बारे में पढ़ना इसलिए भी रोमांचकारी है क्योंकि ये सामान्य ट्रेकिंग नहीं है, उससे काफी ऊंचे दर्जे की बात है। कालिंदी खाल 5950 मीटर की ऊंचाई पर है यानी करीब-करीब 6000 मीटर और हिमालय में कई चोटियां उस ऊंचाई की हैं, जिनके लिए लोग पर्वतारोहण अभियान करते हैं। इसे उत्तराखंड के सबसे कठिन ट्रेक में से एक माना जाता है। इसी तरह ऑडेन कॉल भी 5490 मीटर की ऊंचाई पर है और ऑडेन कॉल व उसके दूसरी तरफ पड़ने वाले खतलिंग ग्लेशियर पर मौजूद गहरी चौड़ी दरारों (क्रेवास) की वजह से यह बेहद खतरनाक माना जाता है। यह रास्ता इतना चुनौतीपूर्ण है कि इस तरफ जाने से रोमांचकारी बचते ही रहे हैं।

इन दोनों यात्राओं को करने के पीछे की वजह भी अजय सोडानी ने अपनी किताब में बताई है और वह है पौराणिक कथाओं में जिक्र किए गए रास्तों की खोज। दोनों ही यात्राएं गंगोत्री से शुरू होती हैं। जहां, कालिंदी खाल पार करके माना गांव की तरफ उतरकर वहां से बद्रीनाथ जाया जा सकता है और ऑडेन कॉल व मयाली दर्रा पार करके गंगोत्री से केदारनाथ जाया जा सकता है। हालांकि अजय व उनका परिवार दूसरी यात्रा में चरम यानी केदारनाथ तक नहीं पहुंच पाए क्योंकि बेहद खराब मौसम के कारण उन्हें खतलिंग ग्लेशियर के बाद सीधे नीचे उतरना पड़ा। लेकिन यात्रा के मुख्य मकसद यानी ऑडेन कॉल को तो उन्होंने कामयाबी से पार कर लिया।

अजय सोडानी ने इन यात्राओं को किताब की शक्ल देने की वजह भी बताई है कि कैसे हमारे ही देश के लोग अपने ही देश के भूगोल, इंतिहास व संस्कृति, सबसे अनजान हैं। किताब की रोचकता इसके डायरी के रूप में होने से भी बनती है। पाठकों में हमेशा इसको जानने की उत्सुकता बनी रहती है कि अगले दिन क्या हुआ।

यात्रा संस्मरण साहित्य की एक अलग विधा है और जिस तरह से यात्राएं हर व्यक्ति की अपनी अलग होती हैं, उन्हें व्यक्त करने का तरीका भी उसका अपना होता है। उन्हें आप किसी खास शैली में बांधकर उनकी समीक्षा नहीं करते। इसके बावजूद इस किताब से अजय सोडानी की साहित्यिक अभिरुचि साफ झलकती है। उनके पास भाषा है और भाव हैं। ऑडेन कॉल वाले हिस्से में उनकी एक कहानी और एक कविता, दोनों की झलक मिलती है। वैसे भी किसी यात्रा संस्मरण के लिए बढ़िया यही है कि वह घुमक्कड़ी की रवानियत के साथ-साथ ही चले। उसमें भाषा का कोई उत्कृष्ठ शिल्प होने की जगह पाठकों को उस सफर के हर पल का अहसास कराने की काबिलियत ज्यादा होनी चाहिए और सोडानी इसमें कामयाब रहे हैं।

नंदनवन से आगे। फोटोः पुस्तक से

एक बात और, सोडानी परिवार की ये दोनों यात्राएं भले ही पौराणिक रास्तों पर फिर से चलने की ख्वाहिश के चलते हुई हों, लेकिन उनमें धर्म की पोंगापंथी नहीं है और रह-रहकर उसमें एक उदार राजनीतिक चेतना भी नजर आती है। जैसे कि अपनी भूमिका में जब वह यात्राओं के किताब की शक्ल में आने की वजहों की बात कर रहे हैं, तो वह एक जगह कहते हैं, ‘धन्यवाद धर्म पर की जा रही राजनीति का जिसके चलते ‘अमरनाथ’ की गूंज हर भारतीय कान में पड़ चुकी है।’ वह अपनी किताब में कई जगह धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड व ठेकेदारी को निशाने पर लेते हैं।

किताब की खासियत इस बात में भी है कि वह न केवल यात्रा वृतांत पेश करती है बल्कि उन लोगों का उस इलाके से भी परिचय कराती है जो गढ़वाल हिमालय के उन रास्तों, हिमालय की पारिस्थितिकी, ट्रेकिंग व पर्वतारोहण की बारीकियों से नितांत अपरिचित हैं। मैंने खुद हिमालय में कश्मीर से लेकर सिक्किम तक काफी ट्रेकिंग की है लेकिन ये दोनों ट्रेक नहीं कर पाया हूं। लिहाजा, मेरे जैसे पाठक के लिए भी इन दोनों यात्राओं के बारे में पढ़ना उतना ही रोमांचक था।

खतलिंग ग्लेशियर। फोटोः पुस्तक से

ट्रैवल मीडिया से दो दशक से जुड़ा होने के कारण यह समझ में आता है कि यात्रा वृतांतों में फोटोग्राफ की भी खासी भूमिका होती है। किताब में इन यात्राओं के कई फोटो भी हैं, हालांकि सब ब्लैक एंड व्हाइट हैं। इन दिनों सोशल मीडिया में रोज जिस तरह से ट्रैवल ब्लॉगर्स के फोटो छाए रहते हैं, उन्हें देखते-देखते अलग-अलग जगहों की रंगीनियां देखने की आदत सी हो जाती हैं, लेकिन ब्लैक एंड व्हाइट फोटो की भी अपनी खूबसूरती होती है।

यह भी एक तसल्लीबख़्श बात है कि इस तरह की यायावरी के लिए अब किताब की शक्ल देखना ज्यादा मुमकिन हो चला है। यह किताब राजकमल प्रकाशन के ही उपक्रम सार्थक के बैनर तले है। घुमक्कड़ों और घुमक्कड़ी का ख़्वाब देखने वालों के लिए यह एक ज़रूरी पठनीय किताब है।

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