Monday, May 13
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समुद्र के किनारे शिल्प का सौंदर्य

दक्षिण भारत के कलात्मक इतिहास में पल्लवों की वास्तु व मूर्तिकला का अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान है। इनकी गुफाएं, मंदिर और स्थापत्य भारतीय कला में एक नए अध्याय का सृजन करते हैं।

धवल  हिमालय से सुदुर दक्षिण में लेकिन नीले समुद्र से थोड़ा उत्तर का भू-प्रदेश अपने अंदर द्रविड़ सभ्यता व संस्कृति की विरासत को बचा कर रख पाने में सफल रहा है। कावेरी की गोद में पली द्रविड सभ्यता का केंद्र ‘तमिलकम प्रदेश’ यानि आज का तमिलनाडु अपने साथ इंसानी मेहनत और उसकी साकार हुई अनूठी कल्पना को सहेजे हुए है, जो पुरातन युग में पत्थरों को तराश कर बनाए गए मंदिरों के रूप में मौजूद हैं। शिल्पियों के औजारों से निकलने वाले अनवरत संगीत के दौर में इंसान की कल्पना को यथार्थ की जमीन मिली और ललित कला की एक खास शैली ने जन्म लिया। सामूहिक श्रम से उपजी इस शैली को द्रविड़ शैली का नाम दिया गया।

दक्षिण भारत के पूर्वी भाग में पल्लवित हुई और तमिल संस्कृति की संवाहिका बनी द्रविड़ शैली ने यहां की धार्मिक विचारधाराओं, नैतिक मूल्यों, दर्शन, आध्यात्मिक आदर्शों, लोक मान्यताओं और भौतिक जीवन का सौंदर्यपरक समुद्ध दृष्टिकोण- यह सब कुछ अपने रूपांकन के विषय के रूप में समेट कर रखा है। इसे महाबलीपुरम के शैलकृत मंडपों और समुद्र तटीय मंदिर के भित्तिचित्रों में देखा जा सकता है। इसके अलावा मुकुंद नयनार मंदिर, ओलक्कन्नेश्वर मंदिर, तलगिरीश्वर मंदिर, कैलाशनगर मंदिर और वैकुण्ठपेरूमल मंदिर इस शैली के अनुपम उदाहरण हैं।

दक्षिण भारत के इतिहास में पल्लवों का कुशल प्रशासन के साथ-साथ धर्म व कला के उदार संरक्षण का विशिष्ट योगदान रहा है। महाबलीपुरम और कांचीपुरम में बने पल्लवकालीन मंदिर उनकी कलात्मक उपलब्धि के शिखर बिंदु हैं।

तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 64 किमी. की दूरी पर चिगंलपेट जिले में स्थित महाबलीपुरम सातवीं सदी में पल्लवों का प्रमुख बंदरगाह हुआ करता था, जहां से दक्षिण भारत के शासक पूर्वी द्वीप समूहों पर आक्रमण किया करते थे। समुद्री यात्राओं के सुरक्षा के निमित्त यहां पहाड़ी पर दीप स्तंभ बनावाया गया था। यह भारतीय कला का प्रमुख केंद्र भी था। महाबलीपुरम को मामल्लपुरम भी कहा जाता है क्योंकि इसके निर्माता नरसिंहवर्मा प्रथम को उनकी सामरिक उपलब्धियां के कारण ‘महामल्ल’ की संज्ञा दी गई थी।

महाबलीपुरम के समुद्र के किनारे इमारती कड़े पत्थर की एक पर्वतावाली उत्तर से दक्षिण लगभग 800 मीटर लंबाई में फैली है। इसकी चौड़ाई लगभग 200 मीटर और ऊंचाई 30 मीटर है। इसके दक्षिण में लगभग अलग एक छोटी पहाड़ी है जो लगभग 76 मीटर लंबी और 15 मीटर उंची है। इन दोनों ही पहडिय़ों पर मामल्ल वास्तुशैली का अंकन किया गया हैं। महेंद्र वर्मा के पुत्र नरसिंह वर्मा को मिली ‘मामल्ल’ उपाधि के कारण ही उनके द्वारा शुरू की गई शैली को मामल्ल शैली के रूप में जाना जाता है। इसके अंतर्गत रथों और मण्डपों का निमार्ण किया गया है।

महाबलीपूरम में दस मंडप हैं- धर्मराज, महिषासुर, कोटिकल, कृष्ण, पंचपाण्डव, वाराह, रामानुज, शैव और अपूर्ण मंडप। सभी मंडप सामने से लगभग आठ मीटर चौड़े और सात मीटर उंचे हैं। अंत:कक्ष लगभग आठ मीटर उंचे हैं। कोठरियां आयताकार क्षेत्रफल में बनी है। यह मंडप आकार मे छोटे होते हुए भी अलंकरण की दृष्टि से खासे आकर्षक और मनोहारी हैं। इनमें वास्तुकला और मूर्तिकला का अद्भुत समन्वय दिखता है। बाह्य मुख पर गोल छज्जे बनाए गए हैं, जिनके ऊपर चैत्य तोरण उकेरा गया है। चैत्य के उपर तोरण को मंदिर का रूप दिया गया है।

वाराह मंडप, जो सभी मंडपों में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है, के स्तंभ सिंह के शीर्ष पर इस तरह स्थित है मानो सिंह के सिर से निकले हों। कहा जाता है कि यह शैली परवर्ती रोमन कलाकृतियों और लोम्बार्डिक रोमन इमारतों में भी देखने को मिलती है। स्तंभ हालांकि एकाष्मक (मोनालिथिक यानी एक ही चट्टान से बने) हैं किन्तु उनको तराश कर पतला व लंबा बनाया गया है। स्तंभों पर कलश और कमल पुष्प (पद्म) की आकृति आदि अलंकरण प्रयोग में लाए गए हैं। मंडपों में उकेरे गए पौराणिक दृष्यांकन पूरे परिवेश को आध्यात्मिक बनाए रखते हैं। भारतीय कला में धर्म के साधिकार प्रवेश की स्पष्ट छाप देखेने को मिलती है।

पत्थरों पर उकेरा गया अनूठा शिल्प

महाबलीपुरम  की दो विशाल शिला भित्तियों पर चित्रित गंगावतरण का अत्यंत स्वाभाविक और कलात्मक रूपांकन मामल्ल शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इनमें दोनों शिलाओं के बीच गहरी चौड़ी दरार के बीच पवित्र गंगा की धारा दर्शाई गई है। इसके दोनों ओर मनुष्यों, पशुओं, योगियों, नागदेवताओं और अद्र्धदेवी प्राणियों का एक पूरा संसार उकेरा गया है। इसमें एक और तपस्यारत भागीरथ अंकित है तो दूसरी ओर देवगण और विद्याधरों की उड़ती हुई आकृतियां।

मामल्य शैली का सही निखार रथ मंदिरों के निमार्ण में दर्शनीय है। ये उन विशाल काष्ठ निर्मित मंदिरों की तरह दिखते हैं, जैसे जगन्नाथपुरी का रथ। पर्वतों को काटकर बनाए गए इन रथों को ‘सप्त पैगोडा’ नाम से पुकारते हैं। इनकी संख्या आठ है – द्रौपदी रथ, अर्जुन रथ, धर्मराज, भीम और सहदेव दक्षिण में हैं। ये महाभारत के दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं ये रथ एकाष्मक मंदिर कहलाते हैं। एक पत्थर से ढाले जाने के कारण इन रथों का स्थापत्य अत्यंत भव्य है।

रथों की अधिकतम लंबाई  13 मीटर और उंचाई 12 मीटर के करीब है। बौद्ध विहारों अनुकृति पर बने रथों की संख्या पांच हैं। ये सभी वर्गाकार निर्मित है और इनका शिखर पिरामिड जैसा है। इन रथों की विशेषता इनके पतले स्तंभ, कीर्तिमुखयुक्त मकर तोरण, अष्टकोणात्मक स्तूपिका और चैत्य हैं। ये सभी रथ मंदिर शैव हैं और पूर्णतया अलंकृत हैं। दुर्गा, वामन, इंद्र, शिव, गंगा, अद्र्धनीश्वर, पार्वती, ब्रह्मा, हरिहर, स्कंद, बृहस्पति आदि की मूर्तियां अत्यंत कलात्मक ढंग से रूपांकित हैं।

समुद्र तटीय मंदिर के बिना महाबलीपुरम की विशिष्टता अधूरी हैं समुद्र तट पर स्थित ये मंदिर पल्लव कलाकारों की शानदार कारीगरी का नमूना है। मामल्लपुरम में समुद्र तट पर स्थित होने के कारण अंग्रजी भाषा के प्रभाव की वजह से इसे शोर टैम्पल के नाम से भी जाना जाता हैं। इसका निर्माण राजसिंह ने सन् 728 में कराया था। यह मंदिर काले रंग के मजबूत ग्रेनाइट पत्थर का बना हुआ है। इसके चारों और विशाल चारदीवारी है। मंदिर का गर्भगृह समुद्र की ओर है। इसमें दो मंदिरों की योजना के दर्शन होते हैं जो राजसिंहेश्वर और क्षत्रियसिंहेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। इन दानों मंदिरों के बीच स्थित स्थान को ‘नरपतिसिंहविष्णु गृहम’ कहते हैं। इन दो मंदिरों में एक शिव का है और दूसरा विष्णु का। शोर मंदिर में प्रयुक्त उच्च कोटि की कलात्मकता का सबसे जीता जागता प्रमाण यही है कि अनेक शताब्दियों से समुद्री लहरों के थपेड़ों और बालुओं के अनवरत प्रहारों के बावजूद भी इसकी खूबसूरती में आज तक कोई आंच नहीं आई।

यह गोलाकार चट्टान और इसका संतुलन लोगों के लिए करिश्मा है

युग बदला। समाज के विकास मे नए आयाम जुड़े। इंसान की कल्पना और वैज्ञानिक तकनीकी विकास ने मिलकर कला की नई विधाओं को जन्म दिया, परन्तु द्रविड़ संस्कृति  का स्मृतिचिन्ह महाबलीपुरम आज भी स्थापत्य कला के लिए चुनौती है, जो अब तक पुरातन सभ्यता के सांस्कृतिक विकास की गाथा मौन रहकर सुना रहा है। जिस जगह कभी द्रविड़ सभ्यता धड़कती थी आज वह असंख्य सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। संगतराश अपनी कला की बुलंदियों तक पहुंचने के लिए अपना मार्ग ढूढने आते हैं, तो सैलानी अपनी सैरगाह तलाशने।

सदियों से रोज हर सुबह सूरज की पहली किरण और नीले समंदर की हवाओं के स्निग्ध झोंके शिल्पियों की अनूठी कल्पना मामल्लपुरम का स्वागत करते हैं और प्रकृति के अनन्त सौंदर्य के प्रति आस्थावान होने की अनंत ऊर्जा देते हैं ताकि इंसान की कल्पना को विस्तार मिल सके।

पारंपरिक स्थानीय नृत्य की विभिन्न मुद्राओं में काष्ठ मूर्तियां

सालाना नृत्य महोत्सव

भारत में मंदिरों की पृष्ठभूमि में या उनके प्रांगण में नृत्य व संगीत के महोत्सवों की शानदार परंपरा रही है। कोणार्क व खजुराहो इसके उदाहरण हैं लेकिन उतना ही लोकप्रिय मामल्लपुरम संगीत महोत्सव भी है जो इन पल्लवकालीन मंदिरों की पृष्ठभूमि में हर साल होता है। हर साल 31 दिन तक नृत्य व संगीत का अद्भुत आयोजन होता है। चट्टानों पर पल्लवकालीन शिल्प की शानदार पृष्ठभूमि में खुले आकाश के नीचे देश के ज्यादातर शास्त्रीय व लोकनृत्य यहां देखने को मिल जाते हैं। हजारों की तादाद में विदेशी सैलानी भी इसे देखने पहुंचते हैं। इसका आयोजन तमिलनाडु का पर्यटन विभाग करता है। क्यों न महाबलीपुरम को देखने का मौका इन्हीं दिनों में ढूंढ लिया जाए!

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