Saturday, May 11
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पत्थरों की जुबां बोलता गोलकुंडा

हैदराबाद में गोलकुंडा का किला भारत के सबसे भव्य किलों में से एक है और शिल्प के लिहाज से अनूठा भी। यह किला निजामों के इस शानदार शहर के इतिहास व विरासत का बेहतरीन नमूना पेश करता है। इसकी चमक उसी कोहिनूर हीरे सरीखी है जो यहां से निकला था

यूं तो हर किले की एक कहानी होती है जिसमें राजा और रानी होते हैं। किले की कहानी में राजा की प्रजा होती है, प्रजा को दुश्मनों से बचाने के लिए तगड़ी किलेबंदी होती है, आसमान को छूते दरवाजे होते हैं। देखा जाए तो सब किलों के वैभव और उनके पराभव की दास्तानों में जबरदस्त समानता होती है। बस बदलते जाते हैं राजाओं के नाम, उनके शासनकाल के नाम और काल, उन किलों से जुड़ी हुई प्रेम कहानियों के किरदारों की तस्वीरें। इन तमाम बातों के साथ भी तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद में बसा गोलकुंडा का किला अपनी एक बिल्कुल अलहदा किस्सागोई के साथ आकर्षक का केंद्र बना हुआ है। यहां एक बार जाने के बाद, बार-बार जाने का मन करता है। खासतौर से शाम को होने वाला लाइट-एंड-साउंड कार्यक्रम इसकी दिलकश इमारत को बहुत ही रोमानी बना देता है। मानो, गोलकुंडा की ऐतिहासिक कला को मौजूदा दौर में जिंदा करने के लिए कला की दो विधाओं ने हाथ मिला लिए हों। देश के कई ऐतिहासिक स्थलों में लाइट एंड साउंड (रोशनी और आवाज) के जरिए पर्यटकों और आम नागरिकों को उस जगह के इतिहास से वाकिफ कराया जाता है। लेकिन जब गोलकुंडा किले के ऊपर चांद या तारों का झुरमुट उगने-उगने को होता है और रंग-बिरंगी रोशनी के दरम्यान जगजीत सिंह की आवाज गूंजती है तो सारा माहौल इतिहास की इंद्रधनुषी छटा में सराबोर हो उठता है।

यह प्रस्तुति इस किले को अपने आप में और भी खास बनाती है और पयऱ्टकों को यहां पर वापस फिर से खींच लाने का माद्दा रखती है। देश के सबसे मशहूर हीरे-कोहिनूर हीरे का रिश्ता इसी किले से है। यह किला हीरे के कारोबार के लिए भी दूर-दूर तक जाना जाता रहा है। जैसे कोहिनूर से बढ़कर किसी और हीरे की चमक भी नहीं हो सकती और उसी तरह से तेलंगाना के इस किले की चमक अब तक कायम है। उसका ऐतिहासिक महत्व कायम है। यह एक मनमोहक अड्डा है, इतिहास के झरोखे में झांकने का।

किले के बाहर तक साथ चली आतीं हैं, जगजीत सिंह की आवाज, इतिहास के पन्नों को पलटते हुए….

एक गुलशन था जलवानुमा इस जगह,

रंगों बू जिसकी दुनिया में मशहूर थी,

बेगमों की हंसी गूंजती थी यहां,

शानो-शौकत भी भरपूर थी,

ताज की शक्ल में गोलकुंडा की अजमत करेगा बयां…

इस तरह से यह गजल पूरे माहौल को बेहद कलात्मक और प्रासंगिक बना देती है। आवाज की दुनिया पर सवार हो कर वहां बैठे दर्शक कई सदी पुरानी कहानी में खो जाते हैं। इसमें कभी बीच में घोड़ों की टाप सुनाई देती है। इतिहास के तमाम दौरों की तरह यहां भी कहानी चलती है एक राजा से दूसरे राजा के बीच के सफर के दरम्यान। साजिशों की तो अनंत दास्तानें है। तकरीबन इतने षडयंत्र हर बड़े किले के इतिहास में लिपटे मिलते ही हैं। गोलकुंडा के इतिहास में भी जबरदस्त पेचीदा रास्ते हैं। साजिशें हैं, गद्दी के लिए सुल्तान पिता का कत्ल है, सगे भाई का भाग के दूसरे राज्य में शरण लेना, वहां की राजकुमारी से प्रेम करना और फिर वापस अपने राज्य पर कब्जा करना है। राजा सहित राजकुमारों का नृत्यांगना और गायिका से प्रेम और इस प्रेम पर सब कुछ न्यौछावर करने का जज्बा। प्रेम के साथ-साथ कला का विकास। कलाकारों की महफिलों के लिए खास इंतजाम। कला का परवान चढऩा, दूर-दूर तक इसकी शोहरत पहुंचना। शासकों का कला प्रेम किस तरह से राज्य की समृद्धि का परिचायक होना है, इसकी मिसाल गोलकुंडा किले के स्थापत्य से भी साफ झलकती है। इसी के साथ गोलकुंडा व्यापार का भी गढ़ बनता गया। कला और व्यापार के बीच का तारतम्य और राज्य के विकास की धुरी की कहानी भी इस किले के वैभव में है।

किस्सागोई में प्रजा तब भी नदारद रहती थी और आज भी है। इसके बावजूद गोलकुंडा का इतिहास इस रोचक अंदाज में समेटा गया है कि पर्यटकों के दिलो-दिमाग में यह बिल्कुल अलग किले के तौर पर दर्ज हो जाता है। कोई राज्य कब और किन हाथों में तरक्की करता है, इसका भी अलग ढंग का तर्क विकसित किया जाता है, जो इस किले को बारीक नजर से देखने के लिए बाध्य भी करता है। नवगठित तेलंगाना राज्य के इतिहास की मिट्टी के इस किले के इतिहास में बहुत सी समानताएं देखी जा सकती है।

गोलकुंडा किले में आज भी उसका खास देसजपना कायम है। राजा-रानी के किस्सों के साथ पलते हुए भी एक गढेरिये की कहानी और मिट्टी के किले की छाप नजर आती है। इसके नाम को लेकर भी कई दास्तानें हैं। तेलुगू भाषा में गोला कोंडा का अर्थ है गढेरियों की पहाड़ी। एक किवदंती यह है कि यहां चरवाहे अपनी भेड़े चराने आते थे और वहीं किसी चरवाहे को एक मूर्ति मिली और वारंगल के काकातिय राजा ने एक मिट्टी का किला वहां बनवा दिया। यह 12वीं सदी की बात बताई जाती है। मिट्टी के किले का प्रमाण इतिहास में भी मिलता है और इसके अवशेष भी नजर आते हैं। इसके बाद 14वीं से 17वीं सदी के दौरान इसे बाहमनी सुल्तानों और कुतुबशाही सल्तनत ने सजाया-संवारा। गोलकुंडा को कुतुबशाही (1518-1687) के दौरान ही राजधानी बनाया गया। कुली कुतुब शाह ने इसे एक मुक्कमल किले की शक्ल बख्शी। इसी दौरान इस  किले की राजनीतिक पहुंच और पूछ परवान चढ़ी। इस किले के स्थापत्य पर ईरान का खासा असर है। इस किले की मीनारें-महराबें ग्रेनाइट पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी के लिए भी जानी-जाती है।

गोलकुंडा के किले और हैदराबाद की मशहूर हुसैन सागर झील के बीच बढ़ा दिलचस्प रिश्ता है। गोलकुंडा किले में पानी का कोई ठोस इंतजाम नहीं था। इस वजह से इसे पूरी तरह से राजधानी बनाने में और बड़ी संख्या में लोगों को यहां बसाने में खासी मुश्किल पेश आ रही थी। इस संकट को हल करने के लिए गोलकुंडा किले से करीब 9 किलोमीटर दूर हुसैन सागर झील बनाई गई। इसी से पानी की आपूर्ति की गई और गुलजार हो गया गोलकुंडा। पानी लाने का इंतजाम उस दौर में कुतुबशाही सुल्तानों के नेतृत्व में कारीगरों ने जो किया, वह आज भी चौंकाने वाला है। पर्शियन पहियों के जरिए मिट्टी के पाइप में पानी डाला जाता था और यह किले के नीचे जमा हो जाता था। ऐसे अनोखे वास्तुशिल्प की वजह से गोलकुंडा का किला इतिहास में अलग से जाना जाता रहा है।

गोलकुंडा किला तीन वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, लंबाई में यह करीब पांच किलोमीटर बैठता है। गोलकुंडा किला मूलत: चार छोटे किलों को मिलाकर बनाया गया था। हर किले का अपना अलग महत्व था। इस किले का विस्तार और अंदर बने जीवन को इस बात से समझा जा सकता है कि इसके भीतर 87 अर्ध गोलाकार दुर्ग है। आठ बड़े विशालकाय दरवाजों के अलावा चार छोटे पुल हैं। इस किले के वैभव की कहानी 1687 में खत्म होती है। इस साल औरंगजेब ने हमला करके इसे बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया। तब से लेकर आजतक किले के खंडहर ही इस बात की बानगी देते हैं कि वहां की इमारत कितनी बुलंद थी।

किले के दक्षिण पूर्वी छोर पर है फतह दरवाजा। क्या विडंबना है कि इस दरवाजे का नाम इस किले को बर्बादी के कगार पर पहुंचाने वाले शासक औरंगजेब की जीत के ऊपर रखा गया। भीतरीघात की वजह से यही दरवाजा औरंगजेब की सेना के लिए खोल दिया गया था और वहीं से घुसकर उनकी सेना ने किले पर फतह हासिल की थी। किले का सबसे बुलंद और खूबसूरत नक्काशी वाला दरवाजा यही है। एक तोप भी बहुत मशहूर है और इसका नाम है फतेह राहबीर (जीत का गाइड)। किले में आवाज को बेतार पहुंचाने का जादू भी है, जो यहां आने वालों को बहुत आकर्षित करता है। बीच बरामदे में ताली बजाने पर बाहर तक आवाज आती है। बताया जाता है कि यह गुप्त संदेश पहुंचाने के लिए किया जाता था। बच्चों को ताली बजाने में बहुत मजा आता है।

किले में सांप्रदायिक सौर्हार्द के रूप में मस्जिद और मंदिर दोनों की मौजूदगी देखी जा सकती है। दोनों को ही राजाओं का बराबर का संरक्षण प्राप्त था। आज के दौर के लिए यह किला इस बात की सीख देता है कि धर्म और भाषा में स्थानीय लोगों के बीच भेदभाव न करने की तेलंगाना की परंपरा पुरानी है किले अनेकों हैं भारत में लेकिन तेलंगाना की साझी संस्कृति और सरसता का प्रतीक है। पत्थरों से बोलता यह इतिहास वर्तमान के लिए विविध रंग समेटे हुए है। इसकी कहानी उतने ही दिनों तक हम सुनते रहेंगे जब तक हम प्रेम, कला, संगीत और समरता में विश्वास करते रहेंगे। इतिहास को जानने की ललक, लोगों तक पहुंचाने की ललक को सलाम करती है तेलंगाना राज्य की यह अनोखी विरासत।

गोलकुंडा किला हैदराबाद के बाहरी हिस्से में मुख्य शहर से लगभग 9 किलोमीटर दूर है। हर शाम यहां तीन भाषाओं- हिंदी, अंग्रेजी व तेलुगू में साउंड एंड लाइट शो होता है।

बेतार आवाज का जादू

गोलकुंडा किले के प्रवेश द्वार पर ध्वनि-विज्ञान का अद्भुत नजारा मन मोह लेता है। दरअसल किले के प्रवेश द्वार की अंदरूनी छत षटकोणीय आकार में बनी है और इसी षटकोणीय आकार के नीचे अर्थात द्वार के नीचे खड़े होकर अगर कोई ताली बजाये अथवा कुछ बोले तो उसकी आवाज किले की सबसे ऊंचाई पर स्थित बारादरी तक सुनी जा सकती है। इस षटकोणीय आकार वाली परिधि को वर्तमान में ‘तालियां का मंडप’ नाम से जाना जाता है। स्थानीय जानकार बताते हैं कि इसका निर्माण इस उद्देश्य से हुआ था कि प्रवेश द्वार से कोई सूचना अंदर के भवन तक बिना समय लिए पहुंचाई जा सके। अर्थात, दूरसंचार की अनोखी वास्तु-तकनीक का दर्शन गोलकुंडा के प्रवेश द्वार पर ही पर्यटकों को लुभाता है। सैलानी इस स्थान पर खड़े होकर लोग जोर-जोर से तालियां बजाते नजर आते हैं। हालांकि इस तकनीक का इस्तेमाल इस किले के कई हिस्सों में किया गया है। ऐसा बताया जाता है कि इन्हीं ध्वनि सूचकों से सूचना लेकर राजा लोगों से मिलते जुलते थे।

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