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कुदरत की नायाब छतनार है लैंसडौन

उत्तर भारत के हिमालयी राज्यों में बसे उन खूबसूरत छावनी नगरों में से एक है लैंसडौन जिन्हें अंग्रेजों ने स्थापित किया था। इसलिए लैंसडौन का इतिहास तो पुराना नहीं, लेकिन फिर भी वह पहाड़ में बसे बाकी हिल स्टेशनों की तुलना में शांत है। लेकिन हकीकत यह भी है कि अंग्रेजों ने छावनियां बनाने के लिए उन्हीं जगहों को चुना भी था जहां प्रकृति ने भी जमकर खूबसूरती बिखेरी थी। इसीलिए उत्तराखंड में लैंसडौन शहर बसाने की इंसानी मेहनत के साथ कुदरत की नियामत का बढ़िया मेल है

दिल्ली से निकटता के अलावा लैंसडौन की कई खूबियां बार-बार यहां आने को आमंत्रित करती हैं। अन्य हिल स्टेशनों में चौतरफा कंक्रीट के जंगलों के उगने से वह उतने नैसर्गिक नहीं रहे जितना कि गढ़वाल के पौड़ी जिले में स्थित लैंसडौन। यहां प्रकृति को उसके अनछुऐ रूप में देखा जा सकता है। आज भी यह सैलानियों व वाहनों की भीड़ और शोर व प्रदूषण से दूर यह एक बेहद शांत जगह है। इसीलिए इसकी शांत व नीरव प्रवृत्ति को पसंद करने वाले पर्यटक यहां पर आते हैं और प्रकृति की गोद में कुछ समय बिताने के बाद एक नई उर्जा के साथ वापिस लौटते हैं। कुछ पर्यटक यहां पर लंबा अवकाश भी बिताते हैं। कुछ लैंसडौन के दूसरे पर्यटक केंद्रों के मुकाबले सस्ता व छोटा होने से आते हैं जबकि कुछ को यहां पर नया देखने की चाह खींच लाती है। 

लैंसडौन के नजदीक से हिमालय की चोटियों का नजारा

शनिवार या दूसरा कोई अवकाश हुआ नहीं कि यहां पर्यटकों की कदमताल दिखने लगती हैं जो सोमवार की अल सुबह तब वापिस हो लेते हैं। यह एक पर्यटन नगरी से पहले एक छावनी शहर है। यह गढव़ाल राइफल्स रेजीमेंटल सेंटर का मुख्यालय है। एक तहसील के होने से इसकी पहचान एक छोटे प्रशासनिक नगर की भी है।

एक छावनी नगर

लैंसडौन एक छावनी नगर है जिसकी स्थापना सन् 1887 में हुई। सेना में पहले गढ़वाल की अलग से कोई पलटन न थी। गढ़वाली जवान तब अल्मोड़ा में मौजूद गोरखा बटालियन का हिस्सा होते थे। ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष अलग से गढ़वाली पलटन बनाने का सुझाव पहली बार 1880 में सरकार को गया जिसे वायसराय डफरीन के सुझाव पर सहमति प्रदान कर दी गई। अंत में गढ़वाल जिले के कालौंडांडा में  इसे बसाना तय हुआ। कालौंडांडा की भौगोलिक बनावट छावनी बसाने के दृष्टिकोण से उपयुक्त थी और 4 नवंबर, 1887 को कालौडांडा में गढ़वाली बटालियन की स्थापना कर दी गई। वर्तमान के गांधी चौक के आस-पास की भूमि को समतल कर मैदान व अस्थायी कैंप बनाए गए। कालांतर में यह विधिवत रूप से छावनी के रूप में बसने लगी। 

लैंसडौन का गांधी चौक

घने काले जंगलों के कारण कालौंडांडा का नाम छावनी बनने के तीन साल बाद 21 सितंबर, 1890 को लैंसडौन कर दिया गया। यह नाम 1888 से 1894 के मध्य रहे भारत के दसवें वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड लैंसडौन के नाम पर रखा गया था जो दरअसल ब्रिटेन में लैंसडौन के 5वें मारक्वेज हेनरी चार्ल्स कीथ पेटी फिट्जमॉरिस थे। गढ़वाली बटालियन के भर्ती व प्रशिक्षण केंद्र के रूप में विधिवत स्थापित होने के बाद छावनी का शनै-शनै विस्तार होने लगा। सैनिकों के लिए रोजमर्रा के साजो-सामान की आपूर्ति व दूसरे कामों को करने के लिए कई स्थानों से व्यवसायियों व कामगारों को यहां पर बसाया गया। कालांतर में छावनी का विस्तार व दर्जा बढ़ता चला गया। तदनुसार छावनी में अधिकारियों के आवास, सैनिकों के लिए बैरकें व दूसरी बुनियादी सुविधाएं जुटती चली गई। पहली बटालियन के बाद दूसरी बटालियनें स्थापित की गई जिनका कई बार गठन व पुर्नगठन हुआ। पहले विश्व युद्ध के समय गढ़वाल राइफल्स की चार बटालियनें हो चुकी थी। पहले विश्वयुद्ध के समय गढ़वाल राइफल्स के जवानों की अदम्य वीरता को देख गढ़वाल राइफल्स को 1923 के बाद रॉयल गढ़वाल राइफल्स का खिताब मिला। आजादी के बाद इसके आगे रॉयल शब्द को हटाकर इसका नाम गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट कर दिया गया।

हेरिटेज का अहसास

लैंसडौन में में आपको एक छोटे हेरिटेज नगर होने का भी अहसास होता है। यहां कई पुराने बंगले व स्थान हैं जो आज भी जस के तस है। नार्थ माल रोड, साउथ माल रोड, सर्कुलर रोड प्रमुख मार्ग हैं तो नगर में दूसरी सड़कों के नाम प्रमुख ब्रिटिश सैन्य व प्रशासनिक अधिकारियों के नाम पर हैं जिनका अपना-अपना योगदान रहा। इनमें किचनर पहले बटालियन कमांडर बने। जे.टी. ईवट लैंसडौन में तैनात पहले सैन्य अधिकारी थे। किचनियर ब्रिटिश सेना के सर्वोच्च कमांडर और रैमजे सुप्रसिद्ध कुमाऊं कमिश्नर थे। इन नामों के अलावा राबर्ट्स एवेन्यू, व्हीटल, ग्रिफिथ, एलिस, हचींसन, हेनडरसन, कासग्रेन आदि के नाम पर सड़कें हैं। वह सैन्य अभियंता कासग्रेन ही थे जिनको लैंसडौन में छावनी बसाने के लिए सर्वे करने को भेजा गया था। नगर के एक बाजार का नाम 2/3 बाजार है जो तीसरी गोरखा रेजीमेंट की दूसरी गढ़वाल बटालियन के लिए बसाऐ गए बाजार के नाम पर रखा गया था। इसी तरह से यहां का एक इलाका यहां पर पठानों के रहने से आज भी पठानकोट कहलाता है।

लैंसडौन की झील भुलाताल

अपने सवा सौ साल पुराने इतिहास में गढ़वाल राइफल्स ने युद्ध के अनेकों मोर्चों पर शौर्य व वीरता व असीम बलिदान की मिसाल कायम की है। प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1948 में कश्मीर ऑपरेशन, 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 व 1971 के भारत पाकिस्तान यु़द्ध, कारगिल युद्ध सहित दूसरे कई मिशनों पर हर जिम्मेदारी का निर्वहन करते अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके लिए रेजीमेंट और इसके सैनिकों को समय-समय पर सम्मान और वीरता के अनेक पदक मिले हैं। ब्रिटिश काल में उसे मिले तीन विक्टोरिया क्रॉस इसका साक्ष्य हैं जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान किए जाने वाले सर्वोच्च वीरता अलंकरण थे। आजाद भारत में भी गढ़वाल राइफल्स ने अपनी शौर्य की उसी परंपरा को कायम रखते हुये अशोक चक्र, महावीर चक्र, शौर्य चक्र, कीर्ति चक्र, वीर चक्र, सेना मेडल सहित दूसरे पदक हासिल किए हैं। निजी अलंकरणों के अलावा रेजीमेंट को भी अनेकानेक सम्मान मिले हैं।

निराला लैंसडौन

समुद्र तल से 5500 फीट से 6500 हजार फीट की ऊंचाई के मध्य बसा लैंसडौन एक छोटा सा नगर है। वर्ष 2011 में इसकी सिविल आबादी 5667 आंकी गई और इतनी ही आबादी सेना की भी है। यहां के पुराने बंगलों व भवनों की बात ही क्या कहने! 1890 में बने गढ़वाली मेस की भव्यता सबको प्रभावित करती है जिसे सेना ने एक विरासत के रूप में सहेजा है। इसमें पुस्तकालय है, गेस्टहाउस है और पुरानी सामग्री संग्रहीत है।

लैंसडौन का दर्बान सिंह रेजीमेंट संग्रहालय

सेंट्रल परेड ग्राउंड के समीप रेजीमेंट संग्रहालय है जो प्रथम विक्टोरिया क्रास विजेता दर्बान सिंह के नाम पर है। संग्रहालय इस रेजीमेंट के इतिहास को करीब से जानने व समझने का अवसर देता है। इसमें अनेक वीथिकाओं में अलग-अलग प्रकार से सामग्री प्रदर्शित है। इसमें गढ़वाल राइफल्स के दो विक्टोरिया क्रॉस पदक व उनके विजेताओं की प्रतिमाओं प्रदर्शित हैं। रेजीमेंट द्वारा विभिन्न दौर में प्रयोग की गई पुरानी राइफलें व दूसरे हथियार, प्रयोग में लाई गई वर्दियां, विभिन्न मोर्चों पर शत्रु सेना से जब्त कर लाए गए हथियार आदि प्रदर्शित हैं। इसके अलावा सेना से संबंधित समाचार, आलेख, छाया चित्रों की एलबमें और दूसरी पुरानी चीजें प्रदर्शित हैं। संग्रहालय में गढ़वाल के जनजीवन से जुड़़ी वस्तुएं भी रखी गई हैं। इससे कुछ पहले शताब्दी द्वार है और कुछ दूरी पर युद्ध स्मारक है।

लैंसडौन के पुराने भवनों में 125 साल पुराना सेंट मेरी चर्च है। एक ओर चर्च सेंट जॉन चर्च भी है जो लगभग 80 से ज्यादा साल पुराना है। इसे देखकर लगेगा कि मानो समय ठहर गया हो। आजादी के बाद ईसाई समुदाय विहीन होने से जब यहां के चर्च खंडहर में बदल रहे थे तो सेना ने इनके रखरखाव का जिम्मा लिया। सेंट मेरी चर्च में पुरानी चीजों व पुरानी पुस्तकों को भी सहेजा गया है। चर्च तक जाने का रास्ता बेहद आकर्षक है। इसी प्रकार से नगर में सरकारी व निजी बंगले भी हैं।

लैंसडौन की झील भुलाताल गढ़वाल राइफल्स के प्रशिक्षणरत सिपाहियों के योगदान का अनुकरणीय उदाहरण है और यहां के प्रमुख आकर्षणों में है। पहले यहां कोई झील नहीं थी लेकिन सेना के दूरदर्शी अधिकारियों के प्रयास से यहां पर भूमि व जल संरक्षण के अनेक कार्य किए गए। यह झील उसी की देन है। इस झील में प्राकृतिक सोतों व बरसात के पानी का संरक्षण होता हैं। झील के आसपास का वातावरण व लैंडस्केप इसे चार चांद लगाता है। इस छोटी सी झील में बोटिंग भी की जा सकती है। झील में तैरती बतखें भी पर्यटकों का ध्यान खींचती हैं।

छोटे पहाड़ी शहरों में अब भी सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल देखने को मिल जाता हैं

नगर के मध्यभाग में गांधी चौक यहां का केंद्रीय स्थान है। यहां से कोटद्वार व गुमखाल के लिए वाहन निकलते हैं। गुमखाल मार्ग पर जयहरीखाल तक की लगभग डेढ़ किलोमीटर दूरी पर जैसे ऊपर चढ़ते हैं दूसरी ओर हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखाई देने लगती हैं। इनका सबसे बेहतरीन नजारा टिप एंड टाप से दिखता है। यदि मौसम खुला हो हिमालय में यमुनोत्री से लेकर नंदा देवी के बीच की अनगिनत चोटियां व उनके बीच फैली अनगिनत घाटियां व बसे गांवों की दृश्यावली सम्मोहित करने को काफी है। लोग यहां पर सूर्योदय व सूर्यास्त का नजारा भी देखने को आते हैं। सर्दियों में बर्फबारी के समय भी यहां का नजारा अविस्मरणीय होता है।

लैंसडौन दूसरे व्यवसायिक पर्यटक केंद्रों से अलग है और सुकून की दृष्टि से आने वालों के लिए एक बेहतर स्थान। प्रकृति की इस छतनार के बीच यहां पैदल घूमने का अपना अलग ही आनंद है। यहां कई छोटे ट्रेक व कुछ बड़े ट्रेक भी किए जा सकते हैं। नगर से 39 किलोमीटर दूर देवदार के घने जंगलों के बीच बना ताड़केश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। बड़ी संख्या में लोग वहां जाते है। गुमखाल से कुछ दूरी पर भैरवगढ़ी नामक सर्वोच्च शिखर है जो एक समय गढवाल का एक प्रसिद्ध गढ़ था।

लैंसडौन के निकट ताड़केश्वर महादेव मंदिर

कहां व कैसे

कोटद्वार-पौड़ी मार्ग पर कोटद्वार से 45 किलोमीटर स्थित लैंसडौन में सिविल जमीन का अभाव होने से रिसोर्ट व होटल पांच किलोमीटर दूर जयहरीखाल व डेरियाखाल में बनते जा रहे हैं। 15 साल पहले लैंसडौन में नाम मात्र के होटल थे परन्तु वीकेंड पर्यटन के उभरने से नगर व आसपास एक दर्जन होटल व रिजॉर्ट खुल चुके हैं। इनमें कुछ में बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध हैं। गढ़वाल मंडल विकास निगम के भी यहां पर दो आवास गृह है। पर्यटक गतिविधियों के बढऩे से इस कारोबार से जुड़े लोगों व बाकी सेवाएं उपलब्ध कराने वालों को भी अब प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से कुछ काम मिलने लगा है।

प्राकृतिक संरक्षण की लाजवाब मिसाल

लैंसडौन नगर की पहचान यहां की हरियाली से है। नगर व आसपास के इलाकों में बांज बुरांश, काफल, देवदार, सुरई के वृक्षों की प्रचुरता है व कुछ जगह चीड़ भी हैं। यहां पर सैकड़ों दूसरी वनस्पतियां पाई जाती हैं। यहां के जंगलों में साल भर अनेक प्रकार के पक्षियों को देखा जा सकता है। इसे संरक्षित व विकसित करने का श्रेय छावनी को जाता है। छावनी के कारण यहां पर जंगल अपनी नैसर्गिक स्थिति में हैं। उनकी किसी भी प्रकार से कटाई व छंटाई एकदम प्रतिबंधित है। नगर में सेना द्वारा किए गए भूमि व जल संरक्षण के कार्य शानदार हैं व दूसरों के लिए उदाहरण हैं। पर्यावरण संरक्षण गतिविधियों व दूसरे कार्यों को देख गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट इंदिरा गांधी पर्यावरण जैसा विशिष्ट पुरस्कार पा चुकी है। हरियाली कैसे बचती है और कैसे जल संरक्षण व भूमि संरक्षण के काम होने चाहिए यह तो लैंसडौन आकर समझा व सीखा जा सकता है।

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