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पूर्णिमा की पूरी रात, जंगल में मचान पर

वह माया थी, अपने चार शावकों के साथ। माया बाघिन ने तादोबा को उसी तरह की ख्याति दे दी है जिस तरह की कभी मछली बाघिन ने राजस्थान में रणथंबौर को दी थी। टेलिया इलाके में सैलानी अक्सर माया को उसके बच्चों के साथ देखने के लिए जरूरत आते हैं। हालांकि तादोबा को लोकप्रिय बनाने में माया के अलावा वाघदोह बाघ का भी बहुत हाथ रहा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह भारत का सबसे बड़ा बाघ है। अब यह कितना सच है, कहना मुश्किल है लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि वाघदोह को देखा तो लगता है कि वह वाकई बड़ा ही भव्य और दिव्य है।

बाघ परिवार के पांच सदस्यों को एक साथ देखने का रोमांच सबको नसीब नहीं होता

बहरहाल, यहां मैं जंगल के बीच पेड़ में मचान पर बैठा था और नीचे माया अपने परिवार के साथ पानी में खिलवाड़ कर रही थी। मई के महीने की कड़क दोपहर के बाद शाम ढलने वाली थी। जानवरों के सेंसस (गिनती) में भाग लेने का मेरे लिए तादोबा में यह तीसरा मौका था। सेंसस के लिए 24 घंटे- दोपहर 12 बजे से अगली दोपहर 12 बजे तक मचान पर ही रहना होता है। साथ में एक फॉरेस्ट गार्ड होता है। खाना-पीना साथ ही रहता है। उस दौरान शौचादि के लिए भी नीचे उतरने की इजाजत नहीं होती। गर्मी में डिहाइड्रेशन न हो जाए इसलिए टमाटर व ककड़ी खाने के लिए जरूर रखी जाती है।

यह एक अलग तरह का रोमांच है। मेरी रुचि इसलिए भी इसमें रहती क्योंकि जंगल को इतने नजदीक से और इतना ज्यादा देखने का मौका और किसी तरह नहीं मिलता। फिर महाराष्ट्र  का वन विभाग ही देश के उन गिने-चुने वन विभागों में है जो जानवरों की गिनती के लिए कैमरा ट्रैप के अलावा अब भी आम वालंटियर्स की मदद ले रहा है ताकि गिनती की प्रमाणिकता बनी रहे।

चूंकि जानवर मचान पर बैठे लोगों से अनजान होते हैं, इसलिए वे अपने मूल स्वभाव में रहते हैं। यही उन्हें ऐसे देखने का सबसे बड़ा लुत्फ है, जो बार-बार जंगल में मचान पर खींच लाता है। एक खास बात और। यह सेंसस हमेशा पूर्णिमा की रात को ही होता है क्योंकि जंगल में चांद की रोशनी का उजाला रहता है और उस रोशनी में जानवरों को देख पाना थोड़ा आसान होता है।

मचान आम तौर पर पानी के किसी कुंड के पास होता है। गिनती हर जानवर की करनी होती है (सिवाय बंदरों के। शरारती बंदर झुंड में आते हैं, और उनकी गिनती करना भी मुश्किल होता है।) गिनती उसी जानवर की होती है जो पानी के कुंड के पास आकर पेटभर पानी पीकर लौटता हो। अगल-बगल टहलकर बगैर पानी पिए लौट जाने वाले जानवरों की नहीं क्योंकि उसके फिर लौटने की गुंजाइश रहती है और इस तरह वह गिनती में कई बार शामिल हो सकता है। यह माना जाता है कि जानवर दिन में एक बार पेटभरकर पानी पी ले तो फिर अगले दिन ही पानी पीने आता है। उससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि हर जानवर गिनती में एक बार ही आए।

प्यास के मारे तीनों जानवर बेचारे

तादोबा टाइगर रिजर्व

महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में स्थित तादोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व भारत में सबसे तेजी से लोकप्रिय होते टाइगर रिजर्व में से एक है। हालांकि यह महाराष्ट्र का सबसे पुराना और सबसे बड़ा नेशनल पार्क है। यहां की प्राकृतिक खूबसूरती और बाघ की बढ़ती आबादी ने पड़ोसी मध्यप्रदेश के जाने-माने टाइगर रिजर्वों की थोड़ी चमक अपनी ओर खींच ली है। रिजर्व में अस्सी से ज्यादा बाघ बताए जाते हैं। लगभग साठ बाघ रिजर्व के बाहर आसपास के घने जंगलों में भी हैं। तादोबा यहां के आदिवासी देवता का नाम बताया जाता है और अंधारी इस इलाके में बहती नदी का नाम है। जंगल में भीतर कुछ और जलाशय भी हैं। ये जलाशय कई तरह के निवासी-प्रवासी पक्षियों की आश्रयस्थली के अलावा मगरमच्छों के भी अड्डे हैं।

तादोबा में जंगली सूअरों का झुंड

महाराष्ट्र के तीनों टाइगर रिजर्व- पेंच, मेलघाट और तादोबा अंधारी- विदर्भ इलाके में ही स्थित हैं। तादोबा चंद्रपुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर है। चंद्रपुर में रेलवे स्टेशन है जहां दिल्ली, हैदराबाद व चेन्नई से जाने वाली सीधी ट्रेनें रुकती हैं। नागपुर यहां के लिए सबसे निकट का हवाई अड्डा है जो 137 किलोमीटर की दूरी पर है। तादोबा में रुकने के लिए हर बजट के हिसाब से कई विकल्प मौजूद हैं। कई निजी रिजॉर्ट भी हैं और महाराष्ट्र पर्यटन का रिजॉर्ट भी।

इस इलाके पर कभी गोंड राजाओं का शासन था। आज भी कई जनजातीय लोग घने जंगल के भीतर रहते हैं। पार्क हर साल 15 अक्टूबर से 30 जून तक सैलानियों के लिए खुला रहता है। वैसे नवंबर के बाद मई तक का समय यहां जाने के लिए बेहतरीन है। यह पार्क अपने इको-टूरिज्म प्रयासों के लिए भी जाना जाता है। हालांकि मोहरली से तादोबा तक की एक 20 किलोमीटर की पट्टी साल में पूरे समय खुली रहती है।

तादोबा में मगरमच्छों की संख्या भी अच्छी खासी है

चिमूर पहाडिय़ों की गोद में बसे तादोबा में सफारी के मुख्य रूप से तीन जोन हैं- मोहरली, तादोबा और कोलसा। इन तीन जोन में जाने के लिए छह गेट हैं- मोहरली, कुसवांदा, कोलारा, नवेगांव, पांगड़ी और जरी। हर गेट से भीतर प्रवेश करने वाले वाहनों की संख्या भी सीमित है और पूर्व निर्धारित। इसका फायदा यह होता है कि जंगल के भीतर सैलानियों की भीड़ जमा नहीं होती। सफारी सवेरे व शाम, दोनों वक्त तीन-चार घंटे के लिए होती है।

सफारी के लिए और रुकने के लिए भी अग्रिम ऑनलाइन बुकिंग संभव है। तादोबा के लिए तो अब सफारी की ऑनलाइन बुकिंग 120 दिन पहले कराने की इजाजत है। इसलिए बेहतर है कि बुकिंग पहले करा लें ताकि वहां पहुंचकर ऐन मौके पर निराश न होना पड़े। तादोबा में कई तरह के प्रवेश शुल्क हैं- प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग और फिर वाहन, गाइड, कैमरे आदि के लिए अलग।

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