Wednesday, May 22
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मलाबार में नदियां देती हैं प्रेरणा

दक्षिण मलाबार इलाके पर निला, जिसे अब भरतपुझा नदी भी कहा जाता है, का बड़ा ही मजबूत सांस्कृतिक प्रभाव रहा है। यह नदी तमिलनाडु में पश्चिमी घाट की अनइमलाई पहाडिय़ों से निकलती है और केरल के मलाबार इलाके के तीन जिलों- पालक्कड, त्रिशूर व मलप्पुरम से होकर गुजरती है। मलप्पुरम जिले में पोन्नानि में अरब सागर में मिलने से पहले यह नदी इन जिलों के ग्यारह तालुकों से होकर गुजरती है।

निला या भरतपुझा नदी

यह नदी यहां के सांस्कृतिक जनजीवन का हिस्सा है और नदी, इसके किनारे बने मंदिरों और उन मंदिरों में बैठे देवी-देवताओं से जुड़ी कई लोककथाएं व मिथक प्रचलन में हैं। इस नदी का तट कई ऐतिहासिक घटनाक्रमों का भी गवाह रहा है। जमोरिन राजाओं के समय में मलप्पुरम में तिरुनवया में हर 12 साल में केरल के सभी शासकों का महा-समागम- ममंगम होता था। यह समागम आखिरी बार 1766 में हुआ। आज यहां सालाना सर्वोदय मेला होता है। उसके अलावा सदियों से हिंदू या अपने पूर्वजों के तर्पण (पितृक्रिया) की भी रस्म भरतपुझा नदी के तट पर अदा करते रहे हैं। तिरुवनया नवमुकुंद मंदिर यहां के लोगों में खासी अहमियत रखता है।

भरतपुझा नदी सदियों से इसके असपास रहने वाले कलाकारों, रचनाकारों की प्रेरणा का भी जरिया रही है। मलयालम भाषा के जनक माने जाने वाले तुंचत्तेझुत्तच्छन से लकर मौजूदा पीढ़ी के तमाम शीर्ष मलयालम लेखकों ने इस नदी को अपनी कथा को चरित्र बनाकर महान रचनाएं की हैं।

एम.टी. वासुदेवन नायर

एम.टी. वासुदेवन नायर, वी.के.एन. (वदक्के कूत्तला नारायण कुट्टी नायर) और पी. कुन्हीरमन नायर जैसे कई लेखक इस नदी से प्रेरित हुए। 1933 में जन्मे वासुदेवन नायर को तो 1995 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। आगे जाकर व मलयालम सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पटकथा लेखकों में भी शुमार हुए। वैसे मलाबार के इस क्षेत्र ने देश को कई जाने-माने रचनाकार दिए हैं। साहित्य के क्षेत्र में कासरगोड में मंजेश्वरम के  रहनेवाले कन्नड कवि महाकवि एम. गोविंद पाई भी उनमें हैं जिन्हें तत्कालीन मद्रास सरकार ने (जब कासरगोड दक्षिण कनारा जिले का हिस्सा था) पहले राष्ट्रकवि का दर्जा दिया था। वह कन्नड के विद्वान भले ही थे लेकिन उनका कर्नाटक के साथ-साथ मलाबार इलाके में भी काफी सम्मान था। वह 25 देशी-विदेशी भाषाओं के जानकार थे।

इसी तरह कासरगोड के माप्पिला पाट्टु रचयिता मोय्यिनकुट्टी  वैद्यर (1857-1891)का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है जिन्हें महाकवि के तौर पर जाना जाता है। मलाबारी साहित्य को योगदान देने वालों में वैक्कम मुहम्मद बशीर (1908-1994) और एस.के. पोट्टाक्कट (1913-1982)भी शामिल हैं। पोट्टाक्कट को 1980 में उनके उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ दिया गया था।

ओ.वी. विजयन

ओ.वी. विजयन (1930-2005) एक अच्छे कार्टूनिस्ट भी थे। वह कई अखबारों के लिए भी काम करते रहे। वह पालक्कड में पैदा हुए थे और उन्होंने पालक्कड की पृष्ठभूमि पर आंचलिक उपन्यास- खसाक्किन्टे इतिहासं लिखा था जो काफी चर्चित हुआ। वह भी केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा पद्मभूषण से सम्मानित हो चुके हैं। 2005 में जब वह सिकंदराबाद में गुजरे थे तो उनके शरीर को केरल लाकर भरतपुझा नदी के किनारे ही उनकी अंत्येष्टि की गई थी।

मलाबार के साहित्यकारों में  एम. मुकुंदन, पी.वत्सला, पुनत्तिल कुञ्ञब्दुगा, नलिनी बेक्कल आदि भी बहुचर्चित हैं। नलिनी बेक्कल (जन्म: 1954) ने बेकल की आंचलिक पृष्ठभूमि में तुरुत्तु नामक उपन्यास लिखा। एम. मुकुंदन (जन्म: 1942) ने कन्नूर जिले में मय्यष़ी पुष़ा यानी माहे नदी की पृष्ठभूमि में मय्यष़ी पुषय़ुटे तीरंगलिल की रचना की। पी.वत्सला ने अट्टप्पाटी को पृष्ठभूमि  बनाकर नेगु, पोन्नी आदि औपन्यासिक कृतियां रचीं। ये सभी मलबार की आंचलिक संस्कृति, बोली, भौगोलिक विशेषताओं और जीवन को उभारने वाली कृतियां रही हैं।

अन्य नामों में मलयालम-अंग्रेजी शब्दकोश व व्याकरण ग्रंथ की रचना करने वाले हेर्मन गुंडर्ट (1814-1893), उरूब के उपनाम से चर्चित पी.सी. कुट्टिकृष्णन (1915-1975) और पुनत्तिल कुञ्ञब्दुल्ला (जन्म: 1940) भी रहे हैं। एन.पी. मुहम्मद (1928-2003 ) ने कोझिकोड की पृष्ठभूमि में आंचलिक उपन्यास- मरं लिखा था।

केरल कलामंडलम
कवि वल्लतोल

मलाबार में साहित्य व कला के संगम की चर्चा कवि वल्लतोल के बिना अधूरी है। कवि वल्लतोल नारायण मेनन (1878-1958) का तो इस नदी से बड़ा भावनात्मक व आध्यात्मिक रिश्ता रहा और इसीलिए उन्होंने चेरुतुरुती में कला के बहुआयामी केंद्र के रूप में केरल कलामंडलम की स्थापना की थी। इसे दुनिया भर में कथकली के केंद्र के रूप में जाना जाता है। लेकिन यहां बाकी कलाओं- मोहिनियट्टम, कुड्डियट्टम, तुल्लल व नंगियारकुत्तु आदि का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां का कूतांबलम पारंपरिक नृत्य मंच केरल का अकेला ऐसा मंच माना जाता है जो किसी मंदिर परिसर के बाहर है। वल्लतोल ने केरल कलामंडलम की स्थापना उस समय की थी जब कथकली की लोकप्रियता में गिरावट आ रही थी। तब अंग्रेजी का जोर बढ़ रहा था और कला के विभिन्न स्वरूप केवल कुछ मुट्ठीभर लोगों के नियंत्रण में रह गए थे। तब पारंपरिक कलाओं को फिर से जिंदा करने और उन्हें आम लोगों तक पहुंचाने के लिए केरल कलामंडलम की स्थापना की परिकल्पना वल्लतोल और उनके साथ जुटे कुछ अन्य कवियों द्वारा रची गई। और कोई हैरत की बात नहीं कि इसके लिए भी फिर से भरतपुझा नदी का किनारा ही एक प्रेरणा के तौर पर काम आया।

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