Tuesday, November 5
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प्रकृति की छांव में खिर्सू

उत्तराखंड में कुछ स्थलों पर प्रकृति कुछ अधिक ही मेहरबान दिखती है जिनमें गढ़वाल जिले का खिर्सू भी एक है। इसके एक ओर गगन चूमती भव्य हिमचोटियों दिखती है तो पीछे बांज, बुरांश व देवदार आदि पेड़ों का सम्मोहित कर जाने वाला घना जंगल। शान्ति ऐसी कि बाहरी शोर प्रकृति की निशब्दता के बीच बेसुरा व अलग सा लगने लगता है। 

समुद्रतल से लगभग 1750 मीटर की ऊंचाई पर बसा खिर्सू एक गांवनुमा कस्बा है और इसी नाम से बने विकासखण्ड का प्रशासनिक केंद्र भी। बताया जाता है कि खरसू के पेड़ों की बहुलता के कारण ही एक अंग्रेज अधिकारी ने इस जगह को यह नाम दे दिया।  

शोरोगुल से दूर

खिर्सू ऐसे पर्यटकों की पसंदीदा जगह हैं जो शोरोगुल व भीड़ से दूर रहकर  प्रकृति के सानिध्य का भरपूर आनंद उठाना चाहते हैं। खिर्सू दूसरे स्थानों के विपरीत भीड़-भाड और हो-हल्ले से कोसों दूर है। गांव के जितना सीमित और बाजार के नाम पर मुट्ठीभर दुकानें ही यहां पर नजर आएंगी। पर मीलों दूर हिमालय की चोटियां यहां से कुछ ऐसा अहसास दिलाती है कि जैसे एक ओर वे है और दूसरी ओर सिर्फ आप। आसमान साफ हो तब भी और बादलों से घिरा हो तब भी यहां से दिखने वाली हिमालय की छटा एक नयनाभिराम नजारा प्रस्तुत करती है। खास तौर पर सूर्यादय और सूर्यास्त की बेला के समय हिमालय की चोटियों का स्वर्णिम आभामंडल आपको मोहित कर देने के लिए काफी है।

खिर्सू में यदि हिमालय की भव्यता सम्मोहित करती है तो पीछे मौजूद सघन वन और मनोरंजन पार्क भी इसकी खासियत है। बांज व बुरांश के घने जंगलों के सामने यह पार्क पहाड़ी की ढलान पर लगभग तीन हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला है। यहां पर वाच टावर, बैठने के शेड और बच्चों के मनोरंजन के साधन हैं। ज्यादातर हिल स्टेशनों में जहां जंगल कटते जा रहे हैं वहीं खिर्सू में मौजूद बांज-बुरांश के घने के जंगल की बात के क्या कहने! कितने ही छवियों को कैमरे में कैद करने बाद भी लगता है कि यह एंगिल तो रह गया।

खिर्सू के आसपास घने जंगल

भीषण सर्दी के बाद जैसे ही बसंत दस्तक देने को होता है, पार्क की छटा देखने लायक होती है। सर्दी से अलसाये वृक्ष ऐसे लगते हैं मानो तरुणाई के गीत गुनगुना रहे हों। उनमें नई कोपलें फूटने के साथ पार्क में फूलों का साम्राज्य छाने लगता है। मार्च की समाप्ति के साथ के जैसे मैदानों में चिलचिलाती गर्मी परेशान करने लगती है यहां पर्यटकों की संख्या बढ़ने लगती है जो यहां के स्वच्छ वातावरण व शीतल जलवायु के सानिध्य में कुछ समय व्यतीत करने के लिए यहां आते रहते हैं। मार्च से लेकर दिसंबर तक यह सिलसिला चलता रहता है। बरसात के समय यहां आने वालों की संख्या काफी कम हो जाती है। सितंबर हुआ नहीं कि फिर से यहां पर पर्यटक आने लगते हैं। क्रिसमस और नए साल पर भी यहां पर भीड़ दिखती है तो बर्फबारी पर भी। इसके अलावा एक दिनी पिकनिक के लिए निकटवर्ती नगरों पौड़ी और श्रीनगर के लोग भी यहां पर बड़ी संख्या में आते हैं जिनमें बच्चों की संख्या अधिक होती है।

देवलगढ मंदिर समूह

खिर्सू के पास ही देवलगढ़ एक पुरातत्व महत्व का स्थान देखने के योग्य है। एक समय यह गढ़वाल के 52 गढ़ों की राजधानी थी। इसका पूर्व नाम क्या था और इसके तब गढ़पति कौन थे यह स्पष्ट नहीं है। अनुश्रुतियों के अनुसार देवलगढ़ को कांगड़ा के राजा देवल के द्वारा स्थापित किया गया जो कालांतर में उनके नाम से देवलगढ़ कहलाया गया। लेकिन कुछ इतिहासकार इसके इस नामकरण को राजा देवल के द्वारा बसाए जाने की बजाय यहां के द्यूल (मंदिरों) के मौजूद होने से देवलगढ नामकरण की बात करते हैं। पन्द्रहवीं सदी में गढ़वाल के राजा अजयपाल ने अनके गढ़ों को जीतकर अपनी नई राजधानी चांदपुर गढ़ के स्थन पर देवलगढ़ बसाई जो कुछ समय के बाद इसे यहां से श्रीनगर ले गए।

देवलगढ़ में गौरा देवी मंदिर

देवलगढ़ में कभी अनेक मंदिर थे जो समय के थपेड़ों व रखरखाव के अभाव और भूकंप व अन्य कारणों से ध्वस्त होते रहे। बचे मन्दिरों में गौरा देवी का मन्दिर सबसे भव्य है। कहा जाता है कि यहां के आरम्भिक मन्दिरों की कुछ मूर्तियों को गौरादेवी के मन्दिर में प्रतिष्ठित गिया गया। इसी के समीप दो प्राचीन लघु मन्दिर मुरली मनोहर मन्दिर और दत्तात्रेय के हैं। दत्तात्रेय नाथ सम्प्रदाय के उपास्य माने जाते हैं। गोरखपंथ में अटूट आस्था के चलते जब राजा अजयपाल गोरखपंथी हुए तो उन्होंने देवलगढ़ में सत्यनाथ मन्दिर की स्थापना की। राजश्रय मिलने से देवलगढ़ गढ़वाल में गोरखपंथियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था। देवलगढ में भैरव मन्दिर भी हैं। गौरादेवी के मन्दिर के निकट दो तलीय पत्थर से बना एक मण्डप ‘सोम का माण्डा’ है जहां से दूर-दूर तक का दृश्य दिखाई देता है। यहां पर बैठकर राजा अजयपाल प्रजा की फरियाद सुना करते थे या ध्यानस्थ होते थे। टिहरी राजपरिवार की कुलदेवी राज राजेश्वरी का मन्दिर भी यहीं पर है।

उल्खागढ़ी

खिर्सू से पौड़ी की ओर 3 किमी की दूरी पर चौबट्टा नामक स्थान है जहां से इस गढ़ी का रास्ता चला गया है। इस जंगलों से घिरी पहाड़ी पर दो किमी पैदल चढाई चलने के बाद इसकी चोटी आती है जिसके ऊपर उल्खेश्वरी देवी का मन्दिर है। यह कभी एक उपगढ़ था जिसके आज खण्डहर ही बचे हैं। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 1900 मीटर है। यहां से चारों ओर का नयानाभिराम नजारा दिखता है। 

पौड़ी से खिर्सू जाते हुए दिखने वाला हिमालय की चोटियों का नजारा

हरियाली देवी ट्रैक

यदि आप ट्रेकिंग के शौकीन हैं तो खिर्सू से 25 किमी दूर भैंसवाड़ा से एक सुन्दर ट्रैक हरियाली देवी की ओर जाता है। जहां पर हरियाली देवी मन्दिर है। यहां पर पौड़ी, चमोली और रुद्रप्रयाग जनपदों से श्रद्धालु आते हैं। खिर्सू से डबरुखाल होते हुए भैसवाड़ा तक सड़क मार्ग हैं जो खिर्सू से अधिक ऊंचाई पर है। यहां से हरियाली देवी मन्दिर की दूरी 12 किमी. दूर है। वहां से यह ट्रेक जंगल व पहाड़ियों के बीच से होकर गुजरता है। इस ट्रेक से गुजरते समय हिमालय की श्रृंखलाएं बेहद निकट नजर आती हैं। शीतकाल में यहां पर बहुत बर्फ गिरती है। हरियाली देवी मन्दिर में पानी की उपलब्धता नहीं है इसलिए पानी लेकर चलना होता है। इस स्थान की समुद्र तल से ऊंचाई लगभग नौ हजार फीट है। भैंसवाड़ा से सुबह चलकर शाम को लौटा जा सकता है। रास्ता पथरीला और उबड़़-खाबड़ है। चाहे तो इसके दूसरी ओर रुद्रप्रयाग व गौचर की ओर निकल सकते हैं।

कहां रुकें

खिर्सू में गढ़वाल मंडल विकास निगम का पर्यटक आवासगृह है। इसके सामने हिमालय का नयनाभिराम दृश्य देखा जा सकता है। यहां पर कुछ हट्स उपलब्ध मिलते हैं। खिर्सू में वन विभाग का 1913 में निर्मित ब्रिटिशकालीन डाक बंगला भी है जिसमें तीन कक्ष बुरांश, काफल व अखरोट हैं। इसी परिसर में वनविभाग ने कुछ बैंबू हटस भी हैं। यह   सघन वृक्षों के मध्य है। इसी प्रकार कुछ निजी आवासगृह भी यहां पर खोले गए हैं। कभी कभार कुछ संस्थाएं यहां पर रुकने के लिए अस्थायी हट भी लगाती है। यहां पर जगह न होने पर 19 किमी पौड़ी ही रुकने का विकल्प है।

खिर्सू में वन विभाग का 1913 में निर्मित ब्रिटिशकालीन डाक बंगला

कैसे पहुंचे

जब सड़कें नहीं थीं तो दूर-दूर से यहां पर आने वाले बच्चे यहां एक बोर्डिग स्कूल में रहते थे। तब यह बोर्डिग स्कूल काफी लोकप्रिय था जिस पर एक लोकगीत भी बना है। खिर्सू आने के तीन मार्ग हैं। जिनमें से एक मार्ग बदरीनाथ मार्ग पर रुद्रप्रयाग जिले के खांकरा से होते हुए है जबकि कोटद्वार व पौड़ी से जाने वाले मार्ग वाया बुवाखाल से होता हुआ आता है। बुवाखाल दो राष्ट्रीय राजमार्गों काशीपुर-बुवाखाल और पौड़ी-मेरठ राजमार्ग का जंक्शन है। वहीं एक मार्ग श्रीनगर से यहां पर आता है। बुवाखाल से खिर्सू की दूरी 13 किमी है जबकि कोटद्वार से बुवाखाल 100 किमी और पौड़ी से 6 किमी दूरी पर है। श्रीनगर से खिर्सू की दूरी 31 किमी है। बुवाखाल से खिर्सू जाने वाला मार्ग घने वन क्षेत्र से भी गुजरता है जो एक यादगार अनुभव कराता है। रास्ते में फैड़खाल नामक स्थान है जहां से पर्यटक स्थानीय उद्यमियों द्वारा बनाया जाने वाला बुरांश, बेल व माल्टा आदि का शरबत ले जाना नहीं भूलते हैं।

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