मलाबार का इलाका केरल की कई पारंपरिक कलाओं का केंद्र रहा है। इनमें तैय्यम और कलरिपयट्टु शामिल हैं। वहीं कर्नाटक से लगे उत्तर केरल में कासरगोड यक्षगान और पुतलियों के नाच के लिए प्रसिद्ध है।
तैय्यम को कलियट्टम भी कहा जाता है। यह नृत्य परंपरा कम से कम आठ सौ साल पुरानी बताई जाती है। यह उत्तर केरल में प्रचलित रहा मूलत: धार्मिक अनुष्ठान का नृत्य है। कन्नूर व कासरगोड जिलों में इस कला की खास तौर पर परवरिश हुई। यह भी कहा जाता है कि तैय्यम दरअसल दैवम् शब्द का अपभ्रंश या देशज रूप है। इसमें नृत्य है,अभिनय है, संगीत है और प्राचीन जनजातीय संस्कृति की झलक इसमें साफ देखने को मिलती है। उसमें नायकों के यशोगान और पूर्वजों की आत्माओं के ध्यान को ज्यादा अहमियत दी जाती थी।
माना जाता है कि लगभग चार सौ किस्म के तैय्यम प्रचलन में हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय रक्त चामुंडी, करी चामुंडी, मुचिलोट्टु भगवती, वयनाडु कुलवेन, गुलिकन व पोट्टन आदि हैं। तैय्यन की प्रस्तुति आम तौर पर मंदिरों के सामने होती है जिसमें न तो मंच का इस्तेमाल होता है और न ही परदे इत्यादि का। दक्षिण मलाबार में तैय्यम को तिरा भी कहते हैं। जैसे उत्तर भारत में अनुष्ठानों में देवताओं का आह्वान किया जाता है, उसी तरह से तैय्यम में भी तुदंगल व तोट्टम की परंपरा होती है। उत्तर मलाबार में कई जगहों पर दिसंबर से लेकर अप्रैल के बीच तैय्यम के सालाना आयोजन होते हैं। इनमें करिवल्लूर, नीलेस्वरम, कुरुमत्तूर, चेरुकुन्नू, इझोम, कुन्नातूरपदी आदि जगहें शामिल हैं। इधर कन्नूर के परस्सिनिकतावु श्रीमुत्तप्पन मंदिर में रोजाना तैय्यम की प्रस्तुति होती है। तैय्यम की प्रस्तुति के लिए चेहरे की सजावट, मुकुट की भव्यता, खास तरह के वस्त्राभूषण खास होते हैं। मलाबार में कई जगहों पर परिवारों व समुदायों के बीच भी अनुष्ठानों और खास मौकों पर तैय्यम की प्रस्तुति होती है। मलाबार इलाके में हर साल तैय्यम के सौ से ज्यादा आयोजन होते हैं। अगर मलाबार जाकर तैय्यम का आनंद लेना है तो यह उसका सबसे सही वक्त है।
वहीं यक्षगान कासरगोड और दक्षिण कानरा यानी दक्षिण कर्नाटक में प्रचलित एक दृश्य कला रूप है। यह एक तरह की लोक नृत्य-नाटिका सरीखी होती है। कथकलि के साथ इसकी कुछ समानताएं हैं और अंतर भी हैं- कथकलि में पात्र बोलते नहीं, लेकिन यक्षगान में पात्र बोलते हैं। कथकलि में पात्रों की चाल कुछ धीमी होती है जबकि यक्षगान में तेज होती है।
मलाबार के मुसलमानों की एक पारंपरिक कला डफमुत्तु है। इसकी प्रस्तुति आम तौर पर सामाजिक आयोजनों या शादी आदि के मौके पर होती है। इस कला का नाम इसके वाद्य डफ से आया है। डफ हमारे उत्तर भारत की डफली सरीखा ही होता है- लकड़ी से बना जिसपर बैल की चमड़ी कसकर तान दी जाती है। डफ शब्द अरबी से आया है और वहां इसे थपिट्टा भी कहते हैं। डफ बजाते हुए कलाकार घेरे में घूमते हैं और गाते हैं। एक मुख्य गायक होता है और बाकी लोग कोरस में साथ देते हैं।
मुस्लिम धर्मावलंबियों द्वारा विभिन्न प्रसंगों में गाए जाने वाले- माप्पिलापट्टु के लिए भी मलाबार का कासरगोड इलाका मशहूर है। उत्तर केरल के माप्पिला समुदाय में ओप्पन भी एक प्रचलित कला है। डफपट्टू में जहां पुरुष मुख्य रूप से रहते हैं, वहीं ओप्पन की परंपरा महिलाओं में है और यह नृत्य व संगीत से भरपूर है। इसमें गायन भी होता है। ओप्पन में अरब की नृत्य परंपराओं का काफी असर नजर आता है। ओप्पन शब्द भी अरबी के अफ्ना शब्द से निकला माना जाता है। ज्यादातर यह विवाह के समय किया जाता है। इसकी भाषा आम तौर पर अरबी व मलायलम मिश्रित होती है और भाव में यह सारा गायन विवाह के समय की उसी तरह की छेडख़ानियों से भरपूर होता है जैसा आम तौर पर उत्तर भारत में विवाह के समय के ठेठ लोकगीत होते हैं। हालांकि विवाह के अलावा भी कई अन्य अवसरों पर यह होता है। इसी तरह माप्पिलापट्टु भी मलाबार के माप्पिला मुसलमान समुदाय द्वारा गाए जाने वाले गीतों का नाम है। इन गीतों की परंपरा भी सात सौ साल से ज्यादा वक्त से चली आ रही है और ये पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते रहते हैं।
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