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मंगोलिया से अफ्रीका वाया दोयांग

हर साल लाखों प्रवासी अमुर बाजों की मेजबानी करती है यह खूबसूरत झील

नगालैंड की दोयांग झील – विशाल और खूबसूरत। कल्पना कीजिए कि आधे घंटे के भीतर कई लाखों की संख्या में अमुर बाज इस झील और उसके ऊपर के आसमान को पूरी तरह पाट दें- हर तरफ सिर्फ अमुर बाज!

यकीनन यह दुनिया में पक्षियों के प्रवास की सबसे अनूठी कहानी है। इसका अनूठापन केवल इसके प्रवास में नहीं है बल्कि उसके संरक्षण में भी है। पिछले आठ सालों में संरक्षण की इस कोशिश ने दुनिया को चमत्कृत किया है। यह कहानी अमुर बाजों (फॉल्कन) की है। लोगों की भागीदारी से ऐसा कारनामा हुआ है। पहले जो लोग इन पक्षियों को मार देते थे वही लोग आज इन पक्षियों को बचाने का काम कर रहे हैं।

कुछ इस तरह छा जाते हैं यहां के आकाश में अमुर बाज

लेकिन अमुर बाजों का प्रवास अपने आप में विलक्षण है। कई लाखों की संख्या में ये बाज हर साल मध्य एशिया में मंगोलिया से दक्षिण अफ्रीका प्रवास के लिए जाते हैं। सालाना प्रवास के लिए आने-जाने का यह सफर कोई मामूली नहीं बल्कि 22 हजार किलोमीटर का है। दुनियाभर में किसी पक्षी के लिए सालाना प्रवास पर इतनी दूरी करने का और कोई उदाहरण नहीं मिलता। इस सफर में इनके दो पड़ाव होते हैं- मंगोलिया के बाद पहला पूर्वोत्तर भारत में नगालैंड और दूसरा अफ्रीका में सोमालिया। पहले पड़ाव के लिए ये पक्षी महज पांच दिन में ढाई से तीन हजार किलोमीटर के बीच की दूरी तय करते हैं। कुछ दिन यहां बिताने के बाद ये पक्षी आगे का सफर शुरू कर देते हैं। इसके बाद इन्हें भारतीय प्रायद्वीप को पार करके हिंद महासागर पार करना होता है। अरब सागर या फिर हिंद महासागर के रास्ते विशाल समुद्र को पार करने के बाद अफ्रीकी भूमि पर सबसे पहला इलाका सोमालिया का ही आता है, लिहाजा वही उनका दूसरा पड़ाव बनता है। नगालैंड से सोमालिया की दूरी भी साढ़े पांच हजार किलोमीटर से कम की नहीं है। अक्सर यह दूरी भी एक साथ पूरी की जाती है। तीसरे चरण में ये सोमालिया से उड़कर लगभग साढ़े चार हजार किलोमीटर नीचे दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं। जहां वे सर्दियों का बाकी समय बिताते हैं।

बताया जाता है कि फरवरी-मार्च में वे वहां से वापसी का सफर शुरू कर देते हैं। हालांकि वापसी वे किसी और रास्ते से करते हैं और उसके बारे में कोई ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती। मोटे तौर पर यह माना जाता है कि वे अफ्रीका और अफगानिस्तान से होते हुए मंगोलिया पहुंचते हैं। बहरहाल, अप्रैल होते-होते वे अपने ठिकानों पर फिर से पहुंच जाते हैं। वहां फिर पांच महीने ही तो बिताते हैं और अक्टूबर शुरू होते-होते उनके प्रवास का नया दौर शुरू हो जाता है। इस तरह का चक्र और उसमें इतना सफर और उसमें भी समुद्र के ऊपर इतना सफर- यह किसी और प्रवासी पक्षी के मामले में देखने को नहीं मिलता।

हैरतअंगेज यह भी लगता है कि मध्य एशिया में हर साल नवंबर में बर्फ पड़ने से पहले इन अमुर बाजों की समूची की समूची आबादी प्रवास को निकल पड़ती है। अमुर दरअसल साइबेरिया इलाके में रूस व चीन के बीच बहने वाली एक नदी का नाम है। यह नदी से जुड़े इलाके की विलक्षणता है या कुछ और, लेकिन अमुर क्षेत्र वन्य प्राणियों के मामले में बहुत संपन्न है। इसीलिए जिन वन्य प्राणियों के आगे अमुर लग जाता है, वे खास हो जाते हैं- जैसे कि अमुर टाइगर, अमुर लेपर्ड, अमुर फॉल्कन और यहां तक कि अमुर फिश भी।

खैर, हम बात कर रहे हैं अमुर बाज की। जब वे प्रवास के लिए मंगोलिया से उड़ान भरते हैं तो पूर्वोत्तर भारत में नगालैंड आते हैं। कुछ झुंड बांग्लादेश की ओर भी निकल जाते हैं। नगालैंड में वोखा जिले की दोयांग झील इनका ठिकाना होती है। निकट ही मणिपुर के तामेंगलोंग में भी वे पहुंचते हैं। कुदरत का करिश्मा देखिए हर साल ये बाज बिना नागा अक्टूबर में लगभग एक ही समय दोयांग पहुंचते हैं। जब ये दोयांग पहुंचते हैं तो देखते ही देखते आधे घंटे के भीतर दस लाख अमुर बाज झील के पास उतर जाते हैं। समूची झील और उसके ऊपर का आकाश मानो अमुर बाजों से पट जाता है। यह दृश्य पक्षी प्रेमियों को ही नहीं किसी भी आम आदमी को भीतर तक आह्लादित कर सकता है। वोखा इन बाजों का दूसरा घर सरीखा है और नगालैंड के पंगटी गांव को तो अमुर बाज की विश्व राजधानी तक घोषित कर दिया गया था।

हर जगह सिर्फ अमुर फॉल्कन

लेकिन कितनी हैरानी की बात है कि महज डेढ़ सौ ग्राम वजन का यह हल्का-फुल्का पर हिम्मती व शातिर हमलावर पक्षी करीब दस साल पहले तक हजारों की तादाद में बड़ी बेदर्दी से शिकार कर लिया जाता था। हर साल इन पक्षियों के भारत के नगालैंड पहुंचते ही इनका शिकार शुरू हो जाता था। वर्ष 2012 में हजारों की संख्या में पक्षी मार दिए गए तो सवाल उठने लगे। कुछों ने तो मारे गए बाजों की संख् लाख से भी ऊपर बताई। यह भी विडंबना देखिए कि इस विलक्षण यायावर की पहले कभी इतनी चर्चा नहीं होती थी। लेकिन 2012 में जब शिकार की विचलित करने वाली खबरें और फोटो सामने आई तो दुनियाभर में बेचैनी महसूस की जाने लगी। इतनी ज्यादा, कि लगा कि अगर कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो जाएगी। तुरंत कदम उठाए गए और सबसे महत्वपूर्ण कदम यह था कि सख्ती का सहारा लेने के बजाय लोगों के दिल बदलकर शिकार करने वालों को ही रक्षक की भूमिका में ढाल दिया गया।

साल 2013 में पंगटी व आसपास के गांवों में ग्राम सभाओं द्वारा ऐलान करके इन पक्षियों के शिकार  व उन्हें पकड़ने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई। लिहाजा जो समुदाय अमुर बाजों का शिकार कर उनका मांस खाते थे, वही अब वन्य जीव संरक्षण संस्थानों और कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई प्रेरणा और प्रशिक्षण के कारण इन पक्षियों को बचाने का काम करने लगे। यह बदलाव इतना चमत्कारिक था कि उसके बाद के सालों में अमुर बाजों के शिकार की कोई बड़ी घटना देखने को नहीं मिली। अच्छा यह भी हुआ कि इस सारे प्रकरण से इन बाजों की यात्रा के बारे में उत्सुकता और जागरुकता, दोनों पनपीं। केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इस पक्षी पर अध्ययन की जिम्मेदारी भारतीय वन्यजीव संस्थान को सौंप दी। इसमें नागालैंड वन विभाग और नगालैंड वाइल्डलाइफ एंड बायोडाइवर्सिटी कंजर्वेशन ट्रस्ट (एनडब्लूबीसीटी) जैसी अन्य कई संस्थाओं की मदद ली गई। स्थानीय स्तर पर इन्हें बचाने की भी मुहिम चलाई गई।

केंद्रीय वन्यजीव संस्थान ने इन अमुर बाजों के सफर का और गहराई से अध्ययन करने का फैसला किया। दुनिया के प्रमुख पक्षी व बाज विशेषज्ञों की निगरानी में संस्थान ने तीन फाल्कन पर पांच ग्राम का सैटेलाइट चिप लगाया ताकि उनकी उड़ान व पूरे सफर पर निगरानी रखी जा सके। इनमें एक नर था और दो मादा। नर का नाम नगा रखा गया और मादाओं में से एक का नाम वोखा और दूसरी का पंगटी। नर फाल्कन ने पांच दिन तक बिना रुके नगालैंड से सोमालिया तक की उड़ान पूरी की। बीच में अरब सागर को पार करने में नर फाल्कन को तीन दिन का वक्त लगा। दूसरी ओर, नगालैंड से उड़ान के बाद एक मादा ने आंध्र प्रदेश में जबकि दूसरी ने महाराष्ट्र में रात बिताई थी। दोनों मादाएं सात दिन बाद सोमालिया पहुंचीं। खास बात यह रही कि तीनों पक्षियों ने अलग-अलग मार्गों से अपनी उड़ान पूरी की, लेकिन पहुंचे एक ही स्थान पर। संस्थान ने इन तीन पक्षियों के पूरे सफर को रिकॉर्ड किया। वोखा का संपर्क तो दक्षिण अफ्रीका में ठिकाने पर पहुंचने के दो महीने बाद खत्म हो गया। लेकिन नगा व पंगटी का कायम रहा और वह न केवल उनके अमुर इलाके में उनके वापस पहुंचने तक कायम रहा बल्कि अगले साल भी रहा जब यह रिकॉर्ड किया गया कि उन लोगों ने फिर से वही चक्र अगले साल भी पूरा किया।

इसी तरह साल 2019 में भी मणिपुर में तामेंगलोंग में दो अमुर बाजों को रेडियो टैग किया। उन्हें चियुलोन व इरांग नाम दिया गया और तब से अब तक लगातार उनकी उड़ान व सतत प्रवास पर लोगों की निगाह बड़ी उत्सुकता से रहती है। इस साल भी स्थानीय लोग उम्मीद कर रहे हैं कि ये दोनों तय समय पर अक्टूबर में यहां पहुंचें और फिर अगले साल और उसके अगले साल….

अमुर बाजों की उड़ान का नक्शा। साभारः एच. सिंह, वन अधिकारी, तामेंगलोंग, मणिपुर

संरक्षण की इस कहानी को इसीलिए इतना खास माना जाता है। शिकार करने वाली जनजातियां अब इन्हें अपना मित्र समझती हैं। ये बाज तमाम तरह के कीड़ों को खा जाते हैं जिससे किसानों को फसलें बचाने में मदद मिलती है।

हर साल इनके नगालैंड से रवाना होने के बाद अफ्रीकी देशों में किसान इन बाजों का इंतजार करते हैं ताकि खेतों में फैली टिड्डियों को खाकर ये उनकी फसलों को बचा सकें।

इलाके के बुजुर्ग लोग कहते हैं कि उनके पूर्वजों ने कभी इन पक्षियों का शिकार नहीं किया। वे हमेशा से उन्हें देवदूत मानते रहे जो अच्छी फसलों का शुभ संकेत लेकर आते थे। यह तो कुछ समय पहले युवा पीढ़ी ने मौज-मस्ती में उनका शिकार करना और उन्हें खाना शुरू कर दिया। अब वह रुक गया है और सभी उम्र व वर्ग के लोग उनके संरक्षण में जुट गए। फिर वहां अक्टूबर में अमुर फॉल्कन डांस फेस्टिवल आयोजित किया जाने लगा जिसमें ब्यूटी कांटेस्ट भी होते हैं। संरक्षण उपायों की कामयाबी को देखते हुए मणिपुर में फालोंग गांव को भी अमुर बाज गांव का नाम दे दिया गया।

सरकारें बाजों को बचाने के बाद इस कोशिश में लग गईं कि सैलानियों को यहां आने के लिए प्रेरित किया जाए। इसीलिए केंद्र सरकार ने पक्षी प्रेमियों के लिए दोयांग झील क्षेत्र को इको पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का भी फैसला किया। यहां सैलानी आने लगे, स्थानीय लोगों ने घरों में होमस्टे खोल लिए, पक्षियों को बचाने से उन्हें आय का अतिरिक्त जरिया मिल गया।

पिछले साल यानी 2020 में कोविड महामारी के असर के कारण यहां सैलानी कम आए, और वन्य प्रेमियों को डर लगने लगा कि कहीं आय का नुकसान होने से व सैलानी न आने से लोग फिर से शिकार में न लग जाएं। लेकिन जहां दुनियाभर में कई जगहों पर वाकई वन्यजीवों के शिकार की घटनाएं बढ़ीं, लेकिन अमुर बाजों के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे आए और बड़ी संख्या में आए। यहां तक कि उनके बसेरे और बढ़ गए। अब लोगों को इस साल 2021 में यानी महामारी के दूसरे साल में लेकिन पिछले साल से कुछ बेहतर स्थितियों के बीच उनके फिर से लौटने का इंतजार है।

दोयांग, वोखा और आसपास

नगालैंड के वोखा में खूबसूरत दोयांग झील

दोयांग नदी नागालैंड की सबसे बड़ी और मुख्य नदियों में से एक है, जो वोखा जिले से होते हुए बहती है। शहर के अंदर यह करीब 21 किलोमीटर लंबी है। स्थानीय आदिवासी इसे ज़ू या ज़ूलू भी कहते हैं। नदी से कई सहायक नदियां निकलती हैं, जैसे सुई, तुलो और तिषी- ये सारी नदियां आगे जाकर दोयांग नदी में मिल जाती हैं। यह नदी जिले के उत्तरी हिस्से से निकलती है, फिर पूरब की ओर मुड़ जाती है और अंत में सजु नदी से मिल जाती है। जिले के अधिकांश भागों में रहने वाले लोगों के लिए यह नदी जल का मुख्य स्रोत है। सजु नदी के साथ-साथ इस नदी का बहाव आस-पास की जमीनों को उपजाऊ बनाता है और वहां सब्जियां व केले, अन्ननास और पपीता जैसे फल भारी मात्रा में उगाए जाते हैं। यहां का अन्ननास तो बेहद स्वादिष्ट व रसीला होता है। प्रकृति से प्रेम करने वालों के लिए नदी की घाटियां मुख्य और आदर्श आकर्षण हैं। नदी वोखा से जुनहेबोटो जिले में प्रवेश करती है और आगे जाकर यह असम घाटी की धनसिरी नदी में मिल जाती है।

वोखा नगालैंड के दक्षिणी हिस्से में जिला मुख्यालय और एक शहर है। यहां नगालैंड के सबसे बड़े जनजाति समूह लोथाओं का निवास है। अपने इतिहास के ज्यादातर काल में देखें तो, यह जगह नगालैंड के अधिकतर अन्य भागों की तरह बाहरी दुनिया से अलग बनी रही है। ऐसा केवल वर्ष 1876 में ही हुआ था जब ब्रिटिश यहां आए और इसे असम के तहत नगा हिल्स जिले का मुख्यालय बनाया। वोखा कई पहाड़ियों और मेड़ों से घिरा हुआ है, जो इसे पर्यटन के लिए सुंदर और लोकप्रिय स्थान बनाता है। यह अपने उत्तर की ओर मोकोकचुंग जिले से घिरा हुआ है और पूर्व की ओर जुन्हेबबोटो और पश्चिम में असम से घिरा हुआ है। लोथा आदिवासी वोखा आने वाले पर्यटकों का बेहद खुले दिल से स्वागत करते हैं। इस जगह के मुख्य त्यौहार तोखू, पिखुचक और ईमोंग हैं, जिनपर यदि आप वहां जाएंगे तो स्थानीय नृत्य और संगीत के सर्वोत्तम आयोजन देख सकते हैं। यह शहर अपने शॉल के लिए प्रसिद्ध है जो एक विशेष तकनीक द्वारा हाथ से बनाए जाते हैं। यह तकनीक कई पीढ़ियों से चली आ रही है। वोखा में तीयी पहाड़, तोत्सु चोटी, और दोयांग नदी समेत कई पर्यटन आकर्षण हैं।

अन्य पक्षी विहार

वोखा शहर कोहिमा व दीमापुर के बाद नगालैंड का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। राजधानी कोहिमा यहां से 80 किलोमीटर दूर है और दीमापुर लगभग 130 किलोमीटर। दीमापुर में हवाई अड्डा है जहां के लिए कोलकाता व गुवाहाटी के रास्ते नियमित उड़ानें हैं। दीमापुर में रेलवे स्टेशन भी है। वोखा से थोड़ी ही दूर नगालैंड में ही जुन्हेबोटो में घोसु बर्ड सैंक्चुअरी भी है। यह उन पक्षी विहारों में से है जिनके बारे में बहुत कम लोगों ने सुना होगा। जाहिर है, यहां जाने वाले सैलानियों की संख्या बहुत कम होगी। थोड़ी दूर लेकिन पूर्वोत्तर के ही त्रिपुरा में रोवा में एक बर्ड व वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी है। पूर्वोत्तर के राज्यों में कई अन्य वाइल्डलाइफ रिजर्व और नेशनल पार्क हैं। इनमें से कई नेशनल पार्क ऐसे हैं जिनमें हर साल सर्दियों में बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों का आना होता है। उन्हें भी देखा जा सकता है।

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