मध्य प्रदेश जंगलों से भरा-पूरा है। एक से बढ़कर एक टाइगर रिजर्व हैं यहां। लेकिन इनके बीच भीड़ से दूर कई खामोश सुकून भरे जंगल भी हैं
बारिश के दिन हो या गुजरते मानसून वाले दिन, जंगल प्रेमियों के लिए अक्सर ये दिन लुभावने लगते हैं। अक्टूबर से खुलने वाले राष्ट्रीय उद्यानों और टाइगर रिजर्व की ओर बेतहाशा भीड़ बढ़ जाती है। ऐसे में कुछ ऐसे पड़ाव होते हैं, जो थोड़े सकून से घूमने वालों के लिए पहली पसंद बन जाते हैं। ऐसा ही एक पड़ाव है मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले का नरसिंहगढ़ अभयारण्य। यूं तो यहां गर्मी के दिनों को छोड़कर कभी भी जाया जा सकता है, लेकिन मानसून की उतरन के बाद यहां की सैर वाकई शानदार होती है। तभी तो इस क्षेत्र को मालवा का कश्मीर कहा जाता है। अभयारण्य के बीच चिड़ीखो तालाब यहां की कुदरती खूबसूरती का नायाब तोहफा है।
भोपाल के आसपास के जंगलों की हर बार की सैर रोमांचकारी होती है। बाहर से आने वाले सैलानियों के लिए भोपाल के साथ-साथ आसपास के विश्वविख्यात स्थानों – भीमबैठका और सांची स्तूप के अलावा आसपास के किसी न किसी अभयारण्य को अपने पैकेज में जरूर शामिल रखना चाहिए। इसमें भोपाल से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नरसिंहगढ़ अभयारण्य को अपनी भोपाल यात्रा के साथ जोड़ लिया जाए, तो क्या कहना! यदि आप अभयारण्य में ट्रैकिंग करना चाहे, तो जंगल के बीच से पैदल गुजरते हुए एक खूबसूरत अहसास आपके दिल-ओ-दिमाग पर छा जाएगा।
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भोपाल से एयरपोर्ट रोड होते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 12 पर 70 किलोमीटर की यात्रा के बाद आप पहुंचते हैं नरसिंहगढ़ अभयारण्य। नरसिंहगढ़ की पहाडिय़ों पर बिछी हरियाली चादर को नरसिंहगढ़ अभयारण्य का दर्जा दिया गया है। भोपाल से गुना-ग्वालियर जाने वाली सड़क पर दायीं ओर इसका प्रवेश द्वार दिखाई पड़ता है। यह पूर्व में नरसिंहगढ़ रियासत की शिकारगाह हुआ करती थी। अभयारण्य की स्थापना 1978 में की गई। इसका क्षेत्रफल लगभग 57 वर्ग किलोमीटर है। यहां के घने जंगलों में तेंदुआ, सांभर, नीलगाय, चीतल, जंगली सुअर, मोर, लंगूर बंदर सहित कई जंगली जानवर हैं। इन सबके अलावा यह अभयारण्य 1935 में 22 हेक्टेयर इलाके में बने चिड़िया के आकार के तालाब के कारण प्रसिद्ध है, जिसे चिड़ीखो के नाम से सभी पुकारते हैं। तालाब और घने जंगल ने जंगली जानवरों को ही नहीं बल्कि स्थानीय और प्रवासी चिडिय़ों को भी आश्रय दिया है और मध्यप्रदेश के राज्य पक्षी दूधराज सहित यहां 170 प्रजाति के पक्षी देखने को मिलते हैं। अभ्यारण्य के भीतर सैकड़ों की संख्या में प्राकृतिक शैलाश्रय हैं, जिनमें सफेद और लाल रंग के भित्ति चित्र बने हैं। अभयारण्य के बीच में जैन मूर्तियां भी हैं।
अभयारण्य के अंदर घुसते ही चारों ओर की हरियाली मंत्रमुग्ध कर देती है। पर्यटकों के रास्ते जानवर या पक्षी तो बहुत ही कम सामने आते हैं, लेकिन पेड़-पौधों को भी अक्सर नए-नए आकार में देखना मजेदार अनुभव होता है। शायद हम सैलानी कुदरत से इतनी छेड़छाड़ करते हैं कि जानवरों की बात तो दूर है, पेड़-पौधे भी चल पाते, तो शायद वे भी रास्तों से दूर भाग जाते। पर्यटक और प्रकृति प्रेमी के बीच यही तो अंतर होता है। प्रकृति प्रेमियों से जंगल और उसके बाशिंदों को डर नहीं लगता। अक्सर वे दोस्ती के लिए आतुर दिखते हैं। अभयारण्य के भीतर जाने पर पहला पड़ाव चिड़ीखो ही होता है। वहां चारों ओर की हरियाली में सागर सरीखा तालाब धूप में चमकदार हो जाता है। कई बार ऐसा लगता है मानो सूरज की चमक में तालाब नहीं, बल्कि तालाब से छिटकती रोशनी में सूरज चमक रहा है। जंगल के बीच तालाब को निहारते हुए कुछ पल बिताने पर अक्सर ही आसपास के शांत वातावरण में हिरण, चीतल, विभिन्न प्रकार के पक्षी और अक्सर ही मोर दिखाई पड़ते हैं।
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यहां से आगे निकलकर अभयारण्य में बने नेचर ट्रैक पर ट्रैकिंग का मजा लेना कैसे छोड़ा जा सकता है। तालाब से आगे एक पुरातत्विक अवशेष को देखने के बाद बरसाती नालों से गुजरते हैं जिनमें अक्सर हल्का पानी भरा ही रहता है। आगे बढ़कर फिर तालाब के पास आकर थोड़ा ऊपर चढ़कर एक पहाड़ी पर पहुंचते हैं। पहाड़ी के ऊपर उसी किनारे एक वॉच टावर बना हुआ है, जिस पर चढ़ कर तालाब को देखने से पता चलता है कि उसका आकार चिड़िया की तरह है। तालाब कभी एक गौरैया की, कभी मैना की, तो कभी कोयल की आकार ले लेता है। तालाब सबके लिए अपनी-अपनी चिडिय़ा बन जाता है। चिड़ियों का बिंब सरीखा है चिड़ीखो।
वॉच टावर से ही तालाब की ओर पेड़ों को देखने से ऐसा लगता मानो पेड़ों ने अपनी टहनियों से एक जाल बुन दिया हो। ऐसे में वॉच टावर एक मछुआरा सा दिखने लगता है, और लगता है कि बस वो तालाब में जाल फेंकने ही वाला है। अलग-अलग तरीके का ख्याल, अलग-अलग रोमांचकारी अनुभव देता है।
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पहाड़ के ऊपर ही अभयारण्य के बीचों-बीच बने ट्रैकिंग रूट पर कभी दार्इं ओर तो कभी बाईं ओर, कभी नीचे कुछ ढूंढ़ते हुए और कुछ रोमांचित होते हुए आगे बढ़ते जाना और फिर कभी रुक कर कुछ झाड़ियों या पेड़ों की डालियों के साथ-साथ इधर-उधर दीमक के बनाए पहाड़ों को मुआयना करने का मजा लेते हुए प्रकृति से रिश्ता जोड़ना यहां बहुत ही सहज है। कुछ जाने-पहचाने पक्षी और कीट-पतंगे शाही अंदाज में दिखते हैं। आखिर यह उनका इलाका जो ठहरा!
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ट्रैक पर आधे रास्ते के बाद हम पहुंच जाते हैं शैल चित्रों वाली जगह पर। घने जंगलों के बीच प्राचीन मूर्तियों के अवशेषों और शैल चित्रों से पता चलता है कि यहां पुराने समय से ही लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। हालांकि ये मूर्तियां ठीक-ठीक किस समय की हैं, इसकी कोई जानकारी यहां नहीं मिलती। ऐसा कोई विवरण यहां नहीं है जो लोगों को इस बारे में कुछ बता सके। यहां कई जैन मूर्तियों के अवशेष पड़े हुए हैं। दुखद बात यह है कि मूर्तियों के ऊपर ही युगलों द्वारा कुरेद कर लिखे गए नाम सौंदर्य पर दाग की तरह दिखते हैं। कुछ ने तो शैल चित्रों के बगल में अपनी कलाकारी दिखा दी है। इसके संरक्षण की जिम्मेदारी जनमानस को समझनी होगी।
दोपहर के बाद सूरज के पश्चिम की ओर उतरते समय अभयारण्य से बाहर आ जाना ठीक रहेगा। यह कोई जरूरी नहीं और न ही किसी सुरक्षा के लिहाज से कहा जा रहा है। बल्कि नरसिंहगढ़ के पास कुछ और भी प्राचीन धरोहर हैं,जिन्हें देखने का मोह शायद ही छोड़ा जा सके। लेकिन उन्हें छोडऩा ही चाहे, तो फिर कुछ देर और अभयारण्य में बिता सकते हैं – तालाब किनारे बैठकर या फिर आसपास टहलते हुए।
अभयारण्य के आसपास के पर्यटक स्थलों में नरसिंहगढ़ किला, परमार वंश के काल के सोलाह खम्ब, हाजी वली का मकबरा, श्यामजी सांका मंदिर प्रमुख हैं। यहां शिव के भी दो मंदिर हैं- बड़ा महादेव और छोटा महादेव। शिवरात्रि के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। बारिश के दिनों में और उसके तुरंत बाद, यहां आसपास के पहाड़ी इलाकों में कई खूबसूरत झरने निकल आते हैं।
अभयारण्य से 10 किलोमीटर आगे नरसिंहगढ़ शहर स्थित ऐतिहासिक किला है। नरसिंहगढ़ का किला राजपूताना स्थापत्य कला और नक्काशी का बेजोड़ नमूना है। यह शहर तीन सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। किले की स्थापना दीवान परसराम द्वारा 1681 में की गई थी। किला शहर से 350 फीट की ऊंचाई पर है। शहर में सुंदर झील है जिसमें किले की प्रतिबिंब दिखती है। इसमें 304 कमरे, चार हॉल, 12 चौक, 64 बरामदें हैं। यह किला मध्यप्रदेश राज्य के मांडू और ग्वालियर किले के बाद तीसरा सबसे बड़ा किला है। इसे इस तरह से बनाया गया है कि इसका प्रतिबिंब सीधे परसराम तालाब में दिखाई देता है।
इतिहास में भी खास जगह
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में तात्या टोपे, महारानी लक्ष्मीबाई, कुँवर चैनसिंह जैसे कई क्रांतिवीरों की निशानियाँ भी यहाँ हैं। खास तौर पर चैनसिंह को यहां काफी याद किया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ न झुकते हुए खुद को बलिदान कर दिया और यह घटना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी काफी पहले की बताई जाती है। व्यापार के नाम पर आए धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। अंग्रेजों ने आनंदराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेंट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। नतीजतन लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को लड़ाई में चैन सिंह को अपने साथियों के साथ शहादत हासिल हुई।
नरसिंहगढ़ के पास ही पार्वती नदी के पास स्थित सांका एक छोटा सा गांव है। यहां प्रसिद्ध श्यामजी सांका मंदिर है। यह मूलत: एक छतरी है, जिसे 16-17वीं शताब्दी में राजा संग्राम सिंह (श्याम सिंह) की स्मृति में उनकी पत्नी भाग्यवती ने बनवाया था। मंदिर का स्थापत्य मालवी और राजस्थानी प्रभाव को दर्शाता है। दीवार पर सुंदर चित्र है। नक्काशीदार पत्थर और ईंटों को मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया है।
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नरसिंहगढ़ के पास ही सारंगपुर जिले में भी देखने लायक कई स्थान हैं जिनमें खास तौर पर बाजबहादुर व रूपमती के जीवन से जुड़े स्थान देखने लायक हैं। इसके अलावा कपिलेश्वर बांध भी यहां से नजदीक ही है।
नरसिंहगढ़ में वन विभाग के विश्राम गृह में रुकने की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन सुहूलियतों के लिहाज से देखा जाए तो भोपाल में रुकना और यहां से टैक्सी से नरसिंहगढ़ की यात्रा ज्यादा बेहतर है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सांस्कृतिक यात्रा के साथ नरसिंहगढ़ अभयारण्य की यात्रा वाकई यादगार होगी।
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