लेह के रास्ते में रोमांच-प्रेमियों का ख्याल रखते हैं कई ढाबेवाले
इलाका अनजाना हो और रास्ता मुश्किल और ऐसे में न मौसम साथ दे और न वक्त तो भला क्या कीजिएगा! किसी बीहड़ वीराने में अचानक कोई छत मिल जाए जहां आपका रात काटने के लिए नरम बिस्तर मिल जाए और साथ में ठंड भगाने के लिए गरमागरम चाय व खाना भी, तो भला क्या बात है। कोविड लॉकडाउन खुलने के दौर में सफर अभी शुर-शुरू ही हुए हैं। लेह-लद्दाख जाने के लिए तो यही सबसे उपयुक्त मौसम है। एक डायरी यहां के रोमांचक सफर की…
जब मैं कीलोंग से अपनी बाइक पर रवाना हुआ तो दोपहर के लगभग साढ़े ग्यारह बज चुके थे। रवाना होने से पहले मैंने सवेरे होटल के मालिक से लंबी बातचीत की थी। वो खासे जानकार थे। उसी रात लेह पहुंचने का मेरा कोई इरादा भी नहीं था। मुझे यह भी मालूम था कि इतनी देर से रवाना होने के बाद शाम तक लेह पहुंचना मेरे लिए मुमकिन भी नहीं था। अंधेरे में उस रास्ते पर बाइक चलाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। यानी कुल मिलाकर यह तय था कि मुझे रात बीच में ही कहीं गुजारनी थी। लिहाजा मेरे पास दो विकल्प थे- या तो सरछू में रुकने का या फिर पांग में। सरछू से पांग की दूरी तकरीबन 78 किलोमीटर है। दूरी के साथ-साथ पांग की ऊंचाई भी ज्यादा है। लेकिन उक्त होटल मालिक का कहना था कि मैं पांग में रुकने की कोशिश करूं। उनके लिहाज से उसके दो फायदे थे- एक तो मैं लेह के और नजदीक पहुंच जाऊंगा और दूसरा, ऊंचाई पर होने के बावजूद पांग पहाड़ी से घिरा है और वहां हवा कम चलती है। सरछू में हवा ज्यादा चलने के कारण ठंड ज्यादा लगती है। मन में यही तय करके निकला कि अगर समय से चलता रहा तो पांग निकल जाऊंगा और अगर रास्ते में देर लगी तो सरछू रुक जाऊंगा। वैसे भी अकेले चल रहा था, इसलिए अपनी मर्जी का मालिक था। लेकिन तब यह अहसास नहीं हुआ कि यहां किसी और की मर्जी भी चलती है- कुदरत की।
मैं अपनी गति से तसल्ली से चल रहा था। दीपक ताल व सूरज ताल देखता हुआ बारालाचा-ला पार करने के बाद जब मैं किलिंग सराय की तरफ बढ़ रहा था तो भरतपुर से कुछ किलोमीटर आगे अचानक सामने से पैदल आते एक स्थानीय व्यक्ति ने हाथ से इशारा किया। मैं रुका तो उसने बताया कि आगे लैंडस्लाइड हो चुकी है और रास्ता बंद है। मेरे लिए यह एक झटका देने वाली खबर थी। उसने यह इशारा भी कर दिया कि रास्ता खुलने में कम से कम छह-साथ घंटे लगेंगे और हो सकता है कि रात में न खुल पाए। उस समय तीन बजे थे। छह घंटे का मतलब था रात के नौ बजना। पांग तो दूर की बात थी, मैं उस समय सरछू से भी तकरीबन दो घंटे दूर था। रात आठ-नौ बजे भी रास्ता खुलता तो सरछू पहुंच पाना मेरे लिए मुश्किल था। यानी रात वहीं गुजारनी थी, यह तय लग रहा था। उस आदमी ने यह भी कह दिया था कि अगर मुझे रुकना हो तो मैं पीछे आ जाऊं और कुछ पहले जो ढाबे बने थे, वहां आ जाऊं। उसने यह भी बता दिया कि इधर से तीसरा ढाबा उसका है।
मन नहीं माना इसलिए मैं आगे बढ़ता गया। इस उम्मीद में कि रास्ता कहीं जल्द खुल जाए या मेरे बाइक के निकलने भर की जगह बन जाए। कुछ आधे किलोमीटर बाद ही एक विकट मोड़ के आगे कई वाहन कतार में खड़े नजर आ गए- कारें व ट्रक। मैं बगल से होता हुआ अपनी बाइक लेकर आगे पहुंचा तो हकीकत सामने आ गई। मानो पूरा पहाड़ से सड़क पर सरक आया था। पहले से वहां सड़क को साफ करने के काम में लगा एक बुलडोजर तो उसके मलबे के नीचे ही दब गया था। दरअसल, उस समय तो वहां मलबा हटाने का काम भी नहीं चल रहा था क्योंकि वहां का बुलडोजर तो मलबे में दब गया था और बाकी मदद के तीन किलोमीटर आगे किलिंग सराय से आने का इंतजार किया जा रहा था।
एक तरफ खड़ा भुरभुरा पहाड़, दूसरी तरफ गहरी खाई जिसमें नीचे नदी बह रही थी। मुझे लग गया कि उस आदमी के अनुमान में दम था। मैं काफी देर वहीं रहा, तस्वीरें उतारता रहा, लोगों से बातें करता रहा। कुछ देर बाद कुछ बाइक सवार मिले जो किलिंग सराय की तरफ से पहाड़ पर अपना दोपहिया चढ़ाकर इधर नीचे उतरे थे। एकबारगी मुझे भी लगा कि मैं भी अपनी बाइक उसी रास्ते आगे ले जाऊं जिधर से वे आ रहे थे, फिर मुझे उसमें नासमझी लगी क्योंकि मेरी रॉयल एनफील्ड थंडरबर्ड बाइक उन लोगों की बाइक से वजनी थी और फिर मैं अकेला था। कहीं धक्का देने या किसी पत्थर मैं अटक जाने पर निकालने की जरूरत पड़ती तो मेरी मदद को कोई आने वाला न था। जल्दबाजी में ज्यादा मुश्किल में फंस जाने का अंदेशा था। मैं घंटे भर बाद पीछे लौट आया उन्हीं ढाबों में जिनके बारे में उस आदमी ने बताया था। यह जगह लैंडस्लाइड वाली जगह से एक किलोमीटर पहले थी। मोटे तौर पर यह भरतपुर का ही इलाका था लेकिन यह उससे थोड़ा आगे था जो पहले पारंपरिक रूप से भरतपुर में राहगीरों का बसेरा था। पता चला कि स्थानीय लोगों और नीचे मैदान से आने वाले लोगों में कुछ तनातनी की वजह से ये चार टेंट आगे चले आए थे। मैं उन्हीं में से तीसरे टेंट में, जो मुझे मिले उस आदमी का था, पहुंच गया।
दिल्ली से चलने के बाद से पांच रातों में यह दूसरी बार था जब मुझे तय जगह से पहले ही अचानक रुकने का ठिकाना ढूंढने की नौबत आ गई थी। इससे पहले मंडी से चलने के बाद मुझे रात में छतड़ू में रुकना पड़ा था जबकि मेरा इरादा उस रात चंद्रताल पहुंचने का था। रोहतांग-स्पीति जाने के लिए अब जरूरी हो गए परमिट को लेने में चूक जाने की वजह से मुझे रोहतांग के रास्ते में गुलाबा से वापस मनाली जाकर परमिट लेना पड़ा था। इस सारी कवायद में मेरे चार घंटे बरबाद हो गए थे, लिहाजा मेरे लिए चंद्रताल पहुंचने की संभावना भी खत्म हो गई और मेरा सारा कार्यक्रम तीसरे ही दिन एक दिन देरी पर खिसक गया था। हालांकि छतड़ू से बातल 31 किलोमीटर और चंद्रताल 45 किलोमीटर की ही दूरी पर है लेकिन मैं जितना थक चुका था, उसमें आगे जाने की हिम्मत नहीं हुई। वह 30-40 किलोमीटर का रास्ता भी कोई आसान नहीं बल्कि हड्डी-पसली एक करने वाला था।
छतड़ू में हालांकि आलू-मटर की काफी खेती होती है लेकिन वह मुख्य रास्ते से काफी दूर है। मुख्य रास्ते पर छतड़ू में केवल तीन ढाबे हैं जहां घुमक्कड़ रुकते हैं।
छतड़ू में मैं जिस ढाबे में रुका वह चंद्रा नदी पर बना पुल पार करते ही सबसे पहले आता है। ढाब में खाना बनाने की जगह के साथ ही कई मेजें लगी थीं जहां बैठकर खाना खाया जा सकता था। बाहर भी खुला इलाका था और कई मेज-कुर्सी लगी थी। शाम को जब बाहर अंधेरा और कड़ाके की ठंड हो जाती है तो अंदर रसोई के पास ही बैठने से गर्मी मिलती है। दिन में धूप निकली हो तो बाहर भी बैठा जा सकता है। ढाबे के बगल में ही एक पक्का बना हुआ गैराज सरीखा था जिसमें कई सारे बिस्तर लगे हुए थे। यह राहगीरों के रात में सोने की जगह थी। हालांकि उसमें 12-14 लोगों के सोने का इंतजाम है लेकिन उस रात में अकेला था क्योंकि छतड़ू में कोई और राहगीर रुका हुआ नहीं था। रसोई के पास खाना खाकर मैं गैराज में एक अच्छा से बिस्तर चुनकर सो गया था। गैराज का शटर गिरा दिया तो ठंड व हवा आने के रास्ते बंद हो गए। उस वीरान जगह में सौ रुपये का यह बिस्तर किसी नियामत से कम न था। खाना भी भरपेट व स्वादिष्ट। कोई अतिश्योक्ति नहीं अगर इस तरह के ढाबों को इस रास्ते की जीवनरेखा कहा जाए। बाइकर्स, ट्रक वाले, बसों के मुसाफिरों, अन्य रोमांचप्रेमी, ट्रेकर्स व स्थानीय लोगों के लिए इतने दुर्गम इलाके में रुकने का कोई और बंदोबस्त संभव ही नहीं। अब हर कोई तो अपने साथ कैंपिंग का सामान लेकर नहीं चलता।
जीवनरेखा इसलिए भी कि ये ढाबे केवल रैनबसेरा ही नहीं देते बल्कि ताजा-गरम खाना, नाश्ता, चाय-दूध, गर्मी हो तो ठंडे पेय भी सब उपलब्ध कराते हैं। मजे की बात यह है कि जब ये ढाबे आपके सामने आते हैं तो आपके थके शरीर को उनकी इतनी तलब लग चुकी होती है कि आप किसी कीमत की परवाह किए बिना बस चाय व मैगी खाने में जुट जाते हैं। फिर हकीकत यह देखिए कि इतनी ऊंचाई पर और इतने दुर्गम इलाके में वह कीमत भी कोई ज्यादा नहीं होती। आप-हम तो अक्सर इसी बात पर हैरान होते रहते हैं कि आखिर क्यों इस व्यक्ति ने इतनी कठिन जगह पर यह ढाबा खोल रखा है, उसकी क्या कमाई होती होगी! हैरानी तो तब और भी ज्यादा होती है जब यह पता चलता है कि इनमें से कई ढाबे तो कई दशकों से चल रहे हैं। छतड़ू में जिस ढाबे में मैं रुका था, वह तीन दशक से भी ज्यादा समय से वहां है। ऐसा ही एक ढाबा है बातल में चंद्रा ढाबा।
इस ढाबे के बारे में मैंने काफी पढ़ रखा था। छतड़ू से चंद्रताल जाते वक्त मैं काफी देर बातल में चंद्रा ढाबा में रुका। चंद्रा ढाबा के बारे में इतना जान लेना काफी है कि अब यह केवल ढाबा नहीं रहा बल्कि स्पीति जाने वाले रोमांचप्रेमियों के अनगिनत किस्से-कहानियों, दंतकथाओं में जगह पाकर इतिहास का हिस्सा बन गया है। चंद्रा ढाबा बातल की पहचान है। अब तो बातल में तीन-चार ढाबे और बन गए हैं, पीडब्लूडी का रेस्ट हाउस भी है, बीआरओ के टेंट हैं, वन विभाग के फाइबर हट हैं, बड़ी सी कैंपिंग साइट भी है। लेकिन कुछ समय पहले यहां केवल चंद्रा ढाबा ही था।
चंद्रा ढाबा चलाने वाले हमेशा हंसते-मुस्कुराते, मजाक करते दोर्जे बोध और उनकी पत्नी हिशे चोमो बातल में पिछले 44 साल से यहां हैं अपने चंद्रा ढाबा के साथ। कल्पना कीजिए कि 44 साल पहले यहां कितने लोग आते होंगे, जब सड़कों के हाल और बेकार रहे होंगे, वाहन भी कम होंगे और घुमक्कड़ भी। मैंने उनसे पूछा कि दूर अपने गांव से 44 साल पहले आप यहां क्या सोचकर आए, तो उन्होंने सहजता से जवाब दिया कि जब छोटे थे तब भी इसी रास्ते पर चलते रहते थे। जाहिर है कि मौजूदा दौर के स्पीति-चंद्रताल या कुंजुम टॉप जाने वाले ज्यादातर रोमांचप्रेमी बातल जरूर गए होंगे और चंद्रा ढाबा में चाय जरूर पी होगी। यही कारण है कि दुनियाभर से यहां आने वाले घुमक्कड़ों में उन्हें चाचा-चाची कहकर बुलाया जाता है। यह लोगों का प्यार तो है ही, साथ ही उस जीवट का सम्मान भी है जो ये दोनों इस दुष्कर जगह पर दिखाते रहे हैं।
दरअसल बातल बहुत महत्वपूर्ण जगह है। यह चंद्रा नदी के किनारे है। यहां से नदी पर बना पुल पार करते ही खड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती है। कुछ किलोमीटर बाद एक रास्ता कुंजुम दर्रे की तरफ ऊपर चढ़ जाता है। यही रास्ता आगे स्पीति घाटी में काजा की तरफ ले जाता है। दूसरा रास्ता नीचे-नीचे चंद्रा नदी के किनारे-किनारे चंद्रताल की तरफ चला जाता है। इस तरह बातल स्पीति से आकर लेह की तरफ जाने वालों का, और लेह से आकर स्पीति जाने वालों का या रोहतांग की तरफ से आकर चंद्रताल या काजा की तरफ जाने वालों- सबका महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह इलाका बड़ा विकट है, आने का रास्ता केवल सड़क के जरिये जो साल में छह महीने बंद कहती है। जिन छह महीनों में यह खुली रहती है, उनमें भी कब किसी दिन मौसम खराब हो जाए, सड़क धंस जाए या बर्फ गिर जाए, भूस्खलन हो जाए- कुछ कहा नहीं जा सकता। यहां न लैंडलाइन फोन है न मोबाइल नेटवर्क की पहुंच।
इतने दुर्गम इलाके में चंद्रा ढाबा जैसी जगहें लोगों के लिए बहुत बड़ी शरणस्थली भी है। दोर्जे व हिशे केवल लोगों को सोने की जगह या चाय-खाना ही नहीं देते बल्कि वे मुसीबत में फंसे लोगों को संकट से बाहर आने में भी मदद देते हैं। पता नहीं कितनी बार उन्होंने चंद्रताल-कुंजुम इलाके में खराब मौसम, बर्फबारी आदि की वजह से फंस गए लोगों को बाहर निकाला होगा। वे यहां सरकारी एजेंसियों के भी तमाम रेस्क्यू ऑपरेशंस का हिस्सा रहे हैं। न जाने कितने किस्से मैं पढ़ चुका हूं जिनमें इस बात का जिक्र है कि लोग कई-कई दिनों तक भयानक बर्फबारी में यहां फंसे रहे हैं और चंद्रा ढाबा ही उनका आसरा रहा है। सबसे बड़ी बात, वे यह सब निस्वार्थ भाव से बस लोगों की मदद के लिए करते रहे हैं। यही कारण है कि उन्हें गोडफ्रे फिलिप्स समेत बहादुरी के कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
दरअसल चंद्रा जैसे ढाबे इन रास्तों के रोमांच को और बढ़ा देते हैं। बातल में चाचा-चाची से मैंने बातें तो बहुत की लेकिन समय कम होने के कारण वहां एक रात गुजार नहीं पाया। वहां से 14 किलोमीटर आगे चंद्रताल में मैं जिस कैंप में रुका वह चाचा-चाची के बेटे का ही था। उसके बाद की अगली रात फिर मुझे अचानक भरतपुर में गुजारनी पड़ी।
खैर, बात जहां से शुरू हुई थी- जब मैं भरतपुर के निकट तीसरे ढाबे में घुसा तब तक वहां ज्यादा लोग नहीं पहुंचे थे। मैंने ठीक रसोई के सामने किनारे वाले बिस्तर पर कब्जा जमा लिया। इस ढाबे में भीतर वाले एक कोने पर रसोई थी। अंदर घुसते ही बाईं तरफ कैश काउंटर और छोटी सी दुकान सरीखी थी। बाकी सारे हिस्से में दोनों तरफ बिस्तर लगे थे। बीच में मेजें लगी थीं जिनपर रखकर खाना खाया जा सकता था। खाने-पीने के अलावा इन सब जगहों पर आपको बैटरी-टॉर्च, मोजे, स्वेटर, मफलर, जैकेट और जरूरत का काफी सारा सामान मिल जाता है। सोने के लिए गद्दे थे और ओढऩे के लिए कंबल। समुद्र तल से चार हजार मीटर की ऊंचाई पर रात जबरदस्त ठंडी होगी, इसको लेकर कोई शुबहा नहीं था। देखते ही देखते पीछे से कई और वाहन इन ढाबों के सामने जमा हो गए। थोड़ी ही देर में चारों ढाबे रात के लिए भर चुके थे जबकि उस समय तो शाम भी ठीक से नहीं हुई थी। यह एक धर्मशाला जैसा आभास था। अगल-बगल देश-विदेश के अलग-अलग कोने से आए घुमक्कड़ सैलानी अचानक एक साथ जमा हो गए थे। अपने-अपने अनुभव साझा करने का दौर था, सब उस हिमालयी वीराने में सुरक्षित रात बिताने को लेकर निश्चिंत थे।
संपर्क भी कायम
लेह या स्पीति जाने के रास्ते में एक बड़ी चिंता संपर्क की भी होती है। शहर इक्का-दुक्का ही हैं। गांव-कस्बे बहुत दूरदराज में। कई बार बीसियों किलोमीटर तक रास्ते में कोई इंसान देखने को नहीं मिलेगा। मोबाइल नेटवर्क यहां तक पहुंचे हैं नहीं। जाहिर है कि ऐसे में बाहर की दुनिया से संपर्क कैसे हो। लेकिन गनीमत यह है कि बीच में कई जगहों पर- जैसे कि स्पीति के रास्ते में छतड़ू व बातल में और लेह के रास्ते में कीलोंग से आगे सरछू व पांग में सैटेलाइट फोन की सुविधा है। ये सैटेलाइट फोन आम तौर पर वहां तैनात सेना से जुड़ी एजेंसियों के पास रहते हैं। आप फोन का शुल्क देकर वहां से कहीं भी फोन कर सकते हैं। और, यह ज्यादा महंगा भी नहीं पड़ता।
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