शहर की भीड़ भाड़ की जिंदगी से जब कभी मन ऊब जाए तो कुछ दिन पहाड़ों के साथ बिताने चाहिए। इससे मन तरोताजा हो जाता है और अपने निजी जिंदगी के काम में दोगुनी ताकत का एहसास होता है। इस बार तो वैसे भी कोरोना महामारी के कारण हम चार महीने घरों में कैद हो गए थे। उसके बाद उत्तराखंड उन कुछ राज्यों में से है जो सैलानियों को आने की इजाजत दे रहा है। तो क्यों न मौके का फायदा उठाया जाए। लिहाजा इस बार हम गंगोत्री और इसके आसपास की सैर को चल रहे हैं।
धार्मिक महत्व के लिहाज से गंगोत्री उत्तराखंड के चार धामों में से एक महत्वपूर्ण धाम है। गंगोत्री समुद्र तल से 3,048 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। बताया जाता है कि 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक सालों में एक गोरखा कमांडर द्वारा गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया गया था। यह मंदिर 3042 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गंगा नदी के मंदिर के लिए गंगोत्री के धार्मिक व पौराणिक महत्व से हम सब लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं।
गंगोत्री से 18 किलोमीटर पैदल चलकर गोमुख ग्लेशियर तक पंहुचा जा सकता है जहां से गंगा नदी का उद्गम होता है। अफसोस की बात है कि बदलते मौसम व जलवायु परिवर्तन के दबाव के कारण हर साल यह ग्लेशियर टूट और सिकुड़ रहा है। मैं यहां कई बार आ चुकी हूं और जब भी आती हूं, हर बार पिछली बार से हाल थोड़े खराब मिलते हैं। आज गंगोत्री में भी पेड़ो को काट-काट कर चार-चार मंजिला होटल बन रहे है। लगता नहीं कि हम कोई सबक ले रहे हैं। गोमुख के रास्ते में कई जगह कटे हुए पेड़ नजर आ रहे थे। कहीं कुछ दुकानें बनी हुई थी तो उन दुकानों के आसपास तमाम जगहों पर प्लास्टिक, बोतलें आदि बिखरे पड़े थे।
गोमुख के रास्ते में पहले पहले भोजवासा पहुंचना होता है। भोजवासा के लिए गंगोत्री से 14 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। यहां से दो किमी आगे कनखू पड़ता है जहां से गंगोत्री नेशनल पार्क शुरू होता है। यहां परमिट चैक करवा कर प्लास्टिक के सामान गिनवाए जाते हैं और धरोहर राशि रखवाई जाती है इस शर्त के साथ कि उतना ही प्लास्टिक का सामान वापस लेकर आना होगा। गोमुख के लिए 3892 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचना होता है। नौ किमी चलने के बाद चीड़वासा पहुंचते हैं। यहां चारों तरफ चीड़ के ही पेड़ हैं। यहां फिर परमिटों की जांच होती है। चीड़वासा तक रास्ता ठीक-ठाक है लेकिन उसके आगे बेहद पथरीला है। जगह-जगह लैंडस्लाइड जोन हैं और मिट्टी के पहाड़ हैं जो जान निकालने के लिए काफी हैं। चीड़वासा लेकर भोजवासा के बीच तक कम से कम 20 लैंडस्लाइड जोन हैं। भोजवासा कुछ नीचे जाकर है लेकिन ऊपर से गोमुख का स्नाउट पूरा दिखाई देता है, जो वहां से तकरीबन साढ़े चार किमी दूर है। गोमुख मटमैला सा नजर आता है। ग्लेशियर पर मिटटी की परते हैं। यहां से भगीरथी 1, 2 और 3 चोटियां भी साफ दिखाई पड़ती हैं। बेहद सुंदर जगह है भोजवासा। यहां गंगापार भोजपत्र के कुछ वृक्ष हैं। पुराने ज़माने में जब कागज बनाने की कला नहीं जन्मी थी तो हमारे ऋषि मुनि भोजबासा के पत्रों पर लिखते थे । गंगोत्री से जो खच्चर सेवा चलती है वह भोजवासा तक ही है इसके आगे उन पर पाबंदी है। गोमुख जाने के लिए इसके आगे का रास्ता पैदल तय करना होता है। ज्यादातर मुसाफिर लालबाबा के आश्रम में ठहरते हैं। गोमुख जाने का रास्ता थोड़ा कठिन है पर रास्ते में जो कुदरती नज़ारे मिलते हैं, उनकी बात ही अलग है।
तपोवन के लिए रास्ता गोमुख से दो किमी पहले ही अलग हो जाता है। इसलिए अगर गोमुख जाना हो तो सीधा जाना होता है। दोनों जगह जाना हो तो गोमुख जाकर फिर दो किमी पीछे आकर तपोवन की तरफ मुड़ना होता है। लेकिन गोमुख का मुख अब गाय के मुख की तरह नहीं रहा जैसा किताबों में पढ़ा होगा। काफी बदल चुका है और लगातार पीछे खिसक रहा है। बड़े-बड़े पत्थरों के बाद ग्लेशियर शुरू हो जाता है जो सियाचिन के बाद 23 किमी लंबा दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर बताया जाता है। वहां से एक रास्ता नंदनवन के लिए कट जाता है। नंदनवन भगीरथी 1, 2 और 3 का बेसकैंप है और गोमुख से 6 किमी दूर है। इसका रास्ता भी बेहद खतरनाक है।
तपोवन जाने के लिए रास्ता बहुत कठिन है। ग्लेशियर के ऊपर से जाना होता। बर्फ पर मिट्टी की परत बन जाने से उसमें फिसलन बढ़ जाती है। इसके बहुत सावधानी की जरूरत होती है। ग्लेशियर पार करते वक्त गोमुख को ऊपर से देखना ऐसा लगता है मानो किसी पहाड़ की चोटी पर बैठ कर नीचे की तरफ झांक रहे हों। गोमुख ग्लेशियर में भागीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी बर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है जिसका मूल संतोपंथ समूह की चोटियों में है। ग्लेशियर लगभग चार किलोमीटर चौड़ा और लगभग 40 मीटर ऊंचा है। इस ग्लेशियर को पार करने में कई क्रेवासेस मिलते हैं। क्रेवास पतली व गहरी खाईयों को कहते हैं। ये इतनी खतरनाक होती हैं कि इनपर बर्फ की परत होती है और जैसे ही पैर रखा व परत टूटी तो पहुंच गए नीचे। कोई निकाल भी नहीं सकता। पत्थरों पर भी पैर सावधानी से रखना पड़ता है क्योंकि ये पत्थर क्रेवासों के पर टिके रहते हैं। जैसे ही हल्का सा बोझ पड़ा और पत्थर समेत नीचे। इसलिए अक्सर इस तरह के ग्लेशियर पार करते वक्त किसी स्थानीय जानकार गाइड का साथ होना जरूरी होता है, जिसे अंदाजा होता है कि कहां रास्ता सुरक्षित है। इससे इस बात का भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि एवरेस्ट सरीखी ऊंची चोटियों पर जाने वालों को लगातार कितने जोखिम का सामना करना पड़ता होगा।
गोमुख ग्लेशियर पार करके तपोवन के लिए बजरी, रेत और पत्थर की 300 मीटर ऊंची खड़ी चढ़ाई है। लगभग 100 मीटर ऊपर चढ़ने के बाद अमरगंगा या आकाश गंगा शुरू हो जाती है। यह गंगा की सहायक नदी हैं जो तपोवन के राजा शिवलिंग पहाड़ से निकलती हैं। तपोवन के लिए इस नदी को पार करके दूसरी तरफ जाना होता है।
तपोवन पहुंचने के बाद चढ़ाई खतम हो जाती है और अमर गंगा के किनारे-किनारे चलना होता है। यहां अमर गंगा शांत है। अमरगंगा और शिवलिंग पर्वत ही तपोवन इलाके में सबसे महत्वपूर्ण हैं। तपोवन की समुद्र तल से ऊंचाई 4350 मीटर है। और शिवलिंग पर्वत को देख कर ऐसा लगता है कि मानो साक्षात शिव सामने खड़े हैं। शिवलिंग के ही नीचे वहां का सबसे विशिष्ट फूल ब्रहम कमल और नील कमल मिलता है। लेकिन वह सिर्फ अगस्त में ही मिलता है। शिवलिंग के पीछे मेरू पर्वत और सामने भगीरथी 1, 2 और 3 चोटियां नजर आती हैं। यहां से एक रास्ता खड़ा पत्थर, कीर्ति ग्लेशियर, वासुकि ताल होते हुए कांलिदी खाल पहुंचता है। इसी रास्ते से बद्रीनाथ जाया जा सकता है, जिसमें 10-12 दिन का वक्त लगता है। लेकिन उसके लिए खासी तैयारी व माउंटेनियरिंग का अभ्यास चाहिए होता है। तपोवन में अगर कैंप किया जाए तो वहां सवेरे इन चोटियों पर सूर्योदय के समय छाने वाला सुनहरा रंग अक्सर मन मोह लेता है।
खास बातें
- गंगोत्री जाने के लिए मई से जून मध्य तक का समय सबसे अच्छा है या फिर बारिशों के तुरंत बाद। बारिश में लैंडस्लाइड होने से कई-कई दिनों तक रास्ते बंद रहते हैं।
- अगर गोमुख या उससे आगे की जाने की सोच रहे हैं तो सेहत का ध्यान जरूर रखें। उच्च रक्तचाप वाले लोग वहां जाने से बचें। दवाइयां वगैरह जरूर रखें।
- गोमुख जाने से पहले हाई एल्टीट्यूड की प्रेक्टिस जरूर कर लें। आराम से गंगोत्री पहुंचे और अगले दिन गोमुख के लिए न निकलें। एक-दो दिन वहां ठहरें और पहले कनखू तक जाएं। इससे हाई एल्टीट्यूड और चलने की थोड़ी प्रेक्टिस होगी साथ ही शरीर भी खुलेगा।
- अच्छा ट्रेकर वही है जो तेज नहीं चला। आराम से चलें और अपना मंजिल तक पहुंचे।
- अच्छा हो साथ में टेंट, स्लिपिंग बैग, हाइकिंग पोल्स, ट्रेकिंग शूज के अलावा गर्म कपड़े भी रखें।
- वहां पर प्रदूषण न फैलाएं। लोग यहां से खाना बनाने के लिए डीजल और मिट्टी का तेल ले जाते हैं इससे वहां का वातावरण खराब होता है। साथ ही ग्लेशियर पर प्रतिकूल असर पड़ता है। हाई एल्टीट्यूड गैस स्टोव आते हैं उन्हें ले जाएं।
- पहाड़ों पर गंदगी न फैलाएं। वहां पर लोग प्लास्टिक का कचरा, बोतले, पॉलिथीन वगैरहा फैंक आते हैं जो वहां के पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं।
आसपास
गंगोत्री से 10 किमी दूर भैरों घाटी है जहां भैरव नाथ का मंदिर घने जंगल से घिरा हुआ है। भैरों मंदिर के लिए लंका से भैरोंघाटी तक सड़क पर यात्रा करने और फिर जाह्नवी नदी को पैदल पार करने के बाद पहुंचा जा सकता है। धाराली से भैरों घाटी 16 किलोमीटर दूर है।
पांडव गुफा, गंगोत्री से डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित है। माना जाता है कि पांडवों ने कैलास जाने के रास्ते में यहीं विश्राम किया था। पांडव गुफा तक पैदल चल कर जाना बहुत ही अच्छा लगता है। मिथकों और किंवदंतियों के अनुसार यह वह स्थान था जहां भगवान शिव ने भी तपस्या की थी। भगीरथ शिला उस पवित्र चट्टान को माना जाता है जहां राजा भगीरथ ने भगवान शिव से प्रार्थना की थी। भैरों घाटी जाह्नवी गंगा व भागीरथी के संगम पर स्थित है। 1985 से पहले तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी से हिमालय की बफीली चोटियों का मनोरम नजारा देखने को मिलता है।
भटवारी से 43 किलोमीटर और गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर हर्षिल है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। यहाँ से कई चोटिया नजर आती हैं। अपने प्राकृतिक सौंदर्य और मीठे सेबों के लिए यह जगह मशहूर है।
गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर केदारताल है। यहां एक कठिन ट्रेक के जरिये ही पहुंचा जा सकता है। समुद्र तल से 15,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित केदारताल थलेसागर जोगिन, भृगुपंथ और कुछ अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह बेस कैंप है। जून से अक्टूबर के बीच आने का अच्छा समय है।
कैसे पहुंचें
वायुमार्गः देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है। गंगोत्री से सड़क के रास्ते इसकी दूरी 226 किमी है।
सड़क मार्गः ऋषिकेश से बस, कार या टैक्सी द्वारा गंगोत्री पहुंचा जा सकता है। यह रास्ता 259 किमी है। उत्तरकाशी से गंगोत्री मंदिर का समय सड़क पर लगभग 4 घंटे है।
रेल मार्गः गंगोत्री पहुंचने के लिए हरिद्वार, ऋषिकेश व देहरादून सबसे निकट के रेलवे स्टेशन हैं।
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