Wednesday, December 25
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बायलाकूपे है दक्षिण का मैकलोडगंज

जैसे ही मैं दक्षिण के मैकलोडगंज का शब्दचित्र बांधने लगी हूं, मेरी आंखों के आगे वही वैभवशाली भवन आकार लेने लगा है जिसे देखकर मेरे मुंह से एक ही शब्द निकला था.. वाह! और इसके साथ ही कानों में गूंजने लगी हैं मंत्रोच्चार की ध्वनियां.. जिन्हें सुनते ही मेरा सारा तनाव बह निकला और मुझे लगा कि मैं ध्यान के सागर में गोते लगा रही हूं। मैं एक ऐसी बस्ती की बात कर रही हूं जिसे भारत में तिब्बती विस्थापितों का दूसरा सबसे बड़ा ठिकाना कहा जा सकता है

बायलाकूपे है तो कर्नाटक के मैसूर जिले में, लेकिन मैसूर से यहां तक पहुंचने में करीब दो घंटे का वक्त लग जाता है। बहुत कम लोग होंगे जो मैसूर जाने के दौरान बायलाकूपे आते होंगे। अक्सर लोग जब कूर्ग घूमने जाते हैं, तब बायलाकूपे का रुख करते हैं। जब आप कूर्ग से मैसूर जाते हैं, तो कूर्ग के कुशलनगर से बाहर निकलते ही दाईं तरफ का मोड़ आपको पांच किलोमीटर के सफर के बाद बायलाकूपे तक ले जाता है। हम भी उन लोगों में से थे जो कूर्ग की ख़ूबसूरती को दिलो-जहान में बसाने के बाद बायलाकूपे जाने की इच्छा को दबा नहीं पाए। मैं यहां बायलाकूपे की चर्चा शुरू करूं तो शायद आप मेरी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देंगे… लेकिन अगर कहूं कि मैं दक्षिण के मैकलोडगंज के बारे में कुछ कहना चाहती हूं तो आप यकीनन मेरी बात गौर से सुनने लगेंगे। 

बायलाकूपे में सबसे भव्य बना है यह मंदिर जिसे गोल्डन टैंपल भी कहते हैं। फोटो: आवारा मुसाफिर/माधवी शर्मा गुलेरी

बायलाकूपे की बस्ती में 

कुशलनगर के बस-स्टॉप से ऑटो लेकर हम चल दिए गोल्डन टैंपल। बायलाकूपे में कई बड़े मठ हैं, जिनमें से एक नामद्रोलिंग है। मूल नामद्रोलिंग मठ तिब्बत में है। यहां बने नामद्रोलिंग को स्थानीय लोग गोल्डन टैंपल कहते हैं। बायलाकूपे की सीमा में प्रवेश करते ही हवा में लहलहाते तिब्बती प्रार्थना-ध्वजों ने हमारा स्वागत किया। गोल्डन टैंपल ले जाने वाली सड़क के दोनों तरफ हरे-भरे खेत हैं। शहर के शोरगुल से दूर, शांत सी यह सड़क दिल को ठंडक पहुंचाने वाली है। गोल्डन टैंपल से पहले तिब्बती बाजार है। बाजार के बीच से गुजरते हुए हम कुछ ही पलों में गोल्डन टैंपल पहुंच गए। 

गोल्डन टैंपल के भीतर बुद्ध, पद्मसंभव और अवलोकितेश्वर की विशाल व खूबसूरत प्रतिमाएं। फोटो: आवारा मुसाफिर/माधवी शर्मा गुलेरी

आस्था का प्रतीक

यह तिब्बती बौद्ध धर्म के निंगमा संप्रदाय का मठ है। निंगमा संप्रदाय की नींव भगवान बुद्ध के अवतार गुरु पद्मसंभव ने रखी थी। गोल्डन टैंपल में प्रवेश करने पर लगा जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों। यहां भगवान बुद्ध, पद्मसंभव और अमितायुस (भगवान बुद्ध का ही दूसरा अवतार, जिनका नाम अवलोकितेश्वर भी है) की भव्य मूर्तियां हैं, जो मेरी तरह आपको भी विस्मित कर देंगी। भगवान बुद्ध की ऐसी ही मूर्ति मैंने हिमाचल प्रदेश के मैकलोडगंज में देखी थी। लेकिन इन तीन ख़ूबसूरत प्रतिमाओं ने जैसे मुझ पर जादू कर दिया। दीवारों पर बने तिब्बती देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र, मन्त्रोच्चार और मोहक ख़ुशबू ने मुझे काफी समय तक मंत्रमुग्ध रखा। इन यादगार पलों को मैंने अपने कैमरे में सहेज लिया। यह बात अच्छी लगी कि यहां मठों के अंदर फोटो खींचने की मनाही नहीं है इसलिए आप बेफिक्र होकर फोटोग्राफी कर सकते हैं। 

गोल्डन टैंपल के पीछे पुस्तकालय है। वहीं मैंने बहुत सारे भिक्षुओं को बातचीत करते हुए देखा। उत्सुकतावश जब एक भिक्षु से बात की तो उसने टूटी-फूटी हिंदी में मुझे तिब्बती समुदाय से जुड़ी कई दिलचस्प बातें बताईं। जिनमें से एक यह थी कि हर तिब्बती परिवार के सबसे बड़े पुत्र का भिक्षु बनना अनिवार्य होता है, चाहे उसकी रजामंदी हो या नहीं। हालांकि अब इस परंपरा का पालन पूरी तरह से नहीं हो रहा। इसके पीछे यही वजह हो सकती है कि नई पीढ़ी पुरानी परंपराओं का निर्वाह करने में ख़ुद को असहज महसूस करने लगी है। 

मठ के आस-पास का इलाका साफ-सुथरा और शांति भरा है। चारों तरफ ख़ूबसूरत पार्क हैं और वातावरण में अजीब सा सुकून है। दिमाग अपने-आप ही ध्यान की मुद्रा में चला जाता है। गोल्डन टैंपल के अलावा दो प्रमुख मठ हैं- सेरा जे और सेरा मे। दोनों मठ गेलुग संप्रदाय के हैं जो तिब्बती बौद्ध धर्म, शिक्षा और संस्कृति के केंद्र के रूप में दुनिया भर में जाने जाते हैं। 

सेरा जे मठ तिब्बत के सेरा विश्वविद्यालय की तर्ज पर बना है। सेरा जे एक बड़ी शैक्षिक संस्था है जिसमें देश-विदेश से छात्र पढऩे आते हैं। बायलाकूपे में इसकी स्थापना गुरु गेशे लोबसांग पाल्देन ने सन् 1970 में की थी। यहां करीब 5,000 भिक्षु बौद्ध धर्म की पढ़ाई कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के अलावा यहां एक बड़ा तिब्बती अस्पताल भी है, जो इसी मठ की देख-रेख में है। 

गोल्डन टैंपल के भीतर प्रार्थना में लीन भिक्षु। फोटो: आवारा मुसाफिर/माधवी शर्मा गुलेरी

इतिहास के पन्नों से 

1959 में तिब्बत पर चीनी हमले के बाद हजारों तिब्बती बेघर हो गए थे। भारत सरकार ने उन्हें बायालाकूपे में 3000 एकड़ भूमि दी, जहां अब 15 हजार से भी ज्यादा शरणार्थी रह रहे हैं। तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास मैकलोडगंज में है। मैकलोडगंज के बाद बायलाकूपे तिब्बती विस्थापितों की सबसे बड़ी बस्ती है। 

यह प्रतिबंधित क्षेत्र है। आप चाहें तो पूरा दिन इत्मीनान से बिता सकते हैं लेकिन विदेशी सैलानियों को रात को बायलाकूपे में ठहरने के लिए पहले गृह मंत्रालय से प्रोटेक्टिड एरिया परमिट लेना जरूरी है। ऐसा मंडगोड व हुंसुर में भी जरूरी है। लेकिन, हैरानी की बात है कि धर्मशाला में मैकलोडगंज में ऐसा नहीं है। बहरहाल यहां हर शाम होने वाली डिबेट में शामिल होना न भूलें। वाद-विवाद के मकसद से बहुत सारे भिक्षु एक नियत स्थान पर इकट्ठा होते हैं। एक भिक्षु नाटकीय ढंग से कोई सवाल पूछता है और जोर से ताली बजाता है। फिर दूसरा भिक्षु तुरंत उठकर उसी लहजे में जवाब देता है। पूरी डिबेट का कोई निष्कर्ष निकले, यह जरूरी नहीं लेकिन इसे देखना काफी दिलचस्प है। 

बायलाकूपे में पुस्तकालय और सेरा जे विश्वविद्यालय का एक हिस्सा। फोटो: आवारा मुसाफिर/माधवी शर्मा गुलेरी

बुद्धं शरणं गच्छामि 

पीले और मैरून रंग के लिबास में हर तरफ घूमते हुए भिक्षुओं को देखकर लगा जैसे मैं भारत में नहीं बल्कि तिब्बत में हूं। निर्वासन में रहने के बावजूद किसी तिब्बती के चेहरे पर शिकन नहीं दिखी। जन्मभूमि से दूर रहने वालों के लिए सबसे बड़ा खतरा अपनी संस्कृति और परंपरा को खो देने का होता है। लेकिन भारत में रह रहे तिब्बती लोगों ने अपने तौर-तरीकों और संस्कृति को काफी हद तक सहेजकर रखा है। प्रार्थना का वक्त हुआ तो एक बार फिर हम गोल्डन टैंपल की तरफ बढ़ गए। टैंपल में रोजाना प्रार्थना सभा होती है। सभा शुरू हुई और हॉल में जमा बौद्ध भिक्षुओं ने तीन बार लेटकर नमन किया। फिर शुरू हुआ मन्त्रोच्चार का सिलसिला। मन्त्र पढ़ते हुए वो बच्चे भी दिखे जो कुछ ही देर पहले पार्क में भाग-दौड़ और मस्ती कर रहे थे। भक्ति में लीन वही बच्चे अब बेहद शांत और सौम्य लग रहे थे। 

जायका तिब्बत का 

अब बात पेट-पूजा की। अगर आपको भी तिब्बती भोजन पसंद है तो बायलाकूपे में इसका मजा जरूर उठाएं। नामद्रोलिंग मठ के बाहर एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, जहां खाने-पीने की कई दुकानें हैं। तिब्बत के कुछ व्यंजन यहां आजमाए जा सकते हैं जैसे ‘टोफू’ (सोयाबीन के दूध को जमाकर बनाया गया आहार) ‘मोमोज’ और ‘थुक-पा’ (नूडल्स और सब्जियों से बना सूप)। पीने के लिए ‘पो-चा’ है। ‘पो-चा’ बटर टी है, जिसे तिब्बती ‘बो-झा’ कहते हैं। इसका स्वाद चाय जैसा नहीं बल्कि कुछ कसैलापन लिए होता है। आम चाय यहां ‘स्वीट टी’ है। हमने वेज मोमोज और थुक-पा का ऑर्डर दिया, जिसे खाकर हम शॉपिंग के इरादे से आगे चल दिए। बाजार में ‘फ्री तिब्बत’ स्लोगन के झोले और ‘चीनी सामान का बहिष्कार करें’ वाले पोस्टर बिकते हुए दिखे। यहां मोल-भाव खूब होता है और आप ठीक दाम पर तिब्बती सामान खरीद सकते हैं.. जैसे कपड़े, सजावटी चीजें, मुखौटे और अगरबत्तियां वगैरह। खास तौर से शेजवान मिर्च जैसे तिब्बती मसाले जो आमतौर पर आपको बाजार में नहीं मिलेंगे। 

बायलाकूपे का बाज़ार। फोटो: आवारा मुसाफिर/माधवी शर्मा गुलेरी

सूरज अस्त होने को था और पंछी अपने घोंसलों की तरफ लौट रहे थे। लेकिन मेरे जेहन में एक सवाल रह-रह कर उठ रहा था कि क्या तिब्बती मूल के लोग कभी अपने वतन लौट पाएंगे? क्या उन्हें उनके मौलिक अधिकार और खोई हुई पहचान वापिस मिलेगी जिसका वो बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.. यह सोचते हुए मैंने भी वापसी की राह पकड़ ली। 

कब जाएं

बायलाकूपे का मौसम सुहावना रहता है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले लोग देश-विदेश से यहां साल भर आते रहते हैं। लेकिन बायालकूपे का असली रंग देखना हो तो ‘लोसर’ (तिब्बती नया साल), ‘सागा दावा’ (बुद्ध जयंती), ‘नेशनल अपराइजिंग डे’ (10 मार्च, तिब्बत पर चीन के हमले का दिन) या धर्मगुरु दलाई लामा के जन्मदिवस जैसा कोई अवसर चुनें।

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