Sunday, November 24
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कान्हा में बाघ से आंख मिचौली

कोर एरिया से एक राउंड लगाकर जिप्सी गेस्ट हाउस आ चुकी थी। पिछले दिन की सफारी और आज की आधी सफारी पूरी हो चुकी हो थी। आज की सफारी अगले ढाई घंटे में खत्म होने वाली थी। कई बार टाइगर रिजर्व की यात्राओं की तरह इस बार भी बाघ दिखाई देने को लेकर नाउम्मीदी ही थी। लेकिन घने जंगल में घूमने का रोमांच हमेशा बरकरार रहता है। तो एक बार हम फिर निकल पड़े कोर एरिया में। घास के मैदानों से होते हुए छोटे तालाब तक पहुंच गए। वहां सफेद कमल के फूल और तालाब पर पड़ती सूरज की रोशनी। काफी आकर्षक माहौल था। कुछ फोटो क्लिक किए और आगे बढ़ गए। हम जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे थे, वह कोर और बफर का बॉर्डर था। पुराने इंद्री गांव का इलाका। अक्सर इस इलाके में बाघ द्वारा अलस्सुबह मवेशियों को मार दिए जाने की घटनाएं सुनाई पड़ती है। तो हमने दाएं-बाएं की जिम्मेदारी बांट ली और आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ती जिप्सी पर बैठे-बैठे जंगल पर नजरें जमाए रहे।

अचानक….

वो रहा!

शी….शी….शी…..

आवाज नहीं……बिलकुल धीरे…..

मुंह बंद…..

अरे! वो आगे निकल गए, उन्हें बुलाओ…(साथ के आधे लोग अगली जिप्सी में थे)

अभी नहीं…..अभी नहीं……

ये तो बिलकुल पास है!

गाड़ी थोड़ा पीछे लो।

अरे! मुझे अच्छे से नहीं दिख रहा। थोड़ा आगे। हां, ये ठीक है।

वाह, कितना सुंदर है।

मेल टाइगर है। यह बहुत कम दिखता है। शाइ नेचर का है।

इधर नहीं देख रहा है। थोड़ा इधर…….

आवाज नहीं।

ओह! वो जाने लगा।

अभी वो आगे रास्ते पर आ जाएगा।

लेकिन…..वो अंदर जा रहा है।

आएगा…..आगे मुड़कर रास्ते पर आएगा।

चंद पलों में टाइगर आंखों से ओझल हो चुका था। वह रास्ते पर नहीं आया। अंदर कहीं दूर या बहुत पास ही झाड़ियों या पत्थरों की ओट में छिपकर बैठ गया था।

बस मिनट, दो मिनट का खेल चला। और कुछ इस तरह हमने कान्हा में बाघ देखा।

कोविड-19 से पहले, जब ऐसे सफारियां हुआ करती थीं…

किस्सा कोविड-19 से पहले के दौर का है। उस साल छुट्टियों में फैमिली ट्रिप पर कान्हा टाइगर रिजर्व जाने का प्लान बना था। कान्हा एक बार पहले भी हो आया था। लेकिन नेचर में एक बार-दो बार क्या, बार-बार जाने के बाद भी, अगली बार जाने की इच्छा हमेशा बनी रहती है। तो जबलपुर में हम सब इकट्ठे हुए और वहां से 29 सितंबर को एक रिजर्व ट्रैवलर में बच्चे-बड़े 12 जन निकल पड़े कान्हा की ओर।

जबलपुर से सुबह 10 बजे ही निकल गए थे। कान्हा में उस दिन शाम की सफारी नहीं थी। अगले दिन 30 सितंबर को बफर जोन में सुबह की सफारी थी और 1 अक्टूबर को कोर एरिया खुलने के पहले दिन कोर एरिया में सुबह की सफारी थी। यानी 29 का पूरा दिन कान्हा से इतर घुमने के लिए था। तो हम सीधे कान्हा जाने के बजाय जबलपुर से नेशनल फॉसिल पार्क, घुधुवा की ओर निकल पड़े। डिंडोरी जिले में पड़ता है घुघुवा। यह जबलपुर से लगभग 85 किलोमीटर दूर है और यहां से कान्हा नेशनल पार्क लगभग 130 किलोमीटर। जबलपुर से सीधे कान्हा की दूरी लगभग 170 किलोमीटर है। इस तरह घुघुवा होकर कान्हा जाने से थोड़ी दूरी बढ़ जाती है, लेकिन फॉसिल पार्क को देखना एक अनूठे अनुभव और अहसास से गुजरना है।

घुघवा के जीवाश्म

थोड़ी बात घुघुवा नेशनल फॉसिल पार्क की। 1970 के दशक में इस इलाके में फॉसिल यानी जीवाश्म की खोज की गई थी। यहां आसपास के इलाकों से पेड़ों, पत्तियों, फूलों, फलों और बीजों के साथ-साथ डायनासोर के अंडों के जीवाश्म मिले हैं, जिन्हें पार्क में सहेज कर रखा गया है। ताड़ के पेड़ों के जीवाश्म बहुत ज्यादा हैं। यूकेलिप्टस के जीवाश्म सबसे पुराने हैं। इसके अलावा केला, रुद्राक्ष, कटहल, जामुन और आंवला के पेड़ों के जीवाश्म मिले हैं।

तो ये जीवाश्म आखिर क्यों खास हैं? सीधे शब्दों में कहें, तो इनको देखकर हम 6.5 करोड़ साल पीछे चले जाते हैं। प्राचीनतम मानव का पृथ्वी पर आना लगभग 2 लाख साल पहले और मानव सभ्यता का विकास लगभग 10 हजार साल पहले ही हुआ था। आप कल्पना कीजिए, ये जीवाश्म आपको किस काल में ले जा रहे हैं। जब ये जीवाश्म बन रहे थे, तब दुनिया की सबसे ऊंची चोटी यानी हिमालय का कोई अस्तित्व नहीं था। महाद्वीप वर्तमान स्थान पर नहीं थे। अरब सागर इस इलाके तक फैला हुआ था। जीवाश्म हमें जीवों और प्रकृति के पुरे इतिहास की बहुमूल्य जानकारी देते हैं। ये अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ी होते हैं। लगभग 27 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इस पार्क के कुछ इलाकों में, जहां फॉसिल खुले में रखे हुए हैं, और फॉसिल म्यूजियम घुमकर अतीत से वर्तमान में लौट सकते हैं।

करोड़ों साल पहले के जीवाश्म

घुघुवा से निकलते समय सबको भूख लगने लगी थी। लेकिन आसपास ढंग का ढाबा नहीं होने से थोड़ा और आगे, थोड़ा और आगे चलकर ढाबा देखते हैं, करते-करते मंडला पहुंचकर ही सभी ने खाना खाया। रास्ते में हर कहीं भंडारे का आयोजन चल रहा था। भंडारे वाले गाड़ी रोक कर प्रसाद बांट रहे थे। इन भंडारों ने पेट में चूहों को कूदने नहीं दिया। मंडला में ही शाम ढल चुकी थी और आगे अभी लगभग 50 किलोमीटर जाना था। खराब रास्ते और दिन ढलने के बाद दो-ढाई घंटे और लगने थे, लगे भी। लगभग 9 बजे हम खटिया गेट से अंदर किसली गांव में स्थित फॉरेस्ट रेस्ट हाउस पहुंच गए।

रात में घने जंगल के बीच स्थित रेस्ट हाउस में रुकने का अनुभव रोमांचकारी होता है। अभी हम वहां पहुंचे ही थे कि सामने गाड़ी की हेडलाइट में सैकड़ों की संख्या में कुलांचे भरते हुए चीतल दिखाई दिए। वहां पैदल घूमना खतरनाक था। अगली सुबह खटिया बफर जोन की सफारी थी, इसलिए हम सोने चले गए। वहां कमरे के आगे रात में चीतल घास चर रहे थे, कुछ झुंड बनाकर बैठे हुए थे। रात में उनकी आंखें दूर से ही चमक रही थी।

सुबह जल्दी उठकर फटाफट तैयार हुए और निकल पड़े खटिया जोन में सफारी के लिए। यह इलाका भले ही बफर जोन में आता हो, लेकिन यह कोर एरिया से कम नहीं है। बाघ दिखने की संभावना जितनी कोर में है, उससे कम यहां भी नहीं है। दो जिप्सियों पर सवार हो, हम सब निकल पड़े। आज के दिन बहुत कम लोग थे। अगले दिन से कोर एरिया की सफारी शुरू होने वाली थी। हमारे अलावा अन्य दो जिप्सियां ही दिखाई दी। खैर, जोन के गेट के अंदर घुसते ही, जैसा कि अक्सर होता है, धीमी आवाज में किस्से कहानियों के साथ-साथ सवाल-जवाब का दौर शुरू हो गया।

परसों ही शाम को इस इलाके में दो बाघ दिखाई दिए थे।

ये देखिए! ये रहा पगमार्क।

शायद पुराना है।

अभी कॉलिंग (आसपास बाघ रहने पर जानवरों को चेतावनी के लिए बंदर आवाज निकालते हैं) नहीं हो रही है।

शायद उधर हो। वहां पानी के पास वाले इलाके में ज्यादा चांस है।

बाघ की चर्चाओं के बीच जंगल हमारे लिए आज बड़ा उदार बना हुआ था। हमने लगभग तीन घंटे की सफारी में चौसिंगा, चीतल, बार्किंग डियर, बारहसिंगा, मोर, जंगली मुर्गी, जंगली सूअर, लंगूर को देखने का लुत्फ उठाया। इस बीच हमने चीतल द्वारा छोड़े गए सिंग, भूत पेड़ और कई प्रजाति की पक्षियों को भी देखा। लौटते वक्त खटिया के छोटे बाजार में चाय के साथ स्वादिष्ट गरमागरम समोसे और चटनी का मजा लिया।

दोपहर में खाने के बाद रेस्ट हाउस के बरामदे ही सभी लोग बैठकर जंगल निहारते हुए हास-परिहास करते रहे। आसपास चीतल और कुछ दूर लंगूर भी मस्ती कर रहे थे। शाम होते ही पास से एक लोमड़ी तेजी से निकल गई। कुछ लोग देख पाए और कुछ नहीं। कुछ देर बाद हम सब गाड़ी से मोचा गांव स्थित बंजर नदी की ओर निकल गए। इस बीच रास्ते के मैदान में दो सियार दिखाई दिए। हमने उन्हें कैमरे में कैद किया। वे भी कुछ फोटो खिंचवाने के अंदाज में ही खड़े थे। शाम के समय बंजर नदी किनारे थोड़ी मस्ती किए और फिर वापस हो लिए। अगले दिन कोर एरिया में जाना था। इस सीजन का यह पहला दिन होगा।

एक तारीख को अलस्सुबह किसली रेंज की ओर निकल पड़े। मानसून के बाद पहली सफारी थी। जंगल उनींदा और अलसाया हुआ सा लग रहा था। जंगल आज फिर से अपने को सैलानियों के लिए तैयार कर रहा था। कुछ दिन में वह अभ्यस्त हो जाएगा। लेकिन आज हमारे होने से जंगल चौंक रहा था। हमारी मौजूदगी उसकी अपनी दुनिया में खलल डाल रही थी। रास्ते में मकड़ी के बड़े-बड़े जाले चेहरे से टकराने को आतुर दिख रहे थे। पेड़ों की डालियां भी अपनी मस्ती में इधर-उधर रास्तों को ढक कर बढ़ गई थीं। जंगल की इस तिलस्मी दुनिया में आज भी हमें चीतल, सांभर, बारहसिंगा, गौर, सूअर, नीलकंठ, जंगली मुर्गी के दीदार हुए। भालूओं के पेड़ चढ़ने के निशान, बाघों के इलाकेदारी के निशान भी हमने देखे। दीमकों द्वारा बनाए गए अनेक टीले राह चलते दिख रहे थे, जो किसी कलाकार की कलाकारी दिख रहे थे। आधी सफारी पूरी होने के बाद रेस्ट हाउस आकर ब्रेकफास्ट किए और उसके बाद निकल पड़े किसली रेंज के इंद्री इलाके में। इंद्री पुराना गांव था, जिसका विस्थापन कर दिया गया। अब यह कोर एरिया का क्षेत्र है। इंद्री पोस्ट के पास तालाब में खिले सफेद कमल का फोटो क्लिक कर रहा था, तब तक हमारी एक जिप्सी थोड़ी आगे निकल गई। और यह दूरी आगे तक बनी रही, जिसकी वजह से आगे जो कुछ हुआ, उसके चश्मदीद वे नहीं बन पाए।

तो हम इस वृत्तांत की शुरुआत में चलते हैं और वहां से बात को आगे बढ़ाते हैं।

…बाघ भले ही रास्ते पर न आकर अंदर चला गया हो, लेकिन उसके फिर दिखाई देने को लेकर हम नाउम्मीद नहीं हुए थे। हमने सोचा, जबतक वह फिर दिखाई दे, तब तक हम परिवार के अन्य सदस्यों को वापस बुला लें और जब दुबारा वह सामने हो, तब वे भी उसे देख पाएं। हम तेजी से आगे गए और उन्हें साथ लेकर तेजी से वापस आए। लेकिन महाराज एक बार जो अंदर गए, वापस नहीं आए। जनता उनके दर्शन की आस लगाए घंटे भर उसी इलाके में डटी रही।

बाघ दिख गया था। जिन्होंने देखा था उन्हें भी और जिन्होंने नहीं देखा था उन्हें भी, आसपास की झाड़ियों में, पेड़ों के पीछे, चट्टानों की ओट में बाघ की मौजूदगी का अहसास हो रहा था। बाघ भले ही वहां न हो, लेकिन हमारे दिलोंदिमाग में वह छाया हुआ था।

कान्हा में जंगली सूअर

एक नजर में कान्हा

कान्हा टाइगर रिजर्व के खटिया, मुक्की और सरही गेट से कोर एरिया के चार जोन किसली, कान्हा, सरही और मुक्की में पर्यटक घूमने जाते हैं। किसली और कान्हा गांव कोर एरिया में पड़ते हैं। इन गांवों के साथ-साथ टाइगर रिजर्व से कुल 27 गांवों को अलग-अलग समय पर विस्थापित किया गया है। कान्हा टाइगर रिजर्व का कोर एरिया 917 वर्ग किलोमीटर और बफर एरिया 1134 वर्ग किलोमीटर है। यहां 300 प्रजाति के पक्षी, 43 प्रजाति के स्तनधारी जीव, 26 प्रजाति के रेंगने वाले जीव और लगभग 500 प्रकार के कीड़े-मकोड़े यहां पाए जाते हैं। मध्यप्रदेश का राजकीय पशु बारहसिंगा, चौसिंगा, सांभर, बार्किंग डियर, चीतल, बाघ, तेंदुआ, भालू, गौर (इंडियन बाइसन), सियार, लोमड़ी, साही और अजगर सहित कई विशेष वन्यजीव यहां पाए जाते हैं। इसके अलावा यहां गोंड और बैगा आदिवासियों की संस्कृति और रहन-सहन को देखना भी महत्वपूर्ण हैं।

खटिया और मुक्की गेट पर बहुत सारे प्राइवेट होटल, लॉज और पर्यटन विभाग के होटल हैं। जबलपुर से आने पर खटिया लगभग 170 किलोमीटर और मुक्की 210 किलोमीटर, और नागपुर से मुक्की 220 और खटिया 260 किलोमीटर, इसी तरह रायपुर से मुक्की 210 और खटिया गेट 250 किलोमीटर दूर है। जबलपुर, नागपुर और रायपुर तक ट्रेन या फ्लाइट और इसके आगे बस या टैक्सी से कान्हा पहुंचा जा सकता है। कान्हा में सफारी के लिए बुकिंग ऑनलाइन होती है। हालांकि बफर जोन में सफारी के लिए गेट पर मैन्यूल बुकिंग हो जाती है। यहां खटिया गेट और मोचा गांव तक पैदल सड़क पर घूमना और बाजार में चाय की चुस्कियां लेते हुए स्थानीय लोगों से संवाद करना भी रोमांचक है।

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