उत्तर भारत में सालों बिताने के बाद मैं कई चीज़ें मुंबई में अक़्सर मिस करती हूं। जैसे उत्तरी भारत का खाना, और सर्दी का मौसम। मुंबई में ठंड न के बराबर होती है। इधर कुछ दिनों से उत्तरी भारत के दोस्तों से जब भी बात होती, वो कंपकंपाती सर्दी का राग अलापने लगते। अचानक ख़याल आया कि क्यों न हम भी किसी ठंडी जगह जाकर सर्द मौसम का मज़ा लें। बजट और समय का ध्यान भी रखना था, ऐसे में भला माथेरान से अच्छी जगह क्या हो सकती थी। बस, कुछ दोस्तों के साथ चल दिए हम माथेरान।
मुंबई से हम माथेरान के लिए अलसुबह रवाना हुए। दादर स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़ 2 घंटे में हम नेरल जंक्शन पहुंच गए। नेरल माथेरान के लिए सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन है। नेरल में छोटी लाइन है जो माथेरान तक जाती है। स्टेशन से बाहर आने पर हमें एक लंबी क़तार दिखी। लाइन टॉय ट्रेन की टिकट के लिए थी। टॉय ट्रेन माथेरान का मुख्य आकर्षण है। छुक-छुक करती हुई गाड़ी नेरल से 21 किलोमीटर का सफ़र तय करती हुई 2 घंटे में माथेरान पहुंचाती है। मंज़िल तक पहुंचने की जल्दी कह लें या सब्र की कमी, क़तार का हिस्सा न बनते हुए हमने टॉय ट्रेन को टाटा कहा और टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गए।
रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही कई छोटे-छोटे रेस्तरां हैं। जहां महाराष्ट्र और गुजरात का ख़ास भोजन मिलता है। मिसल-पाव, पोहा, वड़ा-पाव और ढोकला वगैरह। नाश्ते के बाद हमने माथेरान के लिए टैक्सी पकड़ ली। नेरल से माथेरान का रास्ता ख़ूबसूरत है। एक तरफ ऊंचे पहाड़ हैं और दूसरी तरफ गहरी खाई। रास्ता काफी घुमावदार है। चढ़ाई वाला भी। सुहाने सफ़र का मज़ा लेते हुए हम कब दस्तूरी नाका पहुंच गए, पता ही न चला। दस्तूरी नाका आख़िरी पड़ाव है। यहां से हमें पैदल माथेरान जाना था।
वाहनों का प्रवेश वर्जित
माथेरान देश का इकलौता हिल स्टेशन है जहां निजी वाहन ले जाने की अनुमति नहीं है। चाहें तो दस्तूरी नाका तक गाड़ी ला सकते हैं लेकिन आगे जाने के सिर्फ़ तीन तरीक़े हैं। पैदल, घोड़े या फिर हाथ-रिक्शा की मदद से। दस्तूरी नाका से माथेरान के लिए मामूली प्रवेश शुल्क है, जिसे देकर हम पैदल ही माथेरान की तरफ बढ़ गए। लाल मिट्टी, छायादार पेड़, ऊबड़-खाबड़ रास्ता, घोड़े और उनकी टापें.. इस सबके बीच ट्रैकिंग का अलग मज़ा है। रेलवे लाइन के साथ-साथ 3 किलोमीटर का यह नेचर वॉक तरो-ताज़ा देने वाला है। कुछ दूर चलने पर हमें कई छोटे-बड़े होटल दिखाई देने लगे। माथेरान में होटलों की भरमार है।
अगर आप पीक सीज़न में जा रहे हैं तो होटल की बुकिंग पहले करा लेना बेहतर है। कुछेक ठिकाने खंगालने के बाद हमने स्थानीय बाज़ार के पास एक होटल में चेक-इन किया। खाने में गुजराती थाली थी। भरपेट खाकर आराम किया। फिर हम तैयार थे माथेरान की सैर के लिए।
कब जाएं: माथेरान का मौसम यूं तो साल भर सुहावना रहता है लेकिन अक्तूबर से मई तक का समय सबसे अच्छा है। माथेरान की असली छटा देखनी हो तो मॉनसून के तुरन्त बाद प्रोग्राम बनाएं। भीड़-भड़क्के से बचना चाहते हों तो वीक-एंड और छुट्टियों के दौरान जाने से परहेज़ करें।
ख़ूबसूरत नज़ारों से घिरा माथेरान
माथेरान एक ख़ूबसूरत पहाड़ी इलाक़ा है। पर्यावरण की दृष्टि से केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इसे संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर रखा है। हर हिल स्टेशन की तरह यहां भी खूब सारे प्वायंट्स यानि दर्शनीय स्थल हैं। इनमें से एको प्वायंट पर पहाड़ से टकराकर आपको अपनी ही आवाज़ सुनाई देगी। पेनोरमा प्वायंट से उगते हुए सूरज का ख़ूबसूरत नज़ारा है तो सनसेट प्वायंट पर सुदूर पहाड़ियों के बीच गुम होता सूरज भी।
दिन चलते हुए बीत गया, एक प्वायंट से दूसरे तक। मंकी प्वायंट पर पहुंचकर थोड़ी सांस ली तो देखा कि आस-पास ख़ूब सारे बंदर आराम फ़रमा रहे हैं। माथेरान में बंदरों और लंगूरों की बहुतायत है। सामने सैलानियों का एक दल फोटो खींचने में मशगूल था। पास में ही सामान रखा था। अचानक एक बंदर उनका बैग लेकर भागने लगा। लोगों ने जैसे-तैसे उसके चंगुल से बैग छुड़ाया। बाद में पता चला कि कुछ देर पहले उस ग्रुप में से एक आदमी बंदर को चिढ़ा रहा था। शांत दिखने वाले बंदर कभी भी खुराफ़ात कर सकते हैं। इसलिए सावधान रहें और उनके सामने खाने-पीने की कोई चीज़ न लेकर जाएं।
अगले दिन बारी थी शार्लोट लेक की। इसी लेक से पूरे माथेरान में पानी की सप्लाई होती है। झील के आस-पास का इलाक़ा सुक़ून भरा है। झील से कुछ दूरी पर पिसरनाथ मंदिर है। लॉर्ड्स प्वायंट भी नज़दीक है। यहां से आप सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला से घिरा माथेरान देख सकते हैं। ग़ौर से देखने पर प्रबलगढ़ किला भी नज़र आता है। वापसी में हमें ब्रिटिश और पारसी शैली के कई ख़ूबसूरत बंगले दिखे। ज़्यादातर बंगले परित्यक्त, और देख-रेख के अभाव में जर्जर पड़े थे। स्थानीय लोग बताते हैं कि कठिन रहन-सहन और वाहन की सुविधा न होने से उन बंगलों के मालिक माथेरान छोड़कर बाहर जा बसे हैं।
ट्रैकिंग प्रेमियों के लिए अदद जगह
दिन भर सैर करते-करते टांगें जवाब देने लगीं लेकिन हौसला बरक़रार था। क़ुदरत के साथ क़दमताल करने का मौक़ा आख़िर कभी-कभी जो मिलता है। प्रकृति-प्रेमियों के लिए माथेरान किसी तोहफ़े से कम नहीं है। चारों तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ हरियाली है। माथेरान कई तरह के जीव-जन्तुओं का बसेरा है। आप यहां पपीहा, मैना, किंगफिशर और मुनिया जैसे पंछी देख सकते हैं। कई तरह के सांप भी हैं। लेकिन वो ज़हरीले नहीं हैं। चलते-चलते थक जाएं तो घोड़ा किराए पर ले सकते हैं। घोड़े वाले जगह-जगह हैं। हाथ रिक्शा का विकल्प भी खुला है। लेकिन मोल-भाव करना न भूलें।
क्या ले जाएं: अगर आप ट्रैकिंग के लिए जा रहे हैं तो अच्छी क्वालिटी के जूते साथ लेकर जाएं। स्पोर्ट्स शूज़ हों तो क्या कहने। सामान हल्का रखें
वैली-क्रॉसिंग है आकर्षण
टॉय ट्रेन और प्रदूषण रहित आबो-हवा के अलावा माथेरान में एक और आकर्षण है.. वैली-क्रॉसिंग का। वैली-क्रॉसिंग यानि रस्सियों की मदद से दो पहाड़ियों के बीच की खाई पार करना। इस तरह के रोमांचकारी खेलों में अगर दिलचस्पी रखते हैं तो माथेरान आपके लिए बेशक अच्छी जगह है। लॉर्ड्स प्वायंट के नज़दीक वैली-क्रॉसिंग की सुविधा है। इसमें दो विकल्प हैं- बटरफ्लाई वे और क्रॉलिंग वे। अपनी सुविधानुसार आप वैली-क्रॉसिंग का कोई भी तरीक़ा चुन सकते हैं। ज़रा सोचिए, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक जाने का यह अंदाज़ कितना रोमांचक हो सकता है।
अलग है रोमांच
लॉर्ड्स प्वायंट में बटरफ्लाई और क्रॉलिंग मैं कर चुकी थी। लेकिन यह सिर्फ़ एक वॉर्म-अप सैशन था। रोमांच की चिंगारी भीतर अब भी सुलग रही थी, जिसे शांत करने का मौक़ा जल्द ही मिल गया। ट्रैकिंग करते हुए लुइज़ा प्वायंट की तरफ जा रहे थे कि हमें ‘हनीमून प्वायंट’ का साइन बोर्ड दिखाई दिया। पास ही चाय वाले से पूछने पर पता चला कि वहां भी वैली-क्रॉसिंग होती है। यह सुनकर हम हनीमून प्वायंट की तरफ़ बढ़ गए। वहां एक प्रोफेशनल टीम ने हमारा स्वागत किया। कुछ दूर एक पहाड़ी थी, जिसे लुइज़ा प्वायंट कहते हैं। फ्लाइंग फॉक्स के ज़रिए लुइज़ा प्वायंट की उसी पहाड़ी तक मुझे पहुंचना था। फ्लाइंग फॉक्स वैली-क्रॉसिंग का एक तरीक़ा है, जिसमें हवा में लटके-लटके एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक पहुंचा जा सकता है।
जेब ढीली और दिल मज़बूत करके 900 फुट की गहराई पार करने के लिए मैं तैयार थी। हल्का सा एक धक्का..सर्र की आवाज़ और फिर हवा से बातें करती हुई मैं। होश संभालकर आस-पास देखा तो दूर तक फैला जंगल और डूबता हुआ सूरज था। हवा में झूलते हुए यह नज़ारा बेहद ख़ूबसूरत लगा। हिम्मत जुटाकर नीचे देखा तो पांव तले ज़मीन खिसक जाने का सही मतलब समझ में आया। नीचे एक गहरी खाई थी। एकबारग़ी रोंगटे खड़े हुए लेकिन फिर उस रोमांच से तारतम्य सा बैठ गया। मज़बूत रस्सियों से बंधी मैं खुले आकाश में किसी पंछी की तरह इठला रही थी। यह एक अलग अनुभव था। मन किया कि घंटों तक बस ऐसे ही हवा में झूलती रहूं। लेकिन कहते हैं कि ख़ूबसूरत लम्हों की उम्र कम होती है। लुइज़ा प्वायंट आ चुका था। मैंने एक लम्बी सांस ली और उत्तेजना से भरे उस अनोखे सफर के बारे में सोचती हुई आगे बढ़ गई।
अगर आप भी रोमांच प्रेमी हैं, तो हनीमून प्वायंट पर वैली-क्रॉसिंग ज़रूर करें। 900 फुट गहरी खाई, आर-पार दो पहाड़ियां, और उनके बीच 850 फुट का फ़ासला। वैली-क्रॉसिंग का तजुर्बा बेहतरीन है। आपके पास पहले से ऐसा कोई अनुभव हो, यह ज़रूरी नहीं है। ज़रूरत थोड़े जज़्बे की है। फीस है प्रति व्यक्ति 250 रूपए। सुरक्षा के इंतज़ाम भी पक्के हैं। इसके अलावा जो रिस्क हो, सो आपका।
चहल-पहल भरी एमजी रोड
लाल मिट्टी से सना कच्चा रास्ता और दूर-दूर तक कोई वाहन नहीं.. यह है माथेरान की एमजी रोड यानि महात्मा गांधी रोड। किसी भी दूसरे एमजी रोड से बिल्कुल अलग। लेकिन चहल-पहल के मामले में अव्वल। दोपहर हो या शाम, सैलानियों का खूब जमावड़ा रहता है यहां। जगह-जगह लकड़ी की गुलेलें बिकती हुई देख हैरानी हुई। एक दुकानदार ने बताया कि ये बंदरों को डराने के काम आती हैं। एमजी रोड पर चिक्की की कई दुकानें हैं। चिक्की माथेरान का ख़ास मिष्ठान है। यहां से आप स्थानीय क़ारीगरों के बनाए जूते-चप्पल भी ख़रीद सकते हैं। माथेरान को अलविदा कहने का वक़्त था। बाज़ार से हम सीधे रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिए। यह सोचकर कि वापसी में ही सही, टॉय ट्रेन की सवारी ज़रूर करेंगे। वहां एक लम्बी क़तार फिर नज़र आई। चार डिब्बों की टॉय ट्रेन और सैकड़ों सवारियां। जैसे एक अनार और सौ बीमार। लेकिन इस बार लाइन में खड़े होने की हिम्मत जुटा ली। तभी पता चला कि करंट बुकिंग में 30 से ज़्यादा सवारियों को टिकट नहीं मिलता। माथेरान लाइट रेलवे का यह नियम सर आंखों पर रख हमने वापसी के लिए टैक्सी पकड़ ली।
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