Tuesday, November 5
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जहां रक्षाबंधन पर होता रहा है पाषाण युद्ध

कोरोना की वजह से उत्तराखंड के देवीधुरा के वाराही धाम में लगने वाले प्रसिद्ध बग्वाल (पाषाण युद्ध) मेले को इस साल निरस्त कर दिया गया है। इस बार न तो मेला लगेगा और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होंगे। कुछ दिन पहले तय हुआ था कि रक्षाबंधन के दिन खोलीखांड दुबचौड़ मैदान में परंपरा को जीवित रखने के लिए सांकेतिक बग्वाल खेली जाएगी। लेकिन अब यह फैसला हुआ है कि अब बग्वाल के दिन मंदिर में केवल पूजा-अर्चना ही होगी। सिर्फ मंदिर समिति को प्रवेश की अनुमति मिलेगी। वाराही धाम में सांकेतिक बग्वाल भी नहीं होगी। रक्षाबंधन पर मंदिर समिति और चार खाम से जुड़े लोग केवल पूजा अर्चना करेंगे। ग्रामीणों को घरों में देवी का प्रसाद भेजा जाएगा। चार अगस्त को देवी का डोला मुचकुंद ऋषि आश्रम जाएगा। इस डोले में भी चार से अधिक लोग शामिल नहीं हो सकेंगे। लिहाजा बग्वाल होगा नहीं, लेकिन हम आपको बता रहे हैं, इससे जुड़ी कहानी जिसने देवीधुरा को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। इस बार वर्चुअल अनुभव ही सही।

उत्तराखंड की संस्कृति यहां के लोक पर्व और मेलों में स्पंदित होती है। यूं तो राज्य में जगह-जगह साल भर मेलों का आयोजन चलता रहता है, लेकिन कुछ मेले ऐसे हैं जो अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। कुमांऊ के देवीधुरा नामक स्थान पर लगने वाला बग्वाल मेला इन्हीं में एक है, जो हर साल रक्षा बंधन के दिन मनाया जाता है। इस अनूठे मेले की खास विशेषता ये है कि इसमें पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग जुटते हैं।

चंपावत जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा-लोहाघाट मार्ग पर बसा देवीधुरा समुद्रतल से करीब 2500 मीटर की ऊंचाईं पर स्थित है। यहीं पर विशाल शिलाखंडों के मध्य प्राकृतिक रूप से बनी गुफा में मां वाराही देवी का मंदिर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए संकरी गुफा है। मंदिर के पास ही खोलीखांड दुबाचौड़ का लंबा-चौड़ा मैदान है। यहां पर रक्षा बंधन के दिन बग्वाल यानी पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है। यह खेल लमगडिया, चम्याल, गहरवाल और बालिग खापों (खाम) के बीच खेला जाता है। इन चारों खाम से जुड़े आसपास के गांव के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं।

वाराही देवी मंदिर

पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल के पीछे कई लोकमान्यताएं जुड़ी हैं। इन्हीं के अनुसार प्राचीन काल में वाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए यहां नरबलि देने की प्रथा थी। कहा जाता है कि हर साल इन चारों खाम के परिवारों में से किसी एक सदस्य की बलि दी जाती थी। एक बार एक खाम की बूढ़ी महिला के पोते की बारी आई लेकिन महिला ने अपने पोते की बलि देने से इंकार कर दिया। कहीं देवी कुपित न हो जाए, यह सोचकर गांव वालों ने निर्णय लिया कि बग्वाल खेलकर यानी पत्थरों का रोमांचकारी खेल खेलकर एक मनुष्य शरीर के बराबर रक्त बहाया जाए।

तभी से नरबलि के प्रतीकात्मक विरोध स्वरूप इस परंपरा को जीवित रखते हुए हर साल रक्षाबंधन के दिन चारों खाम के लोग यहां ढोल नगाड़ों के साथ पहुंचते हैं और पत्थरों के रोमांचकारी खेल को खेलते हैं। चारों खाम के लड़ाके युद्ध के मैदान खोलीखांड और दुबाचौड़ के मैदान में परंपरागत युद्ध पोशाक और छंतोलियों को हाथ में लिए ढोल नगाड़ों के साथ देवी वाराही के मंदिर में पहुंचते हैं। सबसे पहले इन चारों खाम के योद्धाओं द्वारा मंदिर की परिक्रमा और पूजा-अर्चना की जाती है और फिर मंदिर के लंबे-चौड़े प्रांगण में युद्ध के लिए मोर्च पर डट जाते हैं। लमगडिय़ा और बालिग खाम के योद्धा दक्षिण दिशा में होते हैं और गहरवाल और चम्याल खाम के लड़ाके उत्तर दिशा में होते हैं।

मंदिर में देवी की प्रतिमा

पुजारी के शंखनाद के साथ ही बग्वाल शुरू हो जाता है और फिर शुरू होता है पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध जिसमें लोगों की सांसें थम जाती हैं। युद्ध के दौरान घायल लड़ाके पत्थरों की चोट को माता का प्रसाद मानते हैं। युद्ध के दौरान मैदान का दृश्य देखने लायक होता है। बांस की बनी छतोलियों से लड़ाके अपना बचाव करते हैं। इस चोट पर किसी तरह की मरहम पट्टी नहीं की जाती। जिस समय यह रोमांचकारी युद्ध होता रहता है, पुजारी मंदिर में बैठकर देवी वाराही की पूजा अर्चना करता रहता है। यकायक वह भाववश मैदान में पहुंच शंखनाद करता है और पुजारी के शंखनाद के साथ ही पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को रोक दिया जाता है।

इसके बाद चारों खाम के योद्धा आपस में गले मिलते हैं। इससे पहले सुबह मंदिर में देवी वाराही की प्रतिमा को चारों खाम के लोग नंदगृह ले जाते हैं, जहां पर मूर्तियों को दूध से नहलाया जाता है और नए परिधानों से सुसज्जित किया जाता है। सामान्य दिनों में यह प्रतिमा तांबे के बक्से में विराजमान रहती है जिसके एक खाने में मां काली और एक खाने में मां सरस्वती की मू्र्ति भी रखी गईं हैं। हर साल रक्षा बंधन के दिन पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को देखने के लिए हज़ारों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इनमें विदेशी पर्यटकों की तादाद भी होती है।

ऐसे होता है पत्थर युद्ध

यह मेला पर्यटन का स्वरूप लेता जा रहा है। अब मेले से पहले एक हफ्ते तक देवीधुरा में विभिन्न स्टाल आदि लगाए जाते हैं। रंगारंग कार्यक्रम चलते रहते हैं जिनमें उत्तराखंड की संस्कृ्ति के दर्शन देखने को मिलते हैं। यह सारा इलाका धार्मिक रूप से जितना प्रसिद्ध है, प्राकृतिक रूप से उतना ही सुंदर है। यही वजह है कि लोकपरंपराओं से जुड़े इस अनूठे मेले को देखने श्रद्धालु तो पहुंचते ही हैं, साथ ही साथ प्रकृति प्रेमी भी यहां आना नहीं भूलते।

कैसे पहुंचेः यहां पहुंचने के लिए आप बस या रेल मार्ग का सहारा ले सकते हैं। अगर आप रेल से आना चाहें तो देश के किसी भी कोने से आप टनकपुर या काठगोदाम पहुंच सकते हैं। टनकपुर और काठगोदाम सीधी रेल सेवा से जुड़े हैं। उसके बाद इन दोनों स्थानों से देवीधुरा की दूरी तकरीबन 150 किलोमीटर है।

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