उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में देवीधुरा रक्षाबंधन के दिन होने वाले बग्वाल के लिए प्रसिद्ध है। बग्वाल यानी पत्थर से होने वाला युद्ध। अब यह बग्वाल की परंपरा कितनी प्राचीन है और इसके पीछे क्या ऐतिहासिक तथ्य हैं, इसको लेकर कोई ठोस प्रमाण या लिखित इतिहास तो नहीं है। इसकी सारी परंपरा लोक मान्यताओं व लोक-श्रुतियों के अनुसार ही चल रही है। ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि यह बग्वाल इस इलाक़े में किसी ज़माने में रही नरबलि की परंपरा का ही अवशेष है। बग्वाल देवीधुरा में बाराही देवी के मंदिर के मैदान में खेला जाता है, और कहा यही जाता है कि बाराही देवी को चढ़ने वाली नरबलि के विकल्प के रूप में ही देवी के सामने पत्थरों से युद्ध करके एक इंसान के रक्त के बराबर ख़ून बहाने की परंपरा शुरू हुई।
बग्वाल का एक निश्चित विधान होता है। बग्वाल मेला तो कई दिन चलता है लेकिन बग्वाल के लिए सांगी पूजा श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी को होती है जिसमें महर व फ़र्त्याल समुदायों के चार खामो – गहरवाल, चम्याल, वालिक व लमगड़िया के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं। बग्वाल श्रावण माह की पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन के दिन खेला जाता है। बग्वाल में हिस्सा लेने वालों को द्यौक कहा जाता है। रक्षाबंधन के दिन चारों खामों के द्यौक बारी-बारी से देवीधुरा में बाराही मंदिर के प्रांगण में पहुँचते हैं। इनकी टोलियाँ शंख, ढोल, नगाड़ों के साथ छन्तोलियां लेकर आती हैं। सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ लिए और फूलों से सजी छंतोलियों के साथ ये द्यौक मंदिर की परिक्रमा करते हैं। अब परंपरा अनुसार तो मैदान में पहुंचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग-अलग होती है। उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहरवाल मैदान में आते हैं।
हाल के सालों में इस पत्थर युद्ध को लेकर ख़ासा विवाद भी रहा है, क्योंकि बड़ी संख्या में लोग इसमें ज़ख़्मी होते रहे हैं। यह मसला उत्तराखंड हाई कोर्ट तक में जा चुका है और पत्थरों के इस्तेमाल को लेकर कई निर्देश भी आए हैं। सरकार, प्रशासन व आयोजकों के स्तर पर तय यह भी हुआ कि बग्वाल में पत्थरों के स्थान पर फलों व फूलों का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन क्या वाक़ई ये निर्देश माने जाते हैं?
हमने मैदान में नाशपतियों व अन्य फलों के कुछ टोकरे तो अवश्य रखे देखे, लेकिन यहाँ सारी तैयारियाँ जमकर होने वाली पत्थरबाज़ी की ही थी।
At Devidhura in Champawat district of Uttarakhand, every year on the occasion of Rakshabandhan, there is a centuries-old tradition of playing a stone-throwing war among four local communities. This is done to appease the goddess Varahi Devi as a substitute for human sacrifice.. A ritual played out just for ten minutes is witnessed by thousands of locals as well as tourists from far-off places.
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