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इस भादो में चलिए मक्खन की होली खेलने रैथल

भादो (भाद्रपद) के महीने में होली, वह भी रंगों से नहीं बल्कि छाछ-मक्खन से! चौंकिए मत। हमारे देश में इतनी जबरदस्त सांस्कृतिक विविधता है कि यहां तरह-तरह के अनूठे त्यौहार मनाए जाते हैं। कुछ से तो हम वाकिफ हो जाते हैं और कुछ इतने दूर-दराज के इलाके में होते हैं कि उनके बारे हम कम ही जान-सुन पाते हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में रैथल ऐसी ही एक जगह है। रोमांच प्रेमियों में रैथल की लोकप्रियता और भी वजहों से है, खास तौर पर दयारा बुग्याल के कारण। रैथल वहां के लिए बेस के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। रैथल गांव अपने आप में बहुत खूबसूरत है और खासी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत भी अपने में समेटे हुए है। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं, यहां की इस अनूठी होली की।

दयारा बुग्याल को जाता रास्ता

उत्तरकाशी से गंगोत्री जाने वाले रास्ते पर जिला मुख्यालय से 42 किलोमीटर दूर समुद्र तल से करीब दस हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है रैथल गांव। गांव से और ऊपर आठ किलोमीटर की चढ़ाई करके दयारा बुग्याल के घसियाले मैदान में रंगों नहीं, बल्कि मट्ठे और मक्खन से होली का मस्ती भरा त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार पर घर की खुशहाली और मवेशियों के अच्छे स्वास्थ्य की कामना की जाती है। है न अनूठी बात।

दयारा बुग्याल करीब 11 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह पर्यटन के लिहाज से बहुत सुंदर और रमणीय जगह है, जहा पर सुन्दर रंगबिरंगी मछलियों वाला तालाब है। जानकारों का मानना है गढ़वाल के निचले हिमालयी इलाके में स्थित दयारा बुग्याल इस ऊंचाई पर सबसे बड़े बुग्यालों में से एक है। बताया जाता है कि यह बुग्याल 28 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैला है। मीलों दूर तक फैले इस बुग्याल में लाखों रंग-बिरंगे फूलों के अलावा आयुर्वेदिक दवाइयों में इस्तेमाल की जाने वाली दुर्लभ जड़ी बूटियां भी पाई जाती हैं। जब पहाड़ों पर बर्फ पिघलती है और हरी घास उगती है तो रैथल गांव के लोग अपने मवेशियों को बुग्याल की मखमली घास में चराने के लिए छोड़ आते हैं।

दयारा बुग्याल में चरते मवेशी

मवेशी कुछ महीने बुग्यालों में ही रहते हैं। उनकी देखरेख के लिए बुग्याल में ही छोटी-छोटी चहनियां (झोपड़ियां) बनाकर चरवाहे भी रहते हैं। बारिशों का मौसम शुरू होने तक ये वहीं बुग्याल में रहते हैं। वे यह मानते हैं कि उनके दुधारू पशु बुग्याल की घास व जड़ी-बूटियां खाकर खासे सेहतमंद हो जाएंगे। पशुओं के माध्यम से दूध के उत्पादन में वृद्धि होती है और इसी के माध्यम से लोगों के जीवन में संपन्नता आती है।

जब जानवर स्वस्थ हो जाते हैं तो भादो के महीने में रैथल के लोग उन्हें लेने  बुग्याल जाते हैं। अपने सेहतमंद पशुओं के सकुशल वापस लौट आने की खुशी में ही यह ‘बटर सेलिब्रेशन’ यानी मक्खन होली होती है। भले ही ये एक दिन का त्योहार है, पर इसे मनाने के लिए कई दिनों से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। पहले इसी त्योहार को ‘अन्दुरि’ कहा जाता था। यह त्योहार खास तौर पर प्रकृति को धन्यवाद देने का तरीका है, जिसमें कहा जाता है कि “हे प्रकृति देवता! आपने हमारे पशुओं की रक्षा की और उनके खाने का बंदोबस्त कर उन्हें स्वस्थ्य और हष्ट-पुष्ट किया। इसके लिए आपका शुक्रिया।”

बुग्याल का खूबसूरत नजारा

यह त्योहार तो पारंपरिक है लेकिन अब जैसे-जैसे यह इस इलाके के बाहर लोकप्रिय हो रहा है और इसे देखने बाहर से लोग आने लगे हैं तो इसके स्वरूप में कई सारी बातें जुड़ती जा रही हैं। इस दौरान मेले का आयोजन भी होता है। महाराष्ट्र में जन्माष्टमी पर होने वाली दही-हांडी की ही तर्ज पर आजकल इस त्योहार में भी दही हांडी की तरह मट्ठे से भरी हुंडिया फोड़ने का भी चलन हो गया है। त्योहार के दौरान सभी गांव वाले घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं, रंगबिरंगी पिचकारियां उनके हाथ में होती है। फिर वे बाल्टियों से मट्ठे को पिचकारी में भर कर एक-दूसरे पर डालते हैं। स्कूली बच्चे, महिलाएं, टूरिस्ट, आस-पास के इलाके के लोग सभी इस होली में शामिल होते हैं।

जाहिर है कि रैथल में मवेशी खूब हैं तो दूध-दही की प्रचुरता है। इसके अलावा यहां खेती भी खूब है। सेब, आलू, राजमा की खेती भी यहां के लोगों की आय का बड़ा जरिया है। आप वहां जाएं तो स्थानीय सेब और राजमा-चावल का लुत्फ जरूर उठाएं।

छाछ से नहलाते स्थानीय लोग

अन्दूरी त्यौहार मनाने के लिए चरागाह में स्वागत के लिए घर के बाहर फूल- पत्तियों से द्वार बनाए जाते हैं और उसी पर पूरियां लटकाई जाती हैं। सभी रिश्तेदारों और पड़ोसियों को पर्व में शरीक होने का निमंत्रण दिया जाता है, जिससे उनके समाज में सभी को मालूम हो जाए कि चरवाहे और उनके पशु स्वस्थ्य होकर बुग्याल से नीचे आ रहे हैं। पहले इस त्यौहार में मेहमानों पर गोबर और कीचड़ फेंककर उनका स्वागत होता था। लेकिन जब से अंदूरी त्योहार ने मट्ठा-मक्खन त्योहार का स्वरूप ले लिया है, तब से लोग कीचड़ की जगह मट्ठे को पिचकारियों में भर कर एक-दूसरे पर फेंकते हैं और मक्खन एक दूसरे के गालों पर लगाते है।

जब से इस त्योहार को देखने के लिए बाहर से सैलानी आने लगे हैं तो इस त्योहार को बढ़ावा देने के लिए राज्य का पर्यटन विभाग भी लोकगीत-संगीत का आयोजन करने लगा है। इतना ही नहीं, अब तो स्थानीय जनप्रतिनिधि उत्सव का उद्घाटन करने लगे हैं। इस मौके पर स्थानीय पुरुष और स्त्री पारंपरिक ढ़ीमई और मीठी धुनों पर लोक नृत्य करते है। सैलानी भी उनकी इस मधुर धुन पर थिरके बिना नहीं रह पाते। यानी आप भी जब वहां जाएं तो वहां के पारंपरिक परिधान पहनकर लोक नृत्य में शामिल होने का आनंद जरूर लें। यह होली मैदानों की होली से अलग है लेकिन यह एकदम अलग अनुभव है।

परंपरिक नृत्य व मस्ती

रैथल गांव से आठ किलोमीटर का ट्रेक करके दयारा बुग्याल पर पहुंचा जा सकता है। वहां तक पहुँचने का रास्ता खूबसूरत, रोमांचक और प्रकृति के करीब है इसलिए टूरिस्टों को ट्रेकिंग के लिए आकर्षित करता है। टूरिस्ट यहाँ पर मई से अक्टूबर तक जा सकते है। वैसे बारिश के दिनों में यहां जाने से बचें। दिसंबर से मार्च तक यहां खूब बर्फ गिरती है। बुग्याल बर्फ से ढक जाता है। लंबा मैदान, बढ़िया ढलान और खूब बर्फ होने के कारण यह जगह स्कीइंग जैसे बर्फ के खेलों के लिए बी खूब उपयुक्त है। विदेशी सैलानी भी यहां खूब आते हैं जिसकी वजह से यहां ‘विलेज टूरिज्म ‘को बढ़ावा मिल रहा है। टूरिस्ट गांव वालों की संस्कृति को जानने और  स्थानीय खानपान का लुत्फ लेने के लिए उनके बीच रहना पसंद करते है। पर्यटकों को सिर्फ यहाँ का बटर फेस्टिवल और ट्रेकिंग ही नहीं बल्कि फूलों की खुशबुओं से भरी रंग-बिरंगी घाटियां भी उतना ही आकर्षित करती है।

फिर भी आप कह सकते हैं कि आवागमन के साधनों के अभाव में यह पर्यटन स्थल फिलहाल पर्यटकों की नज़र से दूर है। पर्यटकों की गिनती जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं। एक लिहाज से यह अच्छा भी है क्योंकि यहां उस तरह का कोलाहल नहीं होता जैसा बाकी सैलानी स्थलों पर हो जाता है। यहां अब भी सुकून है। वैसे पर्यटन और खास तर पर ट्रेकिंग को बढ़ावा मिलने से यहां लोगों के रोजगार भी मिलना शुरू हो गया है।

पिचकारी में भरी है छाछ

रुकने के लिए अब रैथल में कई होमस्टे हैं जहां आप स्थानीय मेहमानवाजी का आनंद ले सकते हैं। रोमांच का शौक हो तो आप ऊपर दयारा की तरफ जाकर कैंपिंग का भी लुत्फ ले सकते हैं। रैथल से सामने द्रौपदी का डांडा और श्रीकंठ चोटियों का शानदार नजारा मिलता है। रैथल गांव के पास ही क्यार्क का प्राचीन सूर्य मंदिर भी है। रैथल में बकरी पालन के लिए मशहूर एक ‘द गोट विलेज’ नाम का प्रोजेक्ट भी चलता है। दयारा बुग्याल से आगे कई और ट्रेक निकलते हैं। रैथल गां में ट्रेकिंग कराने के लिए कई टूर ऑपरेटर व ट्रेकिंग गाइड भी हैं। भटवाड़ी से आगे आप हरसिल भी जा सकते हैं।

रैथल गांव का एक होम स्टे

कैसे पहुंचे

उत्तरकाशी से गंगोत्री जाने वाले रास्ते पर करीब 32 किलोमीटर दूर भटवाड़ी गांव है। वहां से एक रास्ता रैथल के लिए पहाड़ पर चढ़ता है। गांव वहां से करीब दस किलोमीटर है। आप उत्तरकाशी से टैक्सी करके भी रैथल गांव जा सकते हैं। या फिर आप कम खर्च में जाना चाहें तो गंगोत्री जाने वाली बसों पर भटवाड़ी तक जा सकते हैं। वहां से आप किसी स्थानीय सवारी जीप में रैथल जा सकते हैं। या फिर आप अपने वाहन से हों तो सीधे रैथल तक जा सकते हैं।

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