आरजू थी हिंदुस्तान की मल्लिका बनने की और वह बनी भी, लेकिन आदमी-परस्त जहान से एक औरत की हुकूमत बरदाश्त नहीं हुई। सब उनके खिलाफ़ खड़े हो गए। रज़िया सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठने वाली पहली और अकेली महिला रह गई।
दोस्तो, आज हम उसी रजिया सुल्तान के मकबरे की बात कर रहे हैं जिसने चार साल यानी सन 1230 से 1240 तक दिल्ली पर शासन किया। अब यह बेहद अफसोस व तकलीफ की बात है कि इतिहास में जिसका नाम दिल्ली की अकेली महिला शासक के तौर पर दर्ज है, उसका मकबरा इस कदर गुमनामी में खोया हुआ है।
ये पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट के पास बुलबुली खाना इलाके की तंग गलियां हैं जिनसे होकर ही रज़िया सुल्तान के मकबरे तक पहुंचा जा सकता है।
यहां पहुंचना आसान नहीं। पुरानी दिल्ली के बाहर इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को ही है। यह तो पिछले कुछ सालों से इसकी बदहाली के चर्चे बाहर आने शुरू हुए, वरना इसे लोग भुला ही चुके थे। यह भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण यानी एएसआई की रखरखाव के जिम्मे है, जिसके नाम पर यहां रजिया सुल्तान का संक्षिप्त इतिहास हिंदी व अंग्रेजी में बताते दो पत्थर भर लगे हैं। जब हम यहां पहुंचे तो आसपास के लोग नमाज पढ़ रहे थे।
मकबरे में भीतर जाने के लिए एक छोटा सा दरवाजा है जिससे एक बार में सिर्फ एक ही व्यक्ति भीतर जा सकता है। मकबरे को चारों तरफ से ऊंचे-ऊंचे मकानों ने घेरा हुआ है। यहां तक कि मकबरे की दीवार के ऊपर ही लोगों ने अपने घरों की दीवारें टिका रखी हैं। यह अतिक्रमण और मकबरे की अहमियत को लेकर लोगों की नज़रअंदाजी ही इसकी दुर्दशा की सबसे बड़ी वजह है।
अंदर जाने के बाद बाईं ओर मसजिद है। मसजिद को शाही मसजिद रज़िया सुल्तान कहा जाता है लेकिन ऐसा लगता है कि मसजिद बाद के दौर में यहां बन गई होगी।
दाहिनी ओर मसजिद के सामने खुले दालान में एक प्लेटफार्म पर दो कब्र हैं। इनमें आगे वाली कब्र रज़िया सुल्तान की बताई जाती है और दूसरी कब्र उनकी बहन सज़िया की। इसीलिए यहां स्थानीय लोगों में इसे रज्जो व सज्जो का मकबरा भी कहा जाता है।
एक कोने में दो छोटी कब्र और भी हैं। ये किनकी हैं, इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिलती।
रज़िया की मौत कैसे हुई और किन हालात में हुई, इसके बारे में इतिहास में और स्थानीय लोगों में कई कहानियां चलती हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि सत्ता से बेदखल कर दिए जाने के बाद रज़िया ने अपने शौहर इख़्तियारुद्दीन अल्तुनिया के साथ दिल्ली पर कब्जे की आखिरी लड़ाई लड़ी। उसमें शिकस्त मिलने के बाद वह कैथल पहुंची जहां उनकी सेना उन्हें छोड़ गई और लुटेरों ने उनका क़त्ल कर दिया। रज़िया को पहले कैथल में दफ़नाया गया था। वहां भी उनका एक मक़बरा बताया जाता है। फिर उन्हें हटाकर सत्ता पर बैठने वाले उनके सौतेले भाई बहराम शाह ने ही शायद उनके शरीर को कैथल से लाकर यहां दिल्ली में दफनाया।
उनके मकबरे के लिए यह जगह क्यों चुनी गई, इसको लेकर भी यह बताया जाता है कि रज़िया सूफी संत शाह तुर्कमान बयाबानी की अनुयायी थीं और कहा जाता है कि यहीं उनकी खानकाह थी, जहां फिर बाद में रज़िया को दफनाया गया।
दिल्ली का तुर्कमान गेट इन्हीं सूफी संत के नाम पर है और तुर्कमान गेट के नजदीक ही तुर्कमान बयाबानी का यह मकबरा भी है, जो आप देख रहे हैं। यह रज़िया के मकबरे से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
आज ये दोनों मकबरे गुमनामी से बाहर आने की राह देख रहे हैं।
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