Thursday, May 9
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मानसून का लुत्फ लेने की टॉप 10 जगहें

यह सही है कि मानसून घूमने के लिए सबसे रोमांटिक सीजन माना जाता है। लेकिन बारिश में भीगने का लुत्फ हर किसी को रास नहीं आता। इसलिए जो लोग घूमने के लिए स्कूली छुट्टियों से बंधे नहीं हैं और जो लीक से थोड़ा हटकर सैर-सपाटा पसंद करते हैं, उनके लिए मानसून सबसे रोमांच का सीजन है। ये वो लोग होते हैं जो बारिश में भीतर सुरक्षित जगह पर छिपने बजाय बांहें फैलाकर बूंदों को अपने बदन पर महसूस करते हैं। यह सीजन फायदे का भी है, क्योंकि ऑफ सीजन होने के चलते रुकने की जगह सस्ते में मिल जाती हैं, भीड़-भड़क्का नहीं मिलता। मानसून में फर्क सिर्फ इतना है कि जिस तरह से गर्मियों व सर्दियों की छुट्टियों के डेस्टीनेशन बदल जाते हैं, उसी तरह से मानसून के भी कुछ अपने डेस्टीनेशन बन जाते हैं

एलेप्पी के बैकवाटर्स का आनंद

भारत के मुख्य हिस्से में मानसून सबसे पहले केरल में आता है। इस बार थोड़ा लेट आया लेकिन उससे उम्मीदों में कोई कमी नहीं है। भारत में मानसून में भी कहीं घूमने का लुत्फ है तो वह केरल ही है।  मानसून में सुमद्र तट उतने आकर्षित नहीं करते, लेकिन केरल में बैकवाटर्स का आकर्षण मानसून में भी कम नहीं होता, उलटे बढ़ जाता है। यूं तो केरल हमेशा ही काफी हरा-भरा रहता है, लेकिन मानसून के समय यहां की हरियाली की बात ही कुछ और होती है। तूफान या तेज हवाएं न हों तो यहां की बारिश डराने वाली नहीं होती। पानी और पेड़ों पर बारिश की बूंदों की आवाजें यहां संगीत सरीखा आनंद देती हैं। केरल अपने आयुर्वेदिक उपचार के लिए बहुत लोकप्रिय है और मानसून का समय उपचार के लिए सबसे बेहतरीन माना जाता है। कहा जाता है कि इस समय शरीर के सभी छिद्र खुल जाते हैं और इसलिए आयुर्वेदिक तेलों के शरीर के भीतर तक पहुंचने और मसाज आदि के लिए यह सबसे फायदेमंद समय होता है। मानसून के महीनों में ही औषधियों व जड़ी-बूटियों के पौधे निकलते हैं। मसालों की पौध भी इस समय खूब होती है। केरल के लिए मानसून की अहमियत इसी बात से आंकी जा सकती है कि केरल का सबसे बड़ा त्योहार ओणम भी मानसून के ही महीने में आता है। जाहिर है कि मानसून में सब तरफ पानी बढ़ जाता है- चाहे वाटरफॉल्स हों या बैकवाटर्स। और तो और सबसे खास बात यह है कि केरल की सबसे प्रमुख पहचानों में से एक- वहां की सर्प नौका दौड़ भी मानसून के महीनों में ही होती हैं। इन दौड़ों को देखने के लिए दुनियाभर से सैलानी आते हैं। भले ही मानसून का महीना पर्यटन के लिहाज से सुस्त माना जाता हो, लेकिन केरल में सारी नौका दौड़ें इसी समय होती हैं। जून से लेकर सितंबर तक का महीना नौका दौड़ों के लिए तय होता है। इनमें से ज्यादातर आयोजन एल्लेपी या अल्लपुझा में होते हैं।

जिसे कहते हैं भारत का नियाग्रा फॉल्स

गोदावरी की सहायक नदी इंद्रावती पर चित्रकोट नामक स्थान पर यह प्रपात भारत का विशालतम जलप्रपात है। अपनी गिरती विशाल जलराशि के कारण इसे भारत का नियाग्रा भी कहा जाता है। बारिश के मौसम में इस प्रपात का विस्तार अधिकतम होता है। उस समय इसके पाट की चौड़ाई डेढ़ सौ मीटर तक पहुंच जाती है। बस इसी विशालता का प्रत्यक्ष अनुभव लेने के लिए इसे एक बार मानसून में जरूर देखा जाना चाहिए। इसके पक्ष में एक और बात यह भी है कि इसे देखने के लिए आपको कोई ट्रैक नहीं करना पड़ता। ठीक प्रपात के किनारे तक सड़क रास्ता है। नदी में मिट्टी व गाद होने से तब इसकी जलराशि का मटमैला रंग हो जाता है। हालांकि बारिशों की वजह से होने वाली दिक्कतों व बाढ़ के कारण उस दौरान बहुत ही कम पर्यटक यहां आते हैं। जब मानसून गुजर जाता है तो पानी की मात्रा कम होने से इसका रौद्र रूप घटने लगता है और जल शांत होने लगता है। सर्दियां आते-आते इसका सौंदर्य रंग बदलने लगता है। चित्रकोट में इंद्रावती नदी की जलधारा 90 फीट की ऊंचाई से भारी गर्जना के साथ गिरती है। ऊंचाई के लिहाज से देखा जाए तो यह भारत में कई अन्य वाटरफॉल्स से बहुत कम है क्योंकि भारत में कई वाटरफॉल्स तीन सौ मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई से गिरने वाले भी हैं। लेकिन प्रपात की चौड़ाई और गिरती जलराशि (पानी की चादर) के आधार पर यह भारत में सबसे विशाल है। इस विशाल जलराशि के नीचे गिरने से पैदा होने वाली जल की सूक्ष्म बूंदें आस-पास कुहासा पैदा करती हैं। सूर्योदय व सूर्यास्त के समय इसकी छटा और निराली लगती है क्योंकि तब इस पर पड़ने वाली सूर्य की रश्मियां इंद्रधनुषी प्रभाव पैदा करती हैं। इस प्रपात का रंग पहर के हिसाब से बदलता रहता है। कई पर्यटक इसके प्रात:कालीन, दोपहर व सांझ ढलते समय के अलग-अलग स्वरूप वाले दृश्यों को कैमरे पर उतारने का लोभ नहीं छोड़ पाते हैं। रुकने के लिए सबसे अच्छा विकल्प है समीप में एक विश्रामगृह- जहां से आप इसे अपलक देख सकते हैं। यदि वहां स्थान न हो तो तट पर टेंट कालोनी भी एक विकल्प है। वैसे जगदलपुर से यहां तक आने वाले मार्ग के मध्य अब कुछ रिजॉर्ट भी बन गए हैं।

मदमस्त गोवा में मानसून

गोवा घूमने की बात की जाए तो सबसे पहले जेहन में वहां के समुद्र तट ही आते हैं। लेकिन हम मानसून में गोवा जाने की बात करेंगे तो यकीनन उसमें समुद्र तट बहुत बाद की बात होंगे। गोवा में समुद्र तट के अलावा भी बहुत कुछ है और ऐसा भी कुछ है जो वहां मानसून में जाने को प्रेरित करता है। बारिश का अटूट रिश्ता वाटरफॉल्स से है। और अगर दूधसागर वाटरफॉल्स की बात की जाए तो उसकी अकेले की खूबसूरती मानसून में गोवा जाने के लिए अपने आप में पर्याप्त वजह है। दूधसागर वाटरफॉल्स पश्चिमी घाट में दक्षिण गोवा के कोलेम में भगवान महावीर वन्यजीव अभ्यारण्य में स्थित है। प्रपातों के रूप में सैकड़ों फुट की ऊंचाई से सीधे गिरता पानी और आसपास चारों ओर का कुहासा दूध के फेन का आभास देता है जिसके कारण इसका नाम दूधसागर फॉल्स पड़ा है। मिरज से वास्को का मुख्य रेलमार्ग इस वाटरफॉल्स के ऊपर से होकर गुजरता है। नीचे पानी, ऊपर पानी और बीच में पुल से होकर गुजरती ट्रेन का नजारा वाकई बड़ा खूबसूरत है। इस वाटरफॉल्स का रेलवे स्टेशन भी है और कई ट्रेनें वहां रुकती भी हैं। नीचे महावीर सेंक्चुअरी में खड़े होकर इस विहंगम दृश्य को निहारना यादगार अनुभव है। एक अन्य सुंदर स्थल सुरला घाट के निकट वाघेरी पर्वत है। यह पणजी के उत्तर-पूर्व (सड़क के रास्ते लगभग 50 किमी दूर) में सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला में स्थित है। 800 मी की ऊंचाई पर स्थित सुरला घाट बार्ड वुल्फ  स्नेक जैसे कई दुर्लभ प्रजातियों को आश्रय देता है। बारिश के मौसम में गोवा देता है नायाब उपहार-ढेर सारी हरियाली, बेहतरीन पैकेज और साथ में बहुत कम सैलानी। इन महीनों में गोवा की सुंदरता अपने चरम पर होती है। गोवा में बहुत सारे सुंदर मसालों के पौध-गृह हैं जहां पर्यटक  गाइडेड-टूर कर सकते हैं। वाटर स्पोट्र्स के शौकीनों के लिए गोवा किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। गोवा में म्हादेई नदी में सैलानी राफ्टिंग कर सकते हैं। मंडोवी नदी (महादई या म्हादेई नदी के नाम से भी प्रसिद्ध) गोवा की जीवन-रेखा मानी जाती है। मानसून के मौसम में गोवा में बहुत सारे त्योहार भी मनाए जाते हैं। इनमें प्रमुख है बोंदेराम पर्व जो प्रत्येक वर्ष अगस्त  के चौथे शनिवार को दीवर द्वीप में मनाया जाता है।

पुष्पावती घाटी के खूबसूरत फूल

भारत में यूं तो कई प्राकृतिक घाटियां हैं जहां कुदरती तौर पर फूल खिलते हैं, लेकिन जब हम फूलों की घाटी का नाम लेते हैं तो जेहन में सबसे पहले उत्तराखंड की इसी फूलों की घाटी का ख्याल आता है। लेकिन मानसूनी ठिकानों की इस फेहरिस्त में यही एक अकेली जगह है जो अनिवार्य रूप से रोमांच से जुड़ी है। रोमांच लद्दाख के साथ भी है लेकिन वहां यह विकल्प खुला है कि आप हवाई रास्ते से लेह जाएं और पूरा सफर ऐशो-आराम से करें। लेकिन फूलों की घाटी के मामले में ऐसा कोई विकल्प नहीं। हवाई रास्ते से देहरादून के निकट जौली ग्रांट हवाई अड्डे पर उतर भी जाएं तो भी गोविंदघाट तक का तकरीबन दो सौ किलोमीटर का सफर सड़क के रास्ते और फिर वहां से घांघरिया तक 13 किलोमीटर का सफर पैदल या खच्चर से और घांघरिया से आगे फूलों की घाटी तक और भीतर का सफर ट्रैक करके ही पूरा करना होगा। यह सामान्य आरामपसंद सैलानियों के लिए थोड़ा दुष्कर है। हालांकि घांघरिया के निकट अब हैलीपेड बन गया है। यह घाटी समुद्र तल से 3350 मीटर से लेकर 3650 मीटर तक की ऊंचाई पर स्थित है। लगभग आठ किलोमीटर की लंबाई में फैली यह घाटी प्राकृतिक रूप से उगने वाले फूलों, वनस्पतियों व औषधियों का खजाना है। इसे पुष्पावती घाटी भी कहा जाता है। इस घाटी के बीच से पुष्पावती नदी बहती है जो घांघरिया में हेमकुंड से आ रही लक्ष्मण गंगा नदी में मिल जाती है। यह इलाका कई दुर्लभ व लुप्तप्राय वन्यप्राणियों का भी है। इस घाटी के सॢदयों में बर्फ से ढक जाने, फिर मार्च-अप्रैल में बर्फ के पिघलना शुरू करने और जून-जुलाई में नई पौध आने का मौसम चक्र ही कुछ ऐसा है कि यह घाटी जुलाई के अंत से लेकर सितंबर तक फूलों से लकदक रहती है। इन फूलों की उम्र इतनी ही रहती है। अगस्त का महीना यहां जाने के लिए सबसे बेहतर होता है। लेकिन मौसम के चक्र के थोड़ा भी गड़बड़ाने से फूलों के खिलने का समय भी आगे-पीछे हो सकता है। लगभग एक सदी से यह इलाका रोमांचप्रेमियों, वनस्पतिशास्त्रियों के लिए जिज्ञासा का केंद्र बना हुआ है। मानसून में अगर हिम्मत जुटाकर यहां जाया जाए तो यकीनन जिंदगी के सबसे यादगार अनुभवों में से एक होगा।

सापूतारा की मनमोहक छटा

गुजरात के डांग जिले में सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला से घिरा एक छोटा-सा कस्बा है सापूतारा। इसकी गिनती भी देश के उन सैलानी स्थलों में की जा सकती है जिनकी रंगत मानसून में अलग होती है और जिन्हें मानसून के महीनों में देखा जाना चाहिए। इसलिए यहां मानसून में जाएं तो बेहतर है। बारिश में सापूतारा की छटा देख मन बाग-बाग होना तय है। सापूतारा के आसपास कई झरने हैं। खासतौर पर गिरा जलप्रपात, जो यहां से कऱीब 52 किलोमीटर दूर है। इसके मोहपाश में बंधे बिना आप नहीं रह पाएंगे। दरअसल सापूतारा को खालिस मानसूनी डेस्टिनेशन इस लिहाज से भी माना जा सकता है कि खुद गुजरात टूरिज्म हर साल यहां सापूतारा मानसून फेस्टिवल आयोजित करता है। अगस्त-सितंबर में मनाया जाने वाला यह फेस्टिवल लगभग 35 दिन तक चलता है। सापूतारा की शोभा में चार चांद लगाती है झील। झील के आस-पास कुछ होटल हैं। सूरत-नासिक हाइवे से जुड़े होने के कारण यहां चहल-पहल रहती है, जो सप्ताहंत में बढ़ जाती है। हाइवे के किनारे खाने-पीने के कई स्टॉल हैं जो देर रात तक खुले रहते हैं। यहां कोई घर या बंगला देखने को नहीं मिलता। दफ्तर, होटल या फिर व्यावसायिक केंद्र हैं, लेकिन रिहाइश नहीं है। करीब तीन किलोमीटर दूर मालेगांव है जो आदिवासी बहुल क्षेत्र है। सापूतारा में छोटे-मोटे काम करने वाले ज्यादातर लोग इसी गांव के हैं। सापूतारा के प्राकृतिक सौंदर्य की अपनी विशेषताएं हैं। सापूतारा को गुजरात का इकलौता हिल स्टेशन होने का गौरव प्राप्त है। दूसरा, यह इलाका भील, डांग और वारली जैसी जनजातियों का बसेरा है। वैसे वारली वही जनजाति है जिसने दुनिया भर में मशहूर वारली चित्रकला शैली को जन्म दिया है। किसी भी वारली चित्र में इस जनजाति के सरल जीवन की झलक होती है। वारली चित्र अमूमन पिसे हुए चावलों की लेई से बनते हैं और उनमें महिलाएं, पुरुष, पेड़ और पक्षी शामिल होते हैं। सापूतारा में कई होटल हैं लेकिन यहां जाकर आदिवासियों के साथ रहना बिल्कुल अलग अनुभव होगा। दक्षिणी गुजरात में स्थित और महाराष्ट्र को लगभग छूते सापूतारा के लिए नासिक रोड सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। यहां से सापूतारा सिर्फ 70 किलोमीटर दूर है, बस या टैक्सी लेकर आसानी से पहुंच सकते हैं। यह रास्ता सुविधाजनक है और कम समय लेता है। नजदीकी एयरपोर्ट सूरत है, यहां से सापूतारा 165 किलोमीटर दूर है।

मानसून की आनंद नगरी मांडू

जहां अन्य पर्यटन स्थलों पर बरसात का समय जाने के लिए निषिद्ध माना जाता है, मांडू उस समय आकर्षण का मौका उपलब्ध कराता है, जो अन्य कहीं शायद ही उपलब्ध हो। मांडू जीवन के आमोद-प्रमोद और पत्थरों में मुखरित प्रेम की अमरगाथा का जीवंत साक्षी है, जिसे कवि, संगीतप्रेमी और राजकुमार बाजबहादुर ने अपनी प्रेयसी रानी रूपमती के प्रेम की निशानी के रूप में बसाया था। इस नगर की पाषाण प्राचीरों में गहरी प्रेमानुभूति साकार हुई है। आज भी मालवा अंचल के लोक गायक उन विलक्षण प्रेमियों की अमर प्रेमगाधा को गा-गाकर सुनाते हैं और रसिकजनों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। 11वीं सदी में मांडू तारंगगढ़ राज्य का सब डिवीजन था। मांडू का सर्वप्रथम उल्लेख संस्कृत में 555 ईस्वी में पाया जाता है, जिसमें लिखा गया है कि मांडू का परकोटेनुमा शहर ईसा पूर्व छठी शताब्दी में था। प्रमुख रूप से 10वीं और 11वीं सदी में मांडू परमार राजाओं के शासनकाल में प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने इसे मांडवगढ़ नाम दिया। इसके बाद युद्धों का लंबा सिलसिला मांडू ने देखा, जिसमें सन 1305 में खिलजियों ने परमार राजाओं से इसे जीत कर छीना और शादियाबाद का नाम दिया, जिसका हिंदी में अर्थ आनंद नगरी होता है। मांडू ने भिन्न-भिन्न काल में विभिन्न राजाओं का शासन देखा। बाद में 13वीं सदी के अंत में यह नगरी मालवा के सुल्तान राजाओं की प्रभाव सीमा में आई। मांडू का समूचा परिवेश वाकई आनंद और उल्लास से भरा है। इसके शासकों ने इसी भावना के अनुरूप यहां सुंदर महलों का निर्माण कराया। जहाज महल, हिंडोला महल, सुंदर और आकर्षक झीलें, तालाब, स्नानागार और भव्य मंडप शांति और समृद्धि के इस काल की भव्यता के मूक गवाह हैं। मानसून के दौरान यहां की खूबसूरती निराली हो जाती है। अब जिस जगह का निर्माण ही उल्लास के लिए हुआ हो, तो उसे घूमने के लिए उल्लास के मौसम सावन-भादो ही सबसे बेहतरीन होने चाहिए। मांडू का प्रत्येक स्थापत्य वास्तुकला की दृष्टि से एक रत्न जैसा है। चाहे विशाल जामी मस्जिद हो या होशंगशाह का मकबरा, सभी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके निर्माण की भव्यता और विशालता ने सदियों बाद ताजमहल जैसी इमारत के निर्माताओं को भी प्रेरित किया। हरियाली के बीच में होने के कारण वर्षा ऋतु में दूर से यह महल सहज नजर नहीं आता। ऐसी जगह इसके निर्माण के समय इसलिए चुनी गई थी, ताकि कोई आक्रमणकारी सीधे महल तक न पहुंच पाए।

अनूठे वाटरफॉल्स का शिलांग

जब हम शिलांग में मानसून की बात कर रहे हैं तो जाहिर है हमारे जेहन में सोहरा या चेरापूंजी और मासिनराम के नाम हैं। अब जो जगह पहले ही दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश के लिए जानी जाती हो, वहां मानसून में जाने के तुक पर सवाल उठाया जा सकता है, लेकिन मेघालय में शिलांग के आसपास का समूचा इलाका अपने खूबसूरत झरनों और जिन कुदरती नजारों के लिए जाना जाता है, उनका आनंद मानसून के महीनों में सबसे ज्यादा है। खास तौर पर यहां के झरनों का। भारत के सबसे ऊंचे वाटरफॉल्स में से कुछ इस इलाके में हैं। मानसून के महीनों में ये झरने अपने पूरे प्रवाह में होते हैं। हालांकि कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मानसून के महीनों में झरनों के आसपास कुहासा इतना ज्यादा हो जाता है कि कुछ दिखना मुश्किल हो जाता है। इसलिए कुछ लोग मानसून के तुरंत बाद वहां जाने का सुझाव भी देते हैं। लेकिन मानसून के रोमांच की बात कुछ अलग है। दरअसल यहां मानसून का अनुभव ही कुछ अलग है। यहां लोग केवल इसके लिए भी आते हैं। यहां के पहाड़ों व जंगलों की अनूठी भौगोलिक स्थिति के कारण जो यहां भारी बारिश होती है, उसी के चलते यह इलाका एक अद्भुत जैव-विविधता वाले इलाके में भी तब्दील हो गया है। मानसून में जाए बिना उसका असली रूप देखना मुश्किल है। चेरापूंजी को अब सोहरा के नाम से जाना जाता है। सोहरा की दूरी राजधानी शिलांग के 56 किलोमीटर की है। चेरापूंजी या सोहरा में जब आप पहुंचेंगे तो आपको वहां झरनों का शोर सुनाई देगा। इस झरने को सेवन सिस्टर फाल के नाम से जाना जाता है। चेरापूंजी में ही एक व्यू प्वाइंट है जहां से खुले मौसम में बांग्लादेश का हरा-भरा मैदानी इलाका दूर-दूर तक साफ दिखाई देता है। सोहरा के ही आसपास चार-पांच और खूबसूरत और जाने-माने वाटरफॉल्स हैं। मेघालय में ही भारत की कई सबसे बड़ी गुफाएं भी हैं। एक और खास चीज देखने वाली यहां पेड़ों की जिंदा जड़ों से बनाए गए पुल हैं। यह एक अद्भुत करिश्मा है जो खासी जनजाति के लोगों ने सदियों से कुदरत से अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए अपना रखा है। कई पुल पांच सौ साल तक पुराने बताए जाते हैं।

सावन-भादो में लेकसिटी

उदयपुर देश के उन सदाबहार टूरिस्ट डेस्टिनेशंस में से एक है जो टॉप जगहों की लगभग हर फेहरिस्त में अपना नाम शामिल करा लेते हैं। चाहे हनीमून डेस्टीनेशन हों या रॉयल डेस्टिनेशन या मानसून डेस्टिनेशन, उदयपुर के लिए तो शायद एक बहानाभर चाहिए। कहने को उदयपुर जाने के लिए सीजन सितंबर से मार्च तक बताया जाता है, लेकिन मानसून के महीनों को सीजन से बाहर करना इस शहर के साथ ज्यादती होगी। अच्छी बारिश हो तो इस झीलों की नगरी में मानो नई जान आ जाती है। उदयपुर उन चुनिंदा शहरों में से है जहां झीलें जीवन का हिस्सा हैं। यहां झीलें शहर के बाहर नहीं हैं, बल्कि शहर के साथ हैं, उसमें घुली-मिली हैं। यह शहर मानो रोजाना अपनी शाम इन झीलों के साथ मनाता है। चूंकि झीलें ज्यादा गहरी नहीं हैं और इनमें पानी आने का कोई निरंतर स्रोत नहीं है, इसलिए ये बारिश के पानी पर निर्भर रहती हैं। उदयपुर झीलों की नगरी तो है ही, चारों तरफ अरावली श्रृंखलाओं की छोटी-छोटी पहाडिय़ों से भी घिरी हुई है। मानसून की बारिशों में इन पहाडिय़ों की रंगत बदल जाती है। चारों तरफ हरियाली पसर जाती है। अच्छी बारिश के बाद झीलें आस-पास की नदियों से बहकर आते पानी से भर जाती हैं। शहर की तीन प्रमुख झीलों में से एक फतह सागर के एक किनारे पर स्थित छोटा सा बैराज (पाल) ओवरफ्लो होने लगता है तो उसकी खबर जंगल की आग की तरह देखते ही देखते पूरे शहर में फैल जाती है और थोड़ी देर में समूचा शहर उस नजारे को देखने पहुंच जाता है। बारिश अच्छी हो तो सावन के महीने में यहां की रौनक कुछ और ही होती है। सावन के हर सोमवार और फिर हरियाली अमावस्या पर फतहसागर की पाल पर लगने वाला मेला शहरवासियों की जान होता है। यहां बारिश डराने वाली नहीं होती, आनंद देने वाली होती है। बारिश हो तो लोग झील के किनारे घूमने के लिए घरों से निकल पड़ते हैं। इसके अलावा यहां तसल्ली से समय बिताने आने वालों के लिए शहर के आसपास की पहाडिय़ों में अनगिनत पिकनिक स्पॉट हैं। अब अगर ऐसे शहर को मानसून में न महसूस किया जाए तो उसकी खालिस संस्कृति से बाबस्ता होने का मौका चूक जाता है।

मानसून में बर्फीले रेगिस्तान की सैर

लेह उन कुछ चुनिंदा जगहों में से एक है जहां का सीजन ही उस समय होता है जब हम बाकी देश में मानसून मना रहे होते हैं। लेह का वास्ता मानसून से कुछ खास नहीं क्योंकि यह एक ठंडा रेगिस्तान है, जहां बारिश यदाकदा ही होती है। यहां के लिए तो ये महीने उस गर्मी के हैं, जिसमें सैलानी जुटते हैं। लेह का संबंध मानसून से इसलिए भी हो गया है क्योंकि यहां का रास्ता इसी समय खुलता है। रास्ते से मेरा मतलब सड़क रास्ते से है। हवाई रास्ता तो यहां पूरे सालभर खुला है। लेकिन लेह उन जगहों में से भी एक है जहां लोग जगह को देखने के साथ-साथ, और कई मर्तबा तो उससे भी ज्यादा, रास्ते के रोमांच का अनुभव लेने जाते हैं। अब यह रोमांच हवाई सफर में भला कैसे मिलेगा। जाहिर है, यह रास्ता जून के बाद ही खुलता है और रोमांचप्रेमी उस तरफ दौड़ लगा पड़ते हैं। इस तरह यही इस इलाके का सीजन हो गया है और लेह की गिनती भारत के मानसून हॉटस्पॉट्स में होने लगी है। लेकिन जून से अक्टूबर तक का समय ही यहां मौसम के लिहाज से भी अनुकूल रहता है- थोड़ा गर्म। लद्दाख हिमालयी दर्रों की धरती है। उत्तर में कराकोरम पर्वत श्रंखला और दक्षिण में हिमालय से घिरे इस इलाके में आबादी का घनत्व देश में सबसे कम होगा। इसकी दुर्गमता का आलम यह है कि इसके पूर्व में दुनिया की छत कहा जाने वाला तिब्बत, उत्तर में मध्य एशिया, पश्चिम में कश्मीर और दक्षिण में लाहौल-स्पीति घाटियां है। लेकिन अपने अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य के लिए लद्दाख दुनिया में बेमिसाल है। यहं बौद्ध संस्कृति की स्थापना दूसरी सदी में ही हो गई थी। इसी के चलते इसे मिनी तिब्बत भी कहा जाता है। लद्दाख की ऊंचाई कारगिल में 9000 फुट से लेकर काराकोरम में सासेर कंगड़ी में 25000 फुट तक है। प्रकृति की इस बेमिसाल तस्वीर के नजारे आपकी आंखों को कभी थकने नहीं देते लेकिन उसके अलावा भी बौद्ध संस्कृति की अनमोल विरासत यहां मौजूद है। यहां देखने की ज्यादातर चीजें इसी से जुड़ी है। चाहे वह पुराने राजमहल हों, मठ हों, मंदिर या फिर संग्रहालय। लद्दाख क्षेत्र में मूलत: बौद्ध धर्म की मान्यता है। इसलिए यहां की संस्कृति और तीज-त्योहार उसी के अनुरूप होते हैं। पूरे इलाके में हर तरफ आपको बौद्ध मठ देखने को मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर इतिहास की धरोहर हैं। ज्यादातर बड़े मठों में हर साल अपने-अपने आयोजन होते हैं। तिब्बती उत्सव आम तौर पर काफी जोश व उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। मुखौटे और अलग-अलग भेष बनाकर किए जाने वाले नृत्य-नाटक, लोकगीत व लोकनृत्य यहां की संस्कृति का प्रमुख अंग हैं। यहां की बौद्ध परंपरा का सबसे बड़ा आयोजन हेमिस का होता है। गुरु पद्मसंभव के सम्मान में होने वाला यह आयोजन तिथि के अनुसार होता है। ज्यादातर मठ सर्दियों व गरमियों में अपने-अपने जलसे करते हैं। हेमिस समेत आठ प्रमुख बौद्ध उत्सव तो जुलाई व अगस्त में ही होते हैं। पर्यटन विभाग भी हर साल सितंबर में पंद्रह दिन का लद्दाख उत्सव आयोजित करता है। लेह में ठहरने के लिए हर तरह की सुविधा है। ज्यादातर होटल चूंकि स्थानीय लोगों द्वारा चलाए जाते हैं इसलिए उनकी सेवाओं में पारिवारिक लुत्फ ज्यादा होता है। यहां घरों से जुड़े गेस्ट हाउसों में रहना न केवल किफायती है बल्कि लद्दाखी संस्कृति व रहन-सहन से परिचित भी कराता है। जून से सितंबर के टूरिस्ट सीजन में होटल बुकिंग पहले से करा लेना सुरक्षित रहता है।

मालवण का आनंद बारिश में

अगर कोई ऐसा इलाका है जो मानसून में खूब लुभाता है तो वह है कोंकण। दरअसल देश के टॉप मानसून डेस्टीनेशन में कोंकण ही एक ऐसी जगह है जो दरअसल कोई खास जगह न होकर समूचा इलाका है, और खासा बड़ा इलाका। ज्यादा प्रचलित इलाके के तौर पर देखें तो मुंबई के दक्षिण से शुरू करके गोवा के उत्तर तक का सफर ही समुद्र तट के किनारे-किनारे चार सौ किलोमीटर से ज्यादा ही बैठता है। लेकिन कोंकण इलाके का विस्तार तो गोवा को पार करते हुए कर्नाटक के आखिरी तटीय सिरे तक जाता है और इस लिहाज से कोंकण तट की लंबाई सात सौ किलोमीटर से ज्यादा बैठती है। महाराष्ट्र में पनवेल से लेकर कर्नाटक में मैंगलोर तक कोंकण रेलवे की अपनी लंबाई ही 736 किलोमीटर की है। इस रास्ते का लुत्फ अद्भुत है। यह भारत के पश्चिमी घाट का इलाका है। दरअसल ईमानदारी से कहा जाए तो भारत का पूर्वी (ईस्टर्न) घाट भी कम सुंदर नहीं, लेकिन उसकी बस चर्चा कम होती है। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि पिछले दो दशकों में कोंकण रेलवे के चालू होने के बाद से यह इलाका ज्यादा लोकप्रिय हुआ है।  इस इलाके में सड़क नेटवर्क दुरुस्त हुआ और पर्यटन स्थलों पर आवाजाही बढ़ी है। लोग जाने लगे हैं तो यह महसूस होने लगा है कि मानसून में यह इलाका कितना खूबसूरत व रोमांचकारी हो सकता है। हम जिस इलाके की बात कर रहे हैं, वह पूरा तटीय इलाका है, अरब सागर के किनारे-किनारे। एक तरफ समुद्र, दूसरी तरफ घने जंगलों से लदा पश्चिमी घाट का इलाका इस इलाके को जबरदस्त खूबसूरती प्रदान करते हैं। मानसून में इन पहाड़ी इलाकों से असंख्य जलधाराएं फूट पड़ती हैं और समुद्र की तरफ मानो दौड़ लगाती हैं। मानसून में आपको कोंकण के हर कोने पर कोई न कोई वाटरफॉल्स नजर आ जाएगा। कुदरत के अलावा यहां की अनूठी संस्कृति और खान-पान यहां के सफर को और आकर्षक बना देते हैं। चूंकि इस इलाके में पर्यटन कम था, अब भी उतना नहीं है इसलिए यहां की सारी खासियतें अछूती सी लगती हैं। इस इलाके में बारिश होती है और खूब होती है। दूसरी बात इस इलाके के कई समुद्र तट एकदम अछूते से हैं। लेकिन यहां मानसून का लुत्फ समुद्र तट जाने में नहीं है। बेशक आप मौसम थोड़ा खुले तो जरूर जा सकते हैं और लहरों से अठखेलियां कर सकते हैं। मानसून में समुद्र की रंगत अलग ही होती है। कई बार पूरे समुद्र तट पर अकेले अपना राज होने का अनुभव भी बड़ा मजा देता है। कई जगहों पर आपको बैकवाटर्स का भी आनंद मिल जाएगा। सैर व सफर कहीं से भी शुरू किया जा सकता है- महाराष्ट्र में दापोली से लेकर नीचे कर्नाटक में गोकरणा तक हर जगह का अपना अलग आनंद है। गणपति पुले, चिपलून, रत्नागिरी, तारकरली, सिंधुदुर्ग महाराष्ट्र में कोंकण की प्रमुख जगहों में से हैं। सिंधुदुर्ग को तो महाराष्ट्र का कैलिफोर्निया तक कहा जाने लगा है। मालवण का जिक्र खाने के बिना अधूरा है। मालवणी मसालों से तैयार भोजन का स्वाद देर तक रहता है। नारियल के अलावा मछली व चावल भी खाने में शामिल रहते हैं। अगर आप सी-फूड के शौकीन हैं तो यहां से निराश होकर नहीं लौटेंगे। यहां की घावण-चटनी बहुत प्रसिद्ध हैं। साथ ही मटकी दाल, नारियल-आलू-मेथी की भाजी, चावल, गरमा-गरम रोटियां और सोल कढ़ी से सजी मालवणी थालियां भी खाने में मिल जाएंगी। कोकम का शरबत भी समूचे कोंकण इलाके में बेहद लोकप्रिय है।

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